Skip to main content

महावीर की 11 शिक्षाएं

*भगवान महावीर की 11 शिक्षायें*
*पहली शिक्षा: सभी आत्मायें समान हैं, कोई छोटा-बड़ा नहीं है।* इस शिक्षा को न मानने का परिणाम आज सारा विश्व भुगत रहा है, कोरोना वायरस के रूप में। जब मानव जाति पशुओं को जीव मानने को ही तैयार नहीं है तो फिर उनको अपने समान मानना तो बहुत दूर की बात है। ज़रा विचार करो आपके छोटे-से बच्चे को या आपके पिताजी को कोई जिंदा कड़ाई में तल दे और उसका भोजन करे तो आपको कैसा लगेगा? अरे! यह तो प्रकृति का नियम है कि प्रत्येक जीव को अपने द्वारा किये गए व्यवहार का फल अवश्य ही मिलता है, *जो व्यवहार आप अपने साथ नहीं चाहते वह व्यवहार आप किसी भी जीव के प्रति ना करें* और अगर करेंगे तो उसका फल ब्याज सहित कर्म आपको लौटायेंगे।

*दूसरी शिक्षा : भगवान कोई अलग से नहीं बनता, जो जीव पुरुषार्थ करे, वही भगवान बन सकता है।* यही जैन धर्म की विशेषता है कि वह भक्त नहीं, भगवान बनने का मार्ग दिखाता है। हमारे यहाँ भगवान जन्मते नहीं, अपने पुरुषार्थ से बनते हैं।

*तीसरी शिक्षा:भगवान जगत के कर्ता-धर्ता नहीं हैं, मात्र जानने वाले हैं।* ज़रा विचारें, जो जगत में करने-धरने का काम हमारे भगवान नहीं कर सकते, और हम कर रहे हैं(मान रहे हैं) तो हम तो भगवान से भी बड़े हो गए! *जगत में कुछ-न-कुछ करोना की बुद्धि ही वास्तविक करोना (करो-ना) वायरस है*

*चौथी शिक्षा : हमारी आत्मा का स्वभाव भी  जानना-देखना है, कषाय आदि करना नहीं।*
परन्तु जब हम अपने स्वभाव के विपरीत, पर द्रव्यों को अपने अनुकूल परिणमन कराने का भाव करते हैं और जब वे हमारे अनुकूल परिणमित हो जायें तब तो राग करते हैं, नहीं हो तो द्वेष।

*पांचवीं शिक्षा : कभी किसी का दिल दुःखाने का भाव मत करो।* निर्दोष जानवरों/पंछियों को चिड़िया-घरों/अपने-घरों में पिंजरे में कैद रखकर उनके दिल दुःखाने के फल में ही इंसान आज खुद जानवरों की भांति घरों में कैद हो गया है। 
*अरे भाई! ज़रा-सी कैद से घुटन होने लगी,*
*तुम तो पंछी पालने के शौकीन थे!"* 

*छटवीं शिक्षा : झूठ बोलना और झूठ बोलने का भाव करना पाप है।*
सबसे बड़ा झूठ तो यह है कि हम मुँह से तो स्वयं को आत्मा कहते हैं, पर 'मैं आत्मा ही हूँ, शरीर नहीं', ऐसा मानते नहीं हैं।

*सातवीं शिक्षा : चोरी करना और चोरी करने का भाव करना बुरा काम है।* वास्तविक चोरी परद्रव्य को अपना मानकर उसके द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव में अतिक्रमण करना (मानना/भ्रम) है।

*आठवीं शिक्षा : संयम से रहो, क्रोध से दूर रहो, अभिमानी न बनो।*
परद्रव्य की तरफ न देखना ही संयम(ब्रह्म भाव)है।
अपनी आत्मा को नहीं देखना-यही अपने प्रति अनन्त क्रोध है क्योंकि जिसके प्रति हमें क्रोध आता है उसको देखना हम पसंद नहीं करते।
अपने अनन्त गुणों को भूलकर, मात्र संयोगों और संयोगी भावों से अपने को बड़ा-छोटा मानना ही अभिमान है।

*नौंवीं शिक्षा: छल-कपट करना और भावों में कुटिलता रखना, बहुत बुरी बात है।*
हम मुँह से तो स्वयं को भगवान महावीर के अनुयायी बताते हैं पर उनके एक भी सिद्धान्त को नहीं मानते, इतना बड़ा छल, हम किसी और के साथ नहीं स्वयं के साथ कर रहे हैं। *हम भगवान महावीर को तो मानते हैं, लेकिन  उनकी नहीं मानतें।*

*दसवीं शिक्षा : लोभी व्यक्ति सदा दुःखी रहता है।* जिसे अपना परिपूर्ण स्वभाव दिखे और अपने में कुछ भी कमी ना लगे, वह अपने पुण्योदय से अधिक, संयोगों का लोभ क्यों करें?

*ग्यारवीं शिक्षा :हम अपनी ही गलती से दुःखी हैं और अपनी गलती सुधारकर सुखी हो सकते हैं।*
हमारी गलती, परद्रव्यों से सुख की चाह और इस गलती का सुधार मेरा सुख मुझमें ही है बाह्य वस्तुओं से सुखी होने की कल्पना भी व्यर्थ है, ऐसा स्वीकार करना है।
"तुम स्वभाव से ही आनन्दमय, पर से सुख तो लेष न हो,
झूठी आशा, तृष्णा छोड़ो, जिनवचनों में चित्त धरो।।"

°भगवान महावीर की एक और शिक्षा लॉक-डाउन से सीखने को मिली-वह है 'अपरिग्रहवाद'; "जीवन यापन के खर्च तो बेहद कम हैं, मात्र लाइफस्टाइल और दिखावा ही खर्चीला होता है।" ज़रा विचार करो महा पाप करके हम जो धन कमाते हैं वास्तव में जीवन यापन के लिए तो बहुत थोड़ा ही धन चाहिए  और तो सब शौक वाली चीजें हैं ये गाड़ी, शोरूम आदि की क्या औकात है, इस लॉक डाउन ने हमको अच्छे से समझा दी है। ज़रा विचारों भोगने की शक्ति कितनी है, और अशक्ति कितनी।

° कभी आपको भी विचार तो आता ही होगा कि हम जन्म-मरण के अभाव की बातें करते-करते महावीर भगवान का जन्मकल्याणक प्रतिवर्ष इतने धूम-धाम से क्यों मनाने लग जाते हैं-इसका सीधा सा जवाब है कि हमारे शासन नायक ने अपने इस जन्म में अपना कल्याण कर लिया है और जन्म-मरण का अभाव कर लिया है। इसलिए हम जन्मदिन नहीं जन्मकल्याणक मानते हैं।

अब अधिक क्या कहें आप मनुष्य हैं, मननशील हैं, विचारें.....

अंकित दीक्षा जैन, आरोन
लेख क्रं.-38
06.04.2020

Comments

Popular posts from this blog

जैन ग्रंथों का अनुयोग विभाग

जैन धर्म में शास्त्रो की कथन पद्धति को अनुयोग कहते हैं।  जैनागम चार भागों में विभक्त है, जिन्हें चार अनुयोग कहते हैं - प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग।  इन चारों में क्रम से कथाएँ व पुराण, कर्म सिद्धान्त व लोक विभाग, जीव का आचार-विचार और चेतनाचेतन द्रव्यों का स्वरूप व तत्त्वों का निर्देश है।  इसके अतिरिक्त वस्तु का कथन करने में जिन अधिकारों की आवश्यकता होती है उन्हें अनुयोगद्वार कहते हैं। प्रथमानुयोग : इसमें संयोगाधीन कथन की मुख्यता होती है। इसमें ६३ शलाका पुरूषों का चरित्र, उनकी जीवनी तथा महापुरुषों की कथाएं होती हैं इसको पढ़ने से समता आती है |  इस अनुयोग के अंतर्गत पद्म पुराण,आदिपुराण आदि कथा ग्रंथ आते हैं ।पद्मपुराण में वीतरागी भगवान राम की कथा के माध्यम से धर्म की प्रेरणा दी गयी है । आदि पुराण में तीर्थंकर आदिनाथ के चरित्र के माध्यम से धर्म सिखलाया गया है । करणानुयोग: इसमें गणितीय तथा सूक्ष्म कथन की मुख्यता होती है। इसकी विषय वस्तु ३ लोक तथा कर्म व्यवस्था है। इसको पढ़ने से संवेग और वैराग्य  प्रकट होता है। आचार्य यति वृषभ द्वारा रचित तिलोयपन...

णमोकार महामंत्र के 9 रोचक तथ्य

9 अप्रैल 2025 विश्व नवकार सामूहिक मंत्रोच्चार पर विशेष – *णमोकार महामंत्र के 9 रोचक तथ्य* डॉ.रूचि अनेकांत जैन प्राकृत विद्या भवन ,नई दिल्ली १.   यह अनादि और अनिधन शाश्वत महामन्त्र है  ।यह सनातन है तथा श्रुति परंपरा में यह हमेशा से रहा है । २.    यह महामंत्र प्राकृत भाषा में रचित है। इसमें कुल पांच पद,पैतीस अक्षर,अन्ठावन मात्राएँ,तीस व्यंजन और चौतीस स्वर हैं । ३.   लिखित रूप में इसका सर्वप्रथम उल्लेख सम्राट खारवेल के भुवनेश्वर (उड़ीसा)स्थित सबसे बड़े शिलालेख में मिलता है ।   ४.   लिखित आगम रूप से सर्वप्रथम इसका उल्लेख  षटखंडागम,भगवती,कल्पसूत्र एवं प्रतिक्रमण पाठ में मिलता है ५.   यह निष्काम मन्त्र है  ।  इसमें किसी चीज की कामना या याचना नहीं है  । अन्य सभी मन्त्रों का यह जनक मन्त्र है  । इसका जाप  9 बार ,108 बार या बिना गिने अनगिनत बार किया जा सकता है । ६.   इस मन्त्र में व्यक्ति पूजा नहीं है  । इसमें गुणों और उसके आधार पर उस पद पर आसीन शुद्धात्माओं को नमन किया गया है...

सम्यक ज्ञान का स्वरूप

*सम्यक ज्ञान का स्वरूप*  मोक्ष मार्ग में सम्यक ज्ञान का बहुत महत्व है । अज्ञान एक बहुत बड़ा दोष है तथा कर्म बंधन का कारण है । अतः अज्ञान को दूर करके सम्यक ज्ञान प्राप्त करने का पूर्ण प्रयास करना चाहिए । परिभाषा -  जो पदार्थ जैसा है, उसे वैसे को वैसा ही जानना, न कम जानना,न अधिक जानना और न विपरीत जानना - जो ऍसा बोध कराता है,वह सम्यक ज्ञान है । ज्ञान जीव का एक विशेष गुण है जो स्‍व व पर दोनों को जानने में समर्थ है। वह पा̐च प्रकार का है–मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय व केवलज्ञान। अनादि काल से मोहमिश्रित होने के कारण यह स्‍व व पर में भेद नहीं देख पाता। शरीर आदि पर पदार्थों को ही निजस्‍वरूप मानता है, इसी से मिथ्‍याज्ञान या अज्ञान नाम पाता है। जब सम्‍यक्‍त्व के प्रभाव से परपदार्थों से भिन्न निज स्‍वरूप को जानने लगता है तब भेदज्ञान नाम पाता है। वही सम्‍यग्‍ज्ञान है। ज्ञान वास्‍तव में सम्‍यक् मिथ्‍या नहीं होता, परन्‍तु सम्‍यक्‍त्‍व या मिथ्‍यात्‍व के सहकारीपने से सम्‍यक् मिथ्‍या नाम पाता है। सम्‍यग्‍ज्ञान ही श्रेयोमार्ग की सिद्धि करने में समर्थ होने के कारण जीव को इष्ट है। जीव का अपना प्रतिभ...