*कृमि पिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेवैकवृद्धानि।।२३।।* अर्थ — कृमि, पिपीलिका, भ्रमर, मनुष्यादि के क्रमश: एक—एक इन्द्रियाँ बढ़ती गई हैं। कृमि, लट, केचुआ आदि जीवों के स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियाँ होती हैं। पिपीलिका—चींटी, बिच्छू आदि जीवों के स्पर्श, रसना और घ्राण ये तीन इन्द्रियाँ होती हैं। भ्रमर—भौंरा, मच्छर आदि जीवों के स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु ये चार इन्द्रियाँ होती हैं तथा मनुष्यादि—मनुष्य, पशु, देव, नारकी इनकी पाँचों ही इन्द्रियाँ होती हैं। समनस्क की परिभाषा बताई है— *संज्ञिन: समनस्का:।।२४।।* अर्थ — मन सहित जीव संज्ञी होते हैं। सम्यक् प्रकारेण ज्ञायते इति संज्ञा’’ और उस संज्ञा से समन्वित, जिन्हें ज्ञान—हेय और उपादेय का विवेक होता है वे प्राणी संज्ञी कहलाते हैं। यह विवेक एकेन्द्रिय से चार इन्द्रिय तक के जीवों को स्वभावत: नहीं होता अत: वे सभी असंज्ञी—मनरहित जीव कहलाते हैं। पंचेन्द्रिय जीवों में ही संज्ञी होने की क्षमता रहती है। उनमें भी मनुष्य, देव, नारकी ये तीन गति वाले जीव तो नियम से संज्ञी ही होते हैं तथा तिर्यंचों में कुछ प्राणी असंज्ञी भी होते हैं। इतना बताने के बाद आचार्यश्...