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अनेकांत और स्याद्वाद के संबंध में कुछ आधुनिक मनीषियों के उद्गार

  अनेकांत और स्याद्वाद के संबंध में कुछ आधुनिक मनीषियों के उद्गार जिन आधुनिक मनीषियों ने अनेकांत और स्याद्वाद प्रणाली पर मनन कर उनके संबंध में निष्पक्ष भाव से उनकी यथार्थता, उपयोगिता तथा महत्व पर जो अपने उद्गार समय—समय पर प्रकट किये है उनमें से कुछ का संकलन उन्हीं के शब्दों में निम्नलिखित है— गवर्नमेंट संस्कृत कॉलेज बनारस के भूतपूर्व प्रिंसिपल श्री मंगलदेवजी शास्त्री ने लिखा है कि— ‘भारतीय दर्शन के इतिहास में जैन दर्शन की एक अनोखी देन (अनेकान्त) है। यह स्पष्ट है कि किसी तत्व के विषय में कोई भी तात्विक दृष्टि एकान्तिक नहीं हो सकती, प्रत्येक तत्व में अनेकरूपता स्वाभाविक होनी चाहिये और कोई भी दृष्टि उन सबका एक साथ तात्विक प्रतिपादन नहीं कर सकती। इसी सिद्धांत को जैन दर्शन की परिभाषा में अनेकांत दर्शन कहा गया है। जैनदर्शन का तो यह आधार स्तम्भ है ही, वास्तव में इसे प्रत्येक दार्शनिक विचारधारा के लिये भी आवश्यक मानना चाहिये। बौद्धिक स्तर पर इस सिद्धांत के मान लेने पर मनुष्य के नैतिक और बौद्धिक व्यवहार में भी एक महत्वपूर्ण परिवर्तन आ जाता है। चरित्र ही मानव जीवन का सार है। चरित्र के लिये ...
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नागराजा मंदिर क्या एक जैन मंदिर था ?

नागराजा मंदिर क्या एक जैन मंदिर था ?  नागरकोइल का नागराजा मंदिर, जो आज सर्प देवता की पूजा का प्रमुख केंद्र बन चुका है, कभी एक प्राचीन जैन तीर्थ स्थल था। यह मंदिर दक्षिण भारत के कन्याकुमारी जिले के नागरकोइल शहर में स्थित है और यहाँ की दीवारों पर उकेरी गई जैन मूर्तियाँ इसके प्राचीन जैन इतिहास को दर्शाती हैं। हालांकि, आज इस मंदिर को मुख्य रूप से नागराजा की पूजा का केंद्र माना जाता है, लेकिन यह कई शताब्दियों पहले एक दिगंबर जैन तीर्थ स्थल था। नागराजा की पूजा के साथ इस मंदिर की दीवारों पर जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ, जिनमें से कुछ ध्यानमुद्रा में बैठी हुई हैं, आज भी मौजूद हैं। इन मूर्तियों के अस्तित्व ने इस मंदिर के जैन अतीत को उजागर किया है, जो अब हिंदू मंदिर में बदल गया है। मंदिर की दीवारों पर जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ और अन्य जैन चिह्नों की उपस्थिति यह संकेत देती है कि यह स्थान प्राचीन समय में एक प्रमुख जैन मठ या तीर्थ स्थल था। यह मंदिर शायद 8वीं-9वीं शताब्दी के आसपास स्थापित हुआ था, जब दक्षिण भारत में जैन धर्म का व्यापक प्रभाव था। इस क्षेत्र में जैन संस्कृति के प्रबल हो...

स्वर्णमय अंकित ५२ काव्य का भक्तामर महास्तोत्र

दिल्ली के चाँदनी चौक स्थित धर्मपुरा नया मंदिर , जो की आज से २२३ वर्ष प्राचीन है, जिसे सेठ हरसुख राय ने बनवाया था, वही पर १२००० प्राचीन ग्रंथों के साथ स्थित है ये स्वर्णमय अंकित ५२ काव्य का भक्तामर महा स्तोत्र ! जहाँ ये कहा जाता है कि अभी जो प्रचलित भक्तामर स्तोत्र है जिसमे ४८ काव्य है, जो की मूल भक्तामर स्तोत्र के ५२ काव्य में से ४८, ४९, ५०, ५१ काव्य को अलग करके किया है, क्युकी इन ४ काव्य में अति दिव्य शक्तियां है, देवों का साक्षात आह्रन है, जिसका कई लोग असामान्य उपयोग करने लगे थे, जिस वजह से इन्हें पृथक किया गया है ! . .

श्रुत पंचमी मनाने का कारण

*श्रुतपंचमी मनाने का कारण* 🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴 प्रतिवर्ष ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को जैन समाज में, श्रुतपंचमी पर्व मनाया जाता है। इस पर्व को मनाने के पीछे एक इतिहास है, जो निम्नलिखित है- श्री वर्द्धमान जिनेन्द्र के मुख से श्री इन्द्रभूति (गौतम) गणधर ने श्रुत को धारण किया। उनसे सुधर्माचार्य ने और उनसे जम्बूस्वामी नामक अंतिम केवली ने ग्रहण किया। भगवान महावीर के निर्वाण के बाद इनका काम ६२ वर्ष है।  *पश्चात १०० वर्ष में* *०१)* विष्णु, *०२)* नन्दिमित्र, *०३)* अपराजित, *०४)* गोवर्धन, *०५)* भद्रबाहु, ये पांच आर्चाय पूर्ण द्वादशांग के ज्ञाता श्रुतकेवली हुए।  *तदनंतर १८३ वर्ष मे* ग्यारह अंग और दश पूर्वों के वेत्ता से ग्यारह आचार्य हुए- *०१)* विशाखाचार्य, *०२)* प्रोष्ठिन, *०३)* क्षत्रिय, *०४)* जयसेन, *०५)* नागसेन, *०६)* सिद्धार्थ, *०७)* धृतिसेन, *०८)* विजय, *०९)* बुद्धिल, *१०)* गंगदेव जी और *११)* धर्म सेन। *तत्पश्चात २२० वर्ष में* ग्यारह अंग के पाँच पारगामी मुनि हुये *(कही कही १२३ वर्ष भी बताया जाता हैं)* *०१)* नक्षत्र, *०२)* जयपाल, *०३)* पाण्डुनाम, *०४)* ध्रुवसेन और *०५)* कंसाचार्...

भगवान् महावीर की आत्मकथा

अमर भारती हिंदी दैनिक के सभी संस्करणों मे दिनाँक 16/05/25 से प्रारंभ 

जैन विदूषी श्रीमती डॉ० मुन्नी जैन

श्रीमती डॉ० मुन्नी जैन जन्म- 22 जून 1957, दमोह (म.प्र.)  शिक्षा– प्राकृताचार्य, जैनदर्शनाचार्य, एम. ए. (हिन्दी) पी-एच.डी.(बी.एच.यू.से) ,शिक्षाशास्त्री, पुस्तकालय- विज्ञानशास्त्री माता-पिता- श्रीमती संतोष रानी जैन एवं श्री हुकमचन्द जैन, दमोह (म.प्र.) धर्मपत्नी- प्रो० फूलचन्द जैन प्रेमी,  पूर्व जैनदर्शन विभागाध्यक्ष,सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय,वाराणसी परिवार - 1. ज्येष्ठ पुत्र- प्रो. अनेकान्त कुमार जैन, जैनदर्शन विभाग श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, दिल्ली  2. पुत्री -: डॉ० इन्दु जैन राष्ट्र गौरव, नई दिल्ली,  (राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय जैन प्रतिनिधि) 3. कनिष्ठ पुत्र - डॉ. अरिहन्त कुमार जैन,असिस्टेंट प्रोफेसर, के. जे. सौमय्या विद्याविहार  युनिवर्सिटी,मुम्बई. कार्यक्षेत्र -1) सत्र 2011 से 2022 तक सम्पूर्णानन्द संस्कृत वि. वि. वाराणसी के जैनदर्शन विभाग में अतिथि प्राध्यापिका। 2) देश के अनेक नगरों में एवं विश्वविद्यालयों आदि में आयोजित ब्राह्मी लिपि कार्यशालाओं में प्रशिक्षण दिया। 3) बीस से अधिक अखिल भारतीय संगोष्ठि‌यों में श...

ब्रह्मी लिपि उद्भव और विकास Brahmi Lipi origin and Devolopment

ब्राह्मी लिपि : उद्भव और विकास - श्रीमती डा. मुन्नी पुष्पा जैन, वाराणसी          भाषा के बाद अभिव्यक्ति का सबसे अधिक सशक्त माध्यम ‘लिपि' है। ‘लिपि' किसी भाषा को चिन्हों तथा विभिन्न आकारों में बांधकर दृश्य और पाल्य बना देती है। इसके माध्यम से भाषा का वह रूप हजारों वर्षों तक सुरक्षित रहता है। विश्व में सैकड़ों गाषाए तथा सैकड़ों लिपियों हैं। भाषा का जन्म लिपि से पहले होता है, लिपि का जन्म बाद मे। प्राचीन शिलालेखों से यह स्पष्ट होता है कि प्राचीन भारत में ब्राह्मीलिपि ही प्रमुखतया प्रचलित रही है और यही बाह्मी लिपि अपने देश के समृद्ध प्राचीन ज्ञान-विज्ञान ,संस्कृति,इतिहास आदि को सही रूप में सामने लाने में एक सशक्त माध्यम बनी। सपाट गो मापवं ने/ इस ब्राह्मी लिपि में शताधिक शिलालेख लिखवाकर ज्ञान लिाप और भाषा को सदियों तक जीवित रखने का एक क्रांतिकारी कदम उठाया था।   सत्रहवीं-अठारहवीं शताब्दी में ब्राह्मी लिपि के रहस्य को समझने के लिए पश्चिमी तथा पूर्वी विद्वानों ने जो श्रम किया उसी का प्रतिफल है कि आज हम उन प्राचीन लिपियो को पढ़-समझ पा रहे है...