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ज्ञानवापी में हो सकती हैं जैन मूर्तियां

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महात्मा बुद्ध पूर्व में दिगम्बर जैन मुनि थे

महात्मा बुद्ध पूर्व में दिगम्बर जैन मुनि थे भगवान महावीर स्वामी के समकालीन मगध के कपिलवस्तु नरेश शुद्धोधन का पुत्र गौतमबुद्ध नामक राजकुमार हुआ। जिसने वैदिक पशु यज्ञ के विरुद्ध अहिंसा के प्रचार की भावना से संसार से विरक्त होकर राजपाठ एवं लघु पुत्र तथा पत्नी का त्याग कर पलाश नगर में भगवान पार्श्वनाथ की शिष्य परंपरा के पिहितास्रव नामक दिगम्बर जैन मुनि से दिगम्बर जैन मुनि दीक्षा ली थी तब आपका नाम "बुद्ध कीर्ति" रखा गया था किन्तु बाद में भूख को सहन न करने के कारण आप जैन मुनि दीक्षा से विचलित हो गये-अतः आपने गेरुआ वस्त्र पहिनकर मध्यम मार्ग अपनाया, तब आपका नाम "महात्मा बुद्ध" प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ इस विषय में आचार्य श्री देवसेन ने लिखा है कि- सिरिपासणाहतित्थे सरयूतीरे पलासणयरत्थो । पिहियासवस्स सिस्सो महासुदो बुड्ढकित्तमुणी ।। तिमिपूरणासणेहिं अहिगयपबज्जाओ परिष्भहो । रत्तंबरं धरित्ता पवहियं तेण एयंतं ।। अर्थ :- श्री पार्श्वनाथ भगवान के तीर्थकाल में (भगवान महावीर के धर्म प्रचार होने से पहले) सरयू नदी के किनारे पलाश नगर में विराजमान श्री पिहितास्रव मुनि का शिष्य बुद्धकीर्ति

जैनदर्शन के महाविद्यालय और विद्यालय

*दिगम्बर जैन मुमुक्षु समाज द्वारा संचालित*         *आवासीय विद्यालय एवं महाविद्यालय*               !  ! *एक सामान्य परिचय* !  !                                 (संशोधित : फरवरी 2024)         👦 *शास्त्री बालक महाविद्यालय* 👦         ====================== *1. श्री टोडरमल दिगंबर जैन सिद्धान्त महाविद्यालय जयपुर* प्रवेश -- 11th शास्त्री प्रवेश शिविर (शिक्षण-प्रशिक्षण) - ललितपुर (उत्तर प्रदेश) संपर्क -  डॉ. शांतिकुमारजी पाटिल (प्राचार्य) 9413975133 पं. जिनकुमारजी शास्त्री 89032 01647 पं. गौरवजी शास्त्री 77373 23764 पं. अमनजी शास्त्री 7374833960 *2. आचार्य अकलंकदेव जैन न्याय महाविद्यालय ध्रुवधाम, बाँसवाड़ा (राज.)* प्रवेश -- 11th शास्त्री प्रवेश शिविर - अभी निश्चित नहीं संपर्क- निर्देशक पं. दीपक शास्त्री 9079891238 अधीक्षक पं. नमन शास्त्री 8955316512 *3. आचार्य धरसेन दिगंबर जैन सिद्धांत महाविद्यालय कोटा*  प्रवेश-11th (शास्त्री) प्रवेश शिविर - अभी निश्चित नहीं संपर्क - पं. संजयजी शास्त्री 98970 69969 पं नितेशजी शास्त्री 9636944499 पं. अभिनयजी शास्त्री 77379 79912  पं. आदित्य जी शास्त्री 950923

जगन्नाथ मंदिर का इतिहास

"जगन्नाथ मंदिर की अनहद गूंज "  जगन्नाथ मंदिर का इतिहास बहुत प्राचीन है और यह मूल रूप से जैन मंदिर है । वर्तमान में हिंदू धर्म के चार धाम से एक धाम माना जाता है । और 51शक्ति पीठों में से एक विमला देवी शक्ति पीठ के नाम से भी विख्यात है । लेकिन एक जैन मंदिर को कब और कैसे परिवर्तित कर दिया गया ?   जब हमारे राष्ट्र की विरासतों को कोई लूट ले या क्षत विक्षत कर दे तो मन विक्षोभ से भर जाता है । अभी कुछ महीने पहले माननीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी के सफल प्रयासों से लूटी गई भारतीय विरासतों को पुनः विदेशों से वापिस ला गया है । जिनमें एक माता अन्नपूर्णा जी की प्रतिमा का उत्सव पूरे भारत वर्ष में मनाया गया । नगरों का भ्रमण कराते हुए उन्हें पुनः विश्वनाथ जी के मंदिर में विराजमान किया गया । हम  सभी भारतवासियों के मन में मानो एक नया विश्वास जाग  गया हो । सभी के मन में माता अन्नपूर्णा जी के प्रति जो भाव उमड़ा वह बहुत ही उत्साहित था । क्या आप जानते हैं उड़ीसा प्रदेश (कलिंग देश) में भव्य जगन्नाथ मंदिर में भी इसी तरह का इतिहास दोहराया गया था ?  - आज से ठीक 8-9BCE (3000 वर्ष पूर्व ) जैन श्रमण स

समयसारः ग्रंथस्य वैशिष्ट्यम्

समयसारः ग्रंथस्य वैशिष्ट्यम् कुन्दकुन्दस्य प्रौढा श्रेष्ठा च रचना वर्तते समयसारः। `“वोच्छामि समयपहुडमिणमो सुयकेवलीभणियं” इति प्रतिज्ञावाक्येन सूच्यते यत् कुन्दकुन्दाचार्यं ग्रन्थस्यास्य नाम समयपाहुडम् इत्यभीष्टमासीत् परन्तु कालान्तरे ’प्रवचनसारः’ ’नियमसारः’ एतादृशां सारान्तनाम्‍नामनुकरणवशात् ’समयसारः’ इत्येव प्रचलितोऽभवत्।  “समयते एकत्वेना युगपज्जानाति गच्छति च” इति निरुक्तेरनुसारं समयसारशब्दस्यार्थः जीवः इति ज्ञायते,’प्रकर्षेण आसमन्तात् भृतमिति प्राभृतम्’ यस्मिन् पूर्वापरविरोधरहितसांगोपांगवर्णनमस्ति तत्प्राभृतम् इति निरुक्‍तेनुसारं प्राभृतशब्दस्यार्थः शास्त्रमिति भवति। ’समयस्य प्राभृतम्’- जीवस्य आत्मनः वा शास्त्रमित्यर्थः भवति।  समयप्राभृत दशाधिकारेषु विभक्तोऽस्ति- १)पूर्वरङ्गम् २) जीवाजीवाधिकारः ३) कर्तृकर्माधिकारः  ४) पुण्यपापाधिकारः   ५) आस्रवाधिकारः   ६) संवराधिकारः  ७) निर्जराधिकारः   ८) बंधाधिकारः   ९) मोक्षाधिकारः  १०) सर्वविशुद्धज्ञानाधिकारश्च। नयानां सामञ्जस्यमुपस्थापयितुममृतचन्द्राचार्येण स्याद्वादाधिकार उपायोपेयभावाधिकारश्च एतौ द्वौ परिशिष्टौ योजितौ। अमृतचन्द्राच

युग-चिंतक सन्त शिरोमणि:आचार्यश्री विद्यासागर जी मुनिराज

युग-चिंतक सन्त शिरोमणि:आचार्यश्री विद्यासागर जी मुनिराज प्रो. फूलचन्द जैन प्रेमी, वाराणसी      परमपूज्य संत शिरोमणि आचार्यश्री विद्यासागरजी मुनिराज सम्पूर्ण देश में सर्वोच्च संयम साधना और अध्यात्म जगत के मसीहा माने जाते थे। उनका बाह्य व्यक्तित्व भी उतना ही मनोरम था,जितना अन्तरंग । संयम साधना और तपस्वी जीवन में वे व्रज्र से भी कठोर हैं । किन्तु उनके मुक्त हास्य और सौम्य मुख मुद्रा से उनके सहज जीवन में पुष्पों की कोमलता झलकती है । जहाँ एक ओर उनकी संयम साधना, मुनि जीवन की चर्या, तत्त्वदर्शन एवं साहित्य सपर्या में आचार्य कुन्दकुन्द प्रतिविम्बित होते हैं; वहीँ दूसरी ओर उनकी वाणी में आचार्य समन्तभद्र स्वामी जैसी निर्भीकता, निःशंकता, निश्चलता, निःशल्यता परिलक्षित होती है । आप माता-पिता की द्वितीय संतान हो कर भी अद्वितीय संतान हैं । मूलाचार में वर्णित श्रमणाचार का पूर्णतः पालन करते हुए आप  राग, द्वेष, मोह आदि से दूर इन्द्रियजयी, नदी की तरह प्रवहमान, पक्षियों की तरह स्वच्छन्द, अनियत विहारी, निर्मल, स्वाधीन, चट्टान की तरह अविचल रहते हैं। कविता की तरह रम्य, उत्प्रेरक, उदात्त,

तीर्थंकर वर्द्धमान : एक झलक

तीर्थंकर वर्द्धमान : एक झलक 1.अन्य नाम - वर्द्धमान (वीर, अतिवीर, सन्मति, महावीर) 2.तीर्थंकर क्रम -चतुर्विंशतम 3.जन्मस्थान- क्षत्रिय कुण्डग्राम (वैशाली) 4.पूर्व भव - अच्युतेन्द्र 5.पितृनाम -सिद्धार्थ 6. मातृनाम -  त्रिशलादेवी (प्रियकारिणी) 7. वंशनाम् - नाथववंश                 (ज्ञातृवंश, 'नाठ'-इति पालिः) 8. गर्भावतरण - आषाढ़ शुक्ला-षष्ठी, शुक्रवार,                    17 जून 599 ई.पू. 9.गर्भवास -नौ-मास, सात-दिन, बारह घंटे 10.जन्मतिथि -चैत्रशुक्ल त्रयोदशी, सोमवार, 27 मार्च, 598 ई.पू. 11. वर्ण (कान्ति)- स्वर्णाभ (हेमवर्ण) 12.चिह्न - सिंह 13.गृहस्थितरूप -अविवाहित          (प्रसंग चला, परन्तु विवाह नहीं किया) 14. कुमारकाल -28 वर्ष, 5 माह, 15 दिन 15.दीक्षातिथि -मंगसिरकृष्ण दसमी, सोमवार,              29 दिसम्बर 569 ई.पू. 16.तपःकाल - 12 वर्ष, 5 मास, 15 दिन 17. कैवल्य-प्राप्ति - वैशाखशुक्ल दसमी,              रविवार 26 अप्रैल, 557 ई.पू. 18. देशनापूर्व मौन - 66 दिन 19. देशनातिथि ( प्रथम )- श्रावणकृष्णप्रतिपदा,            शनिवार, 1 जुलाई 557 ई.पू. 20. निर्वाणतिथि - कार्तिक कृष्ण 30, मंगलवार