ब्राह्मी लिपि : उद्भव और विकास
- श्रीमती डा. मुन्नी पुष्पा जैन, वाराणसी
भाषा के बाद अभिव्यक्ति का सबसे अधिक सशक्त माध्यम ‘लिपि' है। ‘लिपि' किसी भाषा को चिन्हों तथा विभिन्न आकारों में बांधकर दृश्य और पाल्य बना देती है। इसके माध्यम से भाषा का वह रूप हजारों वर्षों तक सुरक्षित रहता है। विश्व में सैकड़ों गाषाए तथा सैकड़ों लिपियों हैं। भाषा का जन्म लिपि से पहले होता है, लिपि का जन्म बाद मे। प्राचीन शिलालेखों से यह स्पष्ट होता है कि प्राचीन भारत में ब्राह्मीलिपि ही प्रमुखतया प्रचलित रही है और यही बाह्मी लिपि अपने देश के समृद्ध प्राचीन ज्ञान-विज्ञान ,संस्कृति,इतिहास आदि को सही रूप में सामने लाने में एक सशक्त माध्यम बनी। सपाट गो मापवं ने/ इस ब्राह्मी लिपि में शताधिक शिलालेख लिखवाकर ज्ञान लिाप और भाषा को सदियों तक जीवित रखने का एक क्रांतिकारी कदम उठाया था।
सत्रहवीं-अठारहवीं शताब्दी में ब्राह्मी लिपि के रहस्य को समझने के लिए पश्चिमी तथा पूर्वी विद्वानों ने जो श्रम किया उसी का प्रतिफल है कि आज हम उन प्राचीन लिपियो को पढ़-समझ पा रहे हैं। वर्तमान में प्रायः सभी भारतीय मंगलकार्यों के लिए 'स्वस्तिक' तथा ॐ' प्रतीक चिन्हों का प्रयोग बखूबी करते हैं। इनका विकास ब्राह्मी लिपि से ही हुआ है। हड़प्पा काल में भी स्वस्तिक चिन्हों का प्रयोग बहुतायत मिलता है।
आदि तीर्थकर (अपनी गृहस्थावस्था में) राजा ऋषभदेव ने अपनी पुत्री 'ब्राह्मी' को लिपि विद्या सिखलायी थी। वही लाखों वर्षों तक समाज में प्रयुक्त होते होते आज विभिन्न रूपों में विकसित होकर हम सभी के समक्ष है। स्वभाव से ही परम्परावादी भारतीय जनता को ही यह श्रेय जाता है कि उसने इस लिपि का ब्राह्मी' नाम अपनी स्मृतियों तथा व्यवहार में सुरक्षित रखा ।यही ब्राह्मी लिपि भारत के गौरवशाली इतिहास का ज्ञान कराने के लिए आज महान् कुजी का कार्य कर रही है।
२-ब्राह्मी लिपि का नामकरण–
ब्राह्मी लिपि का नाम 'ब्रामी' ही क्यों पड़ा? यह प्रश्न विचारणीय है। जैन साक्ष्यों से ऐसा ज्ञात होता है कि प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने अपनी दो पुत्रियों जिनका नाम ब्राह्मी तथा सुन्दरी था। उन्होंने सर्वप्रथम इन्हें लिपि तथा कविद्या का ज्ञान दिया था। जिसमें ब्राहमी को लिपि सिखलायी थी तथा सुन्दरी को अंकविया आदिनाथ चरित (३/१४) में कहा है..
अक्षराणिविभु ब्राह्मया अकारावीन्यवोचत् ।
वामहस्तेन सुन्दा गणित चाप्यवर्शयत ।।(आदिनाथ चरित ३/१४)
हिन्दी विश्वकोश के संपादक वसु नगेन्द्रनाथ ने (प्रथम भाग पृष्ट ६४ पर) स्पष्ट लिखा है कि 'ऋषभदेव ने ही संभवतः लिपिविद्या के लिए कौशल का उद्भावन किया। उन्होंने ही शिक्षा के लिए उपयोगी ब्राहमी लिपि का प्रयोग किया था।'
ऋषभदेव की यही पुत्री ग्रामी' ने संसार से वैराग्य धारण करक विश्व की प्रथम आर्यिका के रूप में दीक्षा ग्रहण की तथा आर्यिकायों में श्रेष्ट 'ब्राह्मी माता' के नाम से विख्यात हुई। इन्होंने इस लिपि विद्या को इतना आत्मसात किया कि वे लिपि तथा ज्ञान की पर्याय बन गयीं आचार्य जिनसेन के अनुसार
भरतस्यानुजा ब्राह्मी दीक्षित्वा गुर्वनुग्रहात् ।
गणिनी पद्मार्याणां सा भेजे पूजितामरैः ।। (महापुराण २४/१७५)
हर्षकीर्ति ने भी कहा है–
वाग्देवी शारदा ब्राह्मी भारती गी: सरस्वती।
हंसयाना ब्रह्मपुत्री सा सदा वरदास्तु वः ।। (शारदीयनाममाला १/२)
पंडित गौरीशंकर- हीराचन्द ओझा ने अपनी पुस्तक "प्राचीन लिपिमाला (पृष्ठ 9) में कहा है कि मनुष्य की बुद्धि में सबसे बड़े महत्व के दो कार्य हुए हैं. भारतीय ब्राह्मी लिपि और वर्तमान शैली के अंकों की कल्पना है।'
प्राचीन जैन आगम ‘प्रज्ञापना सूत्र' में अट्ठारह लिपियों के नामों में 'बम्भी' (ब्रामी) लिपि प्रथम रूप से उल्लिखित है। बंभी, जवणालि, दोसापुरिया, खरोष्ट्टी, पुक्खरसारिया, भोगवइया, पहाराइया. उयअंतरिक्खिया, अक्खरपिट्टिया, तेवणइया, गिणिहइया, अंकलिवि, गणितलिवि, गंधवलिवि, आदंसलिवि, माहेसरी, दामिली, और पोलिंदो।
अर्धमागधी प्राकृत आगम के व्याख्याप्रज्ञप्ति में 'नमो बंभीए लिविए' कहकर ब्राह्मी को नमस्कार किया गया है। इस संदर्भ में ब्राह्मीलिपि की पूजनीयता भी स्पष्ट हो जाती है। बौद्ध ग्रन्थ ललित विस्तर (३-४ शती) के दसवें अध्याय में ६४ लिपियों के नाम आते हैं। जिसमें सर्वप्रथम ब्राहमी और खरोष्ठी लिपि का नाम उधृत हैं क्या- ब्राह्मी, खरोष्ठी, पुष्करसारी, अंग, बंग, मगध, मगत्य, मनुष्य, अंगुलीय, शकारि, ब्रह्मवल्ली, द्राविड़, कनारि, दक्षिण, उग्र, संख्या, अनुलो, ऊर्ध्वध्वनु, दरद, खास्य, चीनी, हूण, मध्याक्षर विस्तार, विमिश्रित, थरणी, पुष्प, देव, नाग, यक्ष, गन्धर्व किन्ना नहोग, असुर, गड, कृपया पन, वायुमर, भीमदेव, अन्तरिक्षदेव, उत्तरबुखदीप, अपरा लादि, पूर्वाविदह, उत्क्षेप, निक्षेप, विश्लेष, प्रश्रेष, सागर ब्रज, लेख प्रतिलेख, अनुद्रुत, शास्त्रवर्त, गणावर्त, उत्क्षेपावर्त, विक्षेपावर्त, पाटलिखित, द्विरुत्तरपद संधिलिखित, दशोत्तरपदसथिलिखित, अध्याहारिणी, सर्वमतसंग्रहणी, विद्यानुलोम, ऋषितपस्तप्त, प्रेक्षजा, सवीषधनिष्यन्दलिपि, सर्वहारसंग्रहणी, सर्वभृतरुदग्रहणी।
डॉ०राजबली पाण्डेय के अनुसार-
इस सूची में प्रारम्भिक दो लिपियों को साक्षात प्रमाण उपलब्ध हैं। उपर्युक्त लिपियों के नाम पढ़ने से ज्ञात होता है बहुत से नाम लिपिद्योतक न होकर लेखनप्रकार के हैं। कितने नाम की पुनरावृत्ति भी है। इसमें भारतीय विदेशी की उन लिपियों के नाम सम्मिलित हैं, जिनकी उन्होंने कलाना की थी।
अमिथान राजेन्द्रकोश (भाग-५ पृष्ट १८८४) में लिखा है कि ब्राहमालिपि अट्टारह कारो से युक्त हैं, तथा इन समस्त प्रकारों का ज्ञान ब्राह्मी को प्रदान किए जाने के कारण इनका नाम 'ब्राहमी' हो गया यथा
“लिपिः पुस्तकादी अक्षरविन्यासः सा चाष्टादशप्रकाराणि श्रीमन्नामेयजिनेन स्वसुताया ग्रहमीलामिकाया दर्शिता, ततो ब्राही नाम इत्यमिधीयते।'
इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि ऋषमदेव की पुत्री ब्राह्मी के नाम पर इस लिपि का नाम ब्राह्मी पड़ा तथा जो १८ प्रकार की थी। अतः सामान्यतः लिपि की दूसरी संज्ञा 'ब्राह्मी' की पर्यायवाची बन चुकी थी।
चीनी विश्वकोष फा-बन-सु-लिब (६६८ १०, 'ब्राही' के ब्रह्मा आविष्कारक मानता है। इसी तरह अन्य धार्मिक मत ईश्वरीयभावना अनुसार इसका समर्थन करते हैं। जैन परम्परा में तथा अन्य पुराणो में ऋषमदेव को मानव के जीवनयापन के लिए असि-मसि-आदि षट्कर्मों का सृजन करने के कारण उन्हें 'विधाता' (ब्रह्मा) कहा जाता है, इसीलिए किसी कवि ने कहा भी है कि
कर्मभूमि के आदि प्रवर्तक, मुक्तिपथ के सर्जनहार ।
धर्मतीर्थ के आद्य विधाता, मुक्तिस्थल कैलाशपहार ।।
अंक-अक्षर के आदि प्रणेता, असि-मसि के जनक ललाम ।
विश्ववंध श्री ऋषभदेव के चरणयुगल में सतत् प्रणाम ।।
३-ब्राह्मीलिपि की खोज
इतिहास के महत्वपूर्ण दस्तावेज, प्राचीन गुफाओं, स्मारकों, दीवारों तथा पर्वतों पर खुदे शिलालेखो के रूप में विद्यमान हैं। विद्वानों ने देखा कि इन पत्थरों पर विभिन्न आकृतियों में कुछ खुदा है और ये सब भारतवर्ष की हजारों वर्ष प्राचीन मनीषा का कोई महत्वपूर्ण संदेश हमें देना चाहती है किन्तु समस्या भी है इन्हे न पढ़ पाने और न समझ पाने की। शिलालेख पर हजारों वर्षों पूर्व खुदी इस लिपि का किसी को न ज्ञान था और न भाषा का ही पता था। पश्चिमी तथा पूर्वी विद्वानों ने इन लिपियों को समझने के लिए खोज प्रारंभ कर दी। इस लम्बी खोज की भी अपनी एक कठिन दास्तान है। इस दास्तान को स्वर्गीय डॉ०सत्येन्द्र ने अपनी पुस्तक पाण्डुलिपि विज्ञान में विस्तारपूर्वक लिखा है
ब्राझीलिपि दर्शन शोधकर्ताओं को १७६५ ई० में ही हो गये थे। इसी समय चार्ल्स मैलेट ने एलोरा की गुफाओं की कितनी ब्राह्मी लेखों की नकलें सर विलियम जेम्स के पास भेजी। विलियम जेम्स ने यह नकल काशी में रह रहे मेजर विल फोर्ड के पास इन लिपियों को पढ़वाने के लिए भेज दिया। काशी में लिपि पढ़ने वाला कोई पण्डित नहीं मिला। एक चतुर ब्राह्मण ने दक्षिणा के लोभ में न लिपियों को गलत पट दिया। मेना विलफोर्ड ने उस कल्पित रीति से पढ़े पाट के आधार पर ही विश्वासपूर्वक उसका अंग्रेजी में अनुवाद कर दिया। मेजर विलफोर्ड की इस शोध को लेकर वर्षों तक किसी को कोई संदेह नहीं हुआ। १८3३ में मिस्टर जेम्स प्रिंसेप ने मेजर विलफोर्ड की शोथ को भ्रमपूर्ण पाया। जिज्ञासु लगा की मिस्टर जेम्स प्रिंसेप ने १८३४ ४५ ई० में इलाहाबाद, रधिया और मथिया के स्तम्भों पर उत्कीर्ण लेखों की छापें मंगवाकर उनको दिल्ली के लेख के साथ रखकर अक्षरों के साम्यता पान कर मिलान किया। अनेक प्रकार के स्वरचिन्हों की पहचान के बाद मिस्टर जेम्स प्रिरोज उत्साहित हुए और आगे प्रयास करते रहे।
१८३७ ई० में मिस्टर प्रिंसेप ने अपनी मेहनत तथा प्रतिभा से सर्वप्रथम 'द' 'न' अक्षर पढ़कर 'दान' शब्द शोध करके निकाल लिया, जिससे उनकी उस शिलालेख के प्रतिपाद्य विषय सम्बन्धी समस्याओं का समाधान हुआ। इसके बाद उन्होंने रानी गिरनार, रधिया, धौरभी आदि स्थानों से प्राप्त शिलालेखों के आधार पर लिपि आदि की एकरुपता को देखकर उन्हें बहुत कुछ हद तक पढ़ डाला।
उन्हीं दिनों पादरी जेम्स इस्टीवेंसन ने भी इस खोज में लगकर लेखों को पढ़ने की पूरी कोशिश की, किन्तु ब्रामीलिपि के इन शिलालेखों की भाषा को संस्कृत समझ लेने के कारण वे सफल नहीं हो सके, क्योंकि इन शिलालेखों की मूल भाषा प्राकृत थी।
इस लिपि की खोज में जिन भारतीय विद्वानों ने श्रम किया , किया उनमें डॉ० भाउदाजी, पं० भगवानलाल इन्द्रजी तथा डॉ० राजेन्द्रलाल मित्र का नाम प्रमुख है। इन्होनें अनेक शिलालेखों तथा ताम्रपत्रों को पढ़ा। इन विद्वानों के नाम का उल्लेख मुनि जिनविजय जी ने “पुरातत्व संशोधन का पूर्व इतिहास'' (वर्ष १, अंक २-३ के पृष्ट २७-३४) में किया है।
यह ब्राह्मीलिपि की खोज की शुरूआत थी। कालान्तर में अनेक विद्वानों ने अथक श्रम करके इसकी अन्य अनसुलझी गुत्थियां को भी सुलझाया और ब्राह्मी लिपि के अध्ययन की एक परम्परा चल पड़ी।
४-ब्राह्मीलिपि की प्रमुख विशेषतायें
ब्राह्मीलिपि की अपनी अनेक मौलिक विशेषताएं हैं, जो उसे अन्य लिपियों से अलग करती है। हम उन विशेषताओं को यहां बिन्दुवार प्रस्तुत कर रहे हैं
• ब्राह्मी भारत की प्राचीनतम लिपि है, इसे भारतीय लिपियों की जननी कहा जाता । अतः ‘ब्राह्मीमाता' के रूप में प्रतिष्टित है।
. अधिकांश प्राचीन अभिलेखों की लिपि ब्राह्मी और भाषा प्राकृत है।
संस्कृत भाषा की अपेक्षा ब्रामी मे कम अक्षरों की आवश्यकता पड़ती है तथा इसमे संयुक्ताक्षरों का अभाव है। अशोक के प्रायः अभिलेख ब्राह्मी में हैं और उनकी भाषा प्राकृत तथा कहीं-कहीं संस्कृत मिश्रित प्राकृत है। इसीलिए विद्वानों ने इसका नाम शिलालेखी प्राकृत माना। अशोक कालीन ब्राह्मी लिपि में ३६ अक्षरों का प्रयोग है, उनतालीस स्वर इसमें 6 स्वर तथा ३३ व्यंजन हैं।
सभी अक्षर ज्यामितिक चिन्ह द्वारा बनाये गये हैं। इनको बनाने में आड़ी-पड़ी, खड़ी, सरल रेखाओं, वृत्तों, अर्धवृत्तों, वर्ग, आयताकार एवं अन्य चिह्नों की सहायता ली गयी है। इससे लगता है यह बहुत लम्बे समय से प्रयोग में है।
• ब्राह्मी लिपि से अक्षरों का विकास होते-होते नागरी, गुजराती, बंगला, आसामी, उड़िया, मैथिली, तेलुगु, तमिल, मलयालम आदि लिपियों की उत्पत्ति हुई। यही नहीं तिब्बती, नेवाड़ी, सिंहली, बर्मी तथा दक्षिणपूर्व एशिया की सभी लिपियाँ इससे निकलीं।
• बाह्मी और उससे निकली लिपियों की दो विशेषताएं उल्लेखनीय हैं, जो विश्व की किन्हीं अन्य लिपियों में उसे विशिष्टता प्रदान करती हैं-9) मात्रा आ का प्रयोग (3) संयुक्ताक्षर।
. भारतीय ध्वनिशास्त्रियों ने बहुत पहले ही यह अनुभव कर लिया था कि व्यंजन का उच्चारण स्वतंत्र रूप से बिना स्वर की सहायता के, नहीं किया जा सकता। अतः वर्णमाला के प्रत्येक व्यंजन में 'अ' की ध्वनि निहित रहती है, क्योंकि अकार को मूलस्वर माना है।
भारतीय वर्णमाला में अक्षरों के पृथक् नाम और उनके ध्वन्यात्मक मूल्यों की पद्धति नहीं अपनाई गयी है। जैसा कि अल्फावेटिकल लिपियों में किया गया है। उदाहरणार्थ रोमन लिपि में ए, बी, सी, डी अक्षरों के नाम अलग हैं तथा अ, ब, स, द आदि उच्चारण मूल्य अलग हैं। भारतीय वर्णमाला में एक अक्षर एक ध्वनि अपनाई गयी है।
भारतीय वर्णमाला का वैज्ञानिक आधार है। स्वरों में इस्व एवं दीर्घ तथा व्यंजनों को मुख के विभिन्न स्थानों से निकलने वाली ध्वनियों के आधार पर वर्गीकृत किया गया है- यथा- कण्ट से 'क' वर्ग, तालु से 'च' वर्ग, दन्त्य से 'त' वर्ग, मूर्धा से 'ट' वर्ग, ओष्ट से ‘प' वर्ग।
इनमें कण्ठ से अ,आ स्वर एवं ह, तालव्य इ, ई, एवं य, श मूर्धन्य ऋऋत्र एवं र स, दन्त्य से लु एवं ल स तथा ओष्ट से उ ऊ एवं व भी सम्मिलित हैं।
‘लिपि' वर्णमाला की ध्वनियों का अकारात्मक रूप होती है। अर्थात् प्रत्येक वर्ण के लिए एक चिन्ह होता है। अर्थात् लिपि के दो मुख्य तत्व होते हैं। १-आकार, २-आकार से संबंधित ध्वनि । एक ध्वनि के लिए कोई भी आकार स्वीकार किया जा (२-आ सकता है ।
अशोक कालीन ब्राह्मीलिपि में संयुक्ताक्षर लिखने की विधि इस प्रकार है- जिस अक्षर का उच्चारण पहले किया जाता है, उसे ऊपर तथा बाद के उच्चारण होने वाले अक्षरों को नीचे रखा जाता है।
ब्राह्मी लिपि में अनुस्वार के लिए अक्षर के दाहिने ऊपर की ओर लगाने का प्रावधान है। : विसर्ग का प्रयोग प्राकृत भाषा में भी नहीं पाया जाता है। यह इस बात को प्रमाणित करता है अभिलेखों की भाषा में प्राकृत भाषा का प्रयोग अधिक है ।
• बाह्मी लिपि की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उसमें प्रत्येक वर्ग के लिए एक विशिष्ट ध्वनि थी और प्रत्येक ध्वनि के लिए एक विशिष्ट वर्ण। उच्चारण और लिपि के इस अन्योन्याश्रित सम्बन्ध के कारण ब्राह्मीलिपि में स्वर, व्यंजन और मात्राओ के रूप प्रायः सुनिश्चित थे। देवनागरी लिपि को ये गुण ब्राह्मी से ही विरासत में मिले हैं। इस प्रकार ब्राह्मी सर्वदेशिक (राष्ट्रीय) लिपि थी।
मौर्यकालीन बाह्मीलिपि की विशेषताए–
१- इसके अक्षर सीधे, सरल, समान दिखाई देते है।
२-अक्षरों की लंबाई, ऊंचाई लगभग समान है।
३- संयुक्ताक्षरों की समानता बनाई जाती है। अन्य अक्षरों के साथ
४- इसकी लिखावट बाए से दायी ओर है।
५- इनमें हस्व, दीर्घ, तथा अनुनासिक का प्रयोग समुचित रूप से प्रचलित दिखाई पड़ता है।
५.ब्राह्मी लिपि के महत्वपूर्ण जैन शिलालेख–
भारत में अभी तक जितने भी शिलालेख प्राप्त हुए हैं, उनमें अशोक के अभिलेखा प्राचीन हैं। मौर्य सम्राट अशोक ने बौन्दधर्म के प्रचार प्रसार के लिए तथा प्रजा को नैतिकता का पाठ पढ़ाने हेतु नैतिफ सदश उस समय की पचलित जनभाषा प्राकृत तशा बामलिपि में ही खुदवाये। भारत के साथ साथ अफगानिस्तान आदि स्थानों पर खरोष्टी एवं बाहमी लिपियों में उत्कीर्ण करवाये। परन्तु जैन इतिहास को उद्घाटित करने वाले अधिकाश अभिलेख ब्राह्मी लिपि में ही हैं शिलालेख.
क- तीर्थकर महावीर निर्वाण संवत् को उल्लिखित करने वाला प्राचीनतम इस प्रकार शिलालेख–
वीराय भगवता चतुर सीते वस काये सालामा लिनिय रनि विह माज्झिमिके
–वीर निर्वाण संवत् का यह प्राचीनतम दुर्लभ शिलालेख पं० गौरीशंकर ओझा ने मिणाम नामक ग्राम (अजमेर से ३२ किमी०दूर) के एक किसान में एक पत्थर प्राप्त किया है जिस पर वह तम्बाकू कूटा करता था इस पर ब्राह्मीलिपि के अक्षर उत्कीर्ण थे। पुरातत्वान्वेषी ५० ओझा जी ने इन्हें सहज ही पढ़ लिया।
भ०महावीर निर्वाण के ८४ वर्ष बाद शालामालिनी नामक राजा ने मज्णमिका नामक नगरी (मेवाड़ की राजधानी) में किसी बात की स्मृति स्वरूप यह लेख लिखवाया था। यह लेख वीर निर्वाण के ८४ वर्ष बाद अर्थात् ४४३ ई०पू० में लिखाया गया अर्थात् इसका तात्पर्य यही हुआ कि पहले भी वीर निर्वाण संवत् प्रचलित था और शिलालेखों में इसका उल्लेख किया जाता था।
हाथीगुम्फा का यह सम्पूर्ण शिलालेख –
कलिंग के चेदिवंशीय जैन सम्राट खारवेल द्वारा उड़ीसा प्रदेश के भुवनेश्वर के समीप उदयगिरि (कुमारी पर्वत) नामक पर्वत पर उत्कीर्ण शिलालेख-भारत के अधुनातनाज्ञात प्राचीन अभिलेखों में से एक अति महत्वपूर्ण ऐतिहासिक शिलालेख है। जिसकी लिपि बाहमी एवं भाषा प्राकृत है। यह अभिलेख सम्राट खारवेल ने अपने शासन के १३वें वर्ष में उत्कीर्ण जिसका १७२ ई०पूर्व है। (जैन संदेश शोधाङ्क कराया था, समय लगभग छह /४/२/१६६०).
शिलालेख की पंक्तियों से विदित होता है कि जैनधर्म के प्राकृत जैनआगमों की द्वादशांग श्रुत वाचना के लिए श्रमणों का एक विशाल सम्मेलन बुलाया गया था और विजयमण्डल में स्थित कुमारी पर्वत पर पूजा हेतु संसारमुक्त अर्हतों की काय निषद्या का उत्खनन कराया गया, इस घटना की स्मृति को संजोये रखने के लिए यह शिलालेख राजा खारवेल ने उत्कीर्ण कराया। जिसकी चौदहवीं पंक्ति में उसने लिखाया कि (१४) (पंड जनपद वा) सिनो वसी करोति (१) तेरसमे वसेसुपवत-विजय-चक्क कुमारी पवते अरहते पखिण-संसितेहि काय निसीटीयाय (T) यापूज ।।। वकेहि गज भतिन (1) चिन वतान वसांगतान ।। पूलानुरत उवासग खारवेल सिरिना- जीव देह (सिरिता) परिखाता (। ). महाराजा खारवेल के इस हाथीगुम्फा अभिलेख की मूल १४वीं पक्ति इस प्रकार हैं–
महाराजा खारवेल के हागुम्फा का यह सम्पूर्ण शिलालेख १७ पंक्तियों का है, इसमें महाराजा खारवेल के १३ वर्षों का वर्षवार विवरण है। इसमें अन्य अनेक महत्वपूर्ण घटनाओं का भी उल्लेख है।
अपने देश का नाम भारतवर्ष है। इसका एकमात्र प्राचीन शिलालेखाय प्रमाण (साक्ष्य) यही शिलालेख है। इसकी दसवीं पंक्ति में अपने देश का भारतवर्ष नाम का उल्लेख भरधवस' (THEDA ) नाम उत्कीर्ण है। हाथीगुम्फा शिलालेख की १५वीं पक्ति इस बात को रेखांकित करती है कि नारी की प्रेरणा से (माँ, पत्नी, पुत्री आदि किसी भी रूप में) विश्वप्रसिद्ध मूर्तियों, स्थानों का निर्माण संभव हो सका।
इस अभिलेख की पन्द्रहवीं पक्ति में उल्लिखित है कि सिंहपथ रानी की इच्छानुसार राजा खारवेल ने अहंतों के लिए आश्रम बनवाये थे
(तनिमंतितेन राजा सिरि-खारवेलेन) सुकत समण-सुविहितानां च सब दिसानं अनिन तपसि-इसिनं (सब) संघयन अरहत निसिदीया समीपे पाभारे वराकार समुथा पिताहि अनेक योजनाहि-ताहि-सिलाहि सिंहपथरी सिधुलण्य निम्यान । )
इसका हिन्दी अनुवाद इस तरह है- राजा श्री खारवेल के आमंत्रण पर सब दिशाओं से आने वाले सुकृत और सुविहित श्रमण, ज्ञानी, तपस्वी, ऋषि और समी संघों के नेता सिंहपथ की रानी सिंधुला की निसिया के पास शिला पर पर्वत शिखर पर अरहत की निषिया के समीप वराकार (एकत्र होते) हैं।
इस शिलालेख में उल्लिखित घटनाओं का वर्ष महावीर निर्वाण संवत् में परिगणित है। यह इस अभिलेख की सोलहवीं पक्ति से स्पष्ट है। जिसमें कहा है–
पटलके चतरे च वेड्रिय गमे थमे पतिटापयति (') पानतरिय (सट सत वसेहि) म (,) खियकल वोहिछनं च चोयट अंग संतिक तुरियं उपदायति (') खेम राजा स वढ राजा स भिखु-राजा, धम राजा, पसंतो, सुनंतो अनुमवंतो कलाणानि (।)
अर्थात् और (समा मण्डप के सामने ६ अांद खारवल, वैडूर्य गन्ति चोनुने स्तंभ की प्रतिष्टा कराते हैं, एवं (महावार सवत् के) १६५वें वर्ष व्युच्छिन्न होती हुई मुख्य ध्वनि के शान्तिदायी चौसट अंगों का शीघ्र पाट कराते हैं। ऐसे क्षमाशील, बुद्धिमान, मिक्षुवृत्ति और धार्मिक राजा कल्याणों (पंचकल्याणक) की अनुभूति, श्रवण मनन करते हैं। (जैनसंदेश, शोधांक ६, ४ फरवरी,१६६०). अपनी महत्वपूर्णता से प्रसिद्ध यह शिलालेख राष्ट्र की अमूल्य निधि है। सम्पूर्ण जैनजगत के लिए यह समृद्र जैनसंस्कृति का अनुपम वैभव/विरासत है।
क ब्राह्मीलिपि के अक्षरों का विकास
प्राचीन भारतीय इतिहास में गुप्तकाल एक अत्यन्त समुन्नत युग था। इस समय इतिहास के अनेक स्रोत प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। प्रायः समुद्र गुप्त से लेकर सनी 'ए'त राजाओं के अभिलेख भारत के विभिन्न क्षेत्रों में प्राप्त हुए हैं। इस समय तक ब्राहमालिपि का विविध क्षेत्रों में विकास हो चुका था। अक्षरों की बनावट के नवीन प्रयोगों में यह लिपि निरन्तर विकास करती गयी। जैसे- गिरिनार के अभिलेख में अक्षरों के शीर्ष भाग पर लकीर का प्रयोग प्रारंभ हो चुका था तथा कृपाणकाल में मौर्यकाल के गालाकार अक्षय की अपक्षा कोणदार अक्षरों का निर्माण होने लगा। इस पारस्परिक विकासकम में गुप्तकालीन अक्षर का नवीन कड़ी प्रतीत होते हैं। इस तरह गुप्त काल में ब्राह्मी ने एक नया मोड़ ले लिया। इसका पता अशोक कालीन ब्राह्मीलिपि से तुलनात्मक अध्ययन करने से है। पर हो सकता है। अक्षरों की बनावट एवं मात्राओं का नवीन रीति से प्रयोग हुआ।
ख- नागरी लिपि और ब्राह्मी लिपि
विज्ञान की जितनी परिपक्वता और प्रामाणिकता नागरी लिपि में पायी जाती है, उतनी भारत तो क्या विश्व की किसी भी लिपि में नहीं पायी जाती, इसलिए इसे एक विशुद्ध वैज्ञानिक लिपि माना गया है। ऐसी समृद्ध, सम्पन्न, नागरलिपि का उद्गम मृल सोत ब्राहमा लिपि रही। इसके अनेक प्रमाण मध्य एशिया, जापान, तिब्बत आदि में प्राप्त प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थ तथा भारत में काठियावाड़ से उठासा तक और नेपाल की तराई से मसूर तक शिलालेखों, ताम्रपत्रों, सिक्कों, भुर्जपत्रों और हस्तलिखित ग्रन्थों में विद्यमान है।
ब्राह्मीलिपि वास्तव में नागरी का प्राचीनरूप ही है। 'नागरी' शब्द कब से प्रसिद्धि में आया, यह निश्चित नहीं, परन्तु तांत्रिक काल में 'नागर' (नागरी) नाम प्रचलित था, क्योंकि 'नित्यापोऽशिकार्णव' की 'सेतुबन्ध' नामक टीका के कर्ता भास्करानंद एकार (ए) का त्रिकोण रूप नागर (नागरी) में होना बतलाता है। ई. एँ. जिल्द ३५, पृष्ट २८३) 'वतुलागम' का टीका में लिखा है कि शिवमं () के अक्षरों के से शिव की मूर्ति नागर (नागरी) लिपि से बन सकती है, दूसरी लिपियों से बन नहीं सकती। पृष्ट-२४६-(पृष्ठ १८, भारतीय प्राचीन लिपिमाला) विभिन्न कालों में अक्षरों की बनावट में विभिन्नताए आने से विषमताएं उत्पन्न हुई। इसके अलावा भी दो कारण और का है। एक तो व्यक्तिगत क्षमतानुसार लिखावट और दूसरे अक्षरों को सजाने-सुन्दर दिखाने के लिए कुछ अलग तरह से लिखना।
ग- लिपियों की जननी 'ब्राह्मी लिपि ब्रीलिपि से उद्भूत अन्य लिपियाँ
ब्राह्मी लिपि भारत की एक ऐसी मूल लिपि रही है जिस से उद्भूत अनेकानेक भारतीय और विदेशी लिपियां हैं। आज जो भी लिपि भारत में पायी जाती है। उनके यदि प्राचीन विकासक्रम को देखें तो उसका संबंध कहीं न कहीं ब्राह्मी लिपि से मिल जाता है। कुछ लिपियां ऐसी हैं, जो स्पष्टतः ब्राह्मी से उद्भूत हैं।
भारतीय लिपियों में नागरी, शारदा, बंगला, तेलुगु, कनड़ी. ग्रन्थ, तमिल आदि समस्त वर्तमान (उर्दू) को छोड़कर लिपियों का मूल उद्गम ब्राह्मी लिपि है। परन्तु कालकम से ये लिपियां अपनी मूल लिपि से इतनी भिन्न हो गयीं कि जिनका प्राचीन लिपियों से परिचय नहीं है। जो लोग लिपियों के विकास से अनभिज्ञ हैं। वे सहसा यह स्वीकार ही नहीं करेंगे वन्तुनः लेखन कि ये सब लिपियां एक ही मूल ब्रह्मी लिपि से निकली या विकसित हैं। प्रवाह सदा एक ही स्रोत में नहीं बहता, कि लेखकों की लेखनरुचि (अक्षरों को सुन्दर बनाने का प्रयत्न आदि) से विकसित होते-होते विभिन्न मार्गों को ग्रहण करता रहता है। डॉ० सुवंशमाण पाठक की पुस्तक 'भाषा विज्ञान एवं हिन्दी भाषा और लिपि' पृष्ट २६८-६६ पर।
ब्राह्मी लिपि से विकसित लिपियों की विस्तृत जानकारी पांचवी ई.पूर्व से ३५० ई० तक ब्राह्मी अपने प्राचीनतम रूप एवं नम के साथ प्रयुक्त होती रही और भारतीय संस्कृति के तनरूप में व्यापारियों के साथ भारत के बाहर भी लहराती रही किन्तु गुप्तकाल तक आते-आते उसके नाम और रूप दोनों में ही अन्तर आया। चौथी सदी में यह गुप्तब्राह्मी कहलायी और धर्मप्रचारकों द्वारा मध्य एशिया तक पहुंचा दी गयी जिसमें वहां की खोतनी, ईरानी तथा तोखारी भाषाएं लिखी गयीं। घ- उत्तरी और दक्षिणी शैली
३.० ई० के बाद मी लिपि की उत्तरी और दक्षिणी दो शैलियां हो गयीं। उत्तरी शेली से उत्तर भारत तथा दक्षिणी शैली से दक्षिण भारत की लिपियां विकसित हुई। और इनकी ही शाखाओं-प्रशाखाओं से अन्य-अन्य लिपियां विकसित हुई। सांकेतिक वर्गीकरण
१-उत्तरीशैली ब्राह्मी लिपि
२-दक्षिणी शैली ब्राह्मी लिपि
१.देवनागरी, २.गुजराती, ३.बंगाली, ४.आसामी, ५.उड़िया, ६.कश्मीरी, ७.गुरुमुखी १.तमिल, २.तेलगु, ३.मलयालम, ४.कन्नड
उत्तरी शैली
चौथी पांचवीं शदी की ब्राह्मी जो गुप्त राजाओं के प्रभाव के कारण गुप्त-ब्राह्मी नाम से प्रसिद्ध हुई थी, उससे छठी-सातवीं सदी में कुटिल लिपि का विकास हुआ। स्वर की मात्राओं की आकृति टेढ़ी होने के कारण यह कुटिल कहलाई, इसी से शारदः एत्र नागरी लिपियों का विकास हुआ। नागरी का विकास नोवी सदी में हुआ था और दसवीं में शारदा का. इन दोनों लिपियों से उत्तर भारत की अनेक लिपियां विकसित हुई। शारदा का प्रसार सिंध, काश्मीर और पंजाब में हुआ। इसी से ही आधुनिक शारदा-टकी और गुरुमुखी लिपयाँ विकसित हुई।
उत्तर-भारत के आधुनिक काल की देवनागरी, गुजराती, राजस्थानी, महाजनी, महाराष्ट्री आदि लिपियां प्राचीन नागरी के पश्चिमी रूप से विकसित हैं। इसके साथ ही प्राचीन नागरी के पूर्वी रूप से कैथी (भोजपुरी), मैथिली, बंगाली एवं असमियां लिपि का विकास हुआ। उड़िया भी प्राचीन नागरी की पूर्वी शाखा से ही विकसित है, किन्तु उसपर तमिल एवं तेलगू लिपियों का भी प्रभाव पड़ा है। जिस प्रकार असमियां पर बंगला का प्रभाव है, उसी प्रकार मनिपुर में प्रचलित मानपुर लिाग पर मा बंगला का छाप है। बगला से एक और विकसित लिपि नेवाड़ी है, जो नेपाल में प्रचलित है। इसे लोग नेपाली कहते हैं। दक्षिणी शाखा
ब्राह्मी की दक्षिणी शाखा से दक्षिण भारत की लिपियां विकसित हुई। उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिण में इसका विकास किंचित भिन्न प्रकार से हुआ है। वस्तुतः दक्षिण में इसके दो रूप विकसित हुए। पहले रूप से तेलगू उऔर कन्नड़ का विकास हुआ तथ दूसरे रूप से तमिल की ग्रन्थ लिपि विकासित हुई, इसका प्राचीन रूप वट्टेलुट्ट नाम से प्रसिद्ध रहा है सिंहली भी ब्राह्मी से ही विकसित लिपि है। ।
कलिंग लिपि का विकास भी ब्राह्मी की दक्षिणी शाखा से हुआ है। कलिंग क्षेत्र में यह सातवीं सदी से ग्यारहवीं सदी तक प्रचलित रही है। इसी प्रकार ब्राह्मी की दक्षिणी शाखा से ही विकसित एवं उत्तरी शैली के दक्षिणी सीना पर विकसित पश्चिमा एव मध्य प्रदेशी लिपियां उत्तरी शैली से भी प्रभावित रही हैं।
इन लिपियों के अतिरिक्त बर्मी लिपि, कम्बोडिया की लिपि, सुमात्रा की बटक लिपि तथा फिलीपाईन्स एवं सेलिबिज की लिपियों को भी ब्राह्मी की दक्षिणी शाखा से ही विकसित माना जाता है।
तिब्बती लिपि-
यह भी ब्रामी लिपि से ही विकसित है। वस्तुतः गुप्तयुग की पश्चिमी शाखा की पूर्वी उपशाखा से छठी सदी में सिद्धमातृका विकसित हुई। ५८८-८६ ई० का बोधगया का प्रसिद्ध लेख सिद्धमातृका लिपि में ही है। इसी सिद्धमातृका एवं काश्मीरी के प्रभाव से तिब्बती हुई है।
इस प्रकार ब्राह्मी अनादिकाल से अखिल भारतीय लिपि के रूप में प्रतिष्ठित रही है, और आज भी वह विभिन्न रूपों में पूरे भारत में विस्तारित है। इसीलिए ब्राह्मी लिपि हमारी भारतीय संस्कृति की पहिचान ही नहीं, अपितु हमारी उत्कृष्ट परम्परा एवं वैज्ञानिक चिंतन की अद्भुत मिशाल है।
प्राप्त साक्ष्यों, ग्रन्थों, लेखों, शिलालेखो, सिक्कों, भोजपत्रों के अध्ययन से भी यही निष्कर्ष निकलता है कि भारत की समस्त मध्यकालीन और आधुनिक लिपियों का उद्गम प्राचीन राष्ट्रीय लिपि ब्राह्मी से ही हुआ। इसीलिए ब्राझीलिापे को समस्त लिपियों की जननी अर्थात् माता कहा गया है।
उपसंहार–
पत्थरों में प्राणप्रतिष्ठा, ज्ञानप्रतिष्टा, लिपि प्रतिष्ठा, करके इतिहास की धरोहर को संजोगा भारतीयता की अनोखी देन है। इन्सान की खूबियों की कहानी किस तरह सदियों बाद आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचायी जाये इसके लिए हमारे पूर्वजों ने न जाने कितने उपाय किए उन्होंने इतिहास के स्वर्णिम गाथा गाने के लिए चट्टानों पर अमृत संदेश खदवाकर बेजुबान तथा बेजान पाषाणों में जुबान आर जान दोनो दे दी। ब्राह्मी लिपि इस परम्परा की एक महत्वपूर्ण कड़ी बन गयी। ब्राह्मीलिपि हमारी अमानत थी, जो आज विकसित होकर अन्य रूपों में हमारे पास है। ब्रामीलिपि ने हमें परोक्ष रूप से ही सही पर भगवान तीर्थकर ऋषभदेव से सीधे जुड़ने का एक माध्यम दिया है।
हमें भी गर्व होता है कि हम उस लिपि को पढ़ रहे हैं और पढ़ा रहे हैं, जो ऋषभदेव ने रिखलाई थी। मुझे प्रथम बार हामीलिपि सीखने का अवसर सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में आयोजित कार्यशाला में सन् १९६२ में कर्नाटक के ही सुप्रसिद्ध लिपिविद् श्री पं० अनन्त जोशी जी द्वारा मिला। ब्राहमीलिपि को सीखकर तथा उसके वैभव से परिचित होकर मैं इतनी प्रभावित हुई कि ब्राह्मीलिपि की धुन ही सवार हो गयी। मैंने इसका अभ्यास जारी रखा और इसी अभ्यास के क्रम में दिस २००३ ग्वालियर जैनसमाज में लोगों को गभी जिज्ञासु श्रमण संस्कृति संस्थान सागानर (जयपर) में विद्यार्थियो को मैंने ग्रामी पढ़ाया तब उनके उत्साह को देखकर मुझे लगा कि नयी पीढ़ी को इस विरासत से परिचित कराना कितना जरूरी है। पूज्य भट्टारक स्वामीजी ने मझो श्रवणबेलगोला में विराजित भनि तथा आर्यिका सघो को बाभीतिाप का अभ्यास उगने का आदेश दिया। मैने का कक्षा को अपना सौभाग्य माना कि महामस्तकाभिषेक महोत्सव-२००६ में आयोजनों के कम में नषभदेव के पत्र बाहुबली के सानिध्य में उन्हीं की बहिन बाह्मी के नाम से प्रसिद्ध लिपि सीखने-सिखाने का दौर उस पवित्र स्थान श्रवणबेलगोला में चला है, जो स्वयं शिलालेखों की एक पूरी राजधानी है।
हम आभारी हैं कि मिस्टर प्रिसप साथ ही गौरीशंकर ओझा, राजेन्द्र मित्र आदि भारतीय विद्वानों के, जिनके अथक प्रयास से हम अपनी पहचान को कायम रखे है। उनकी ही बदौलत खारबेल तथा अशोक के शिलालेखो का पुरालेखीय वैभव देश दुनिया के सामने आ सका। एक विज्ञप्ति से ज्ञात हुआ कि मिस्टर प्रिंसप सात भाई थे और सभी लोग भारतीय इतिहास के समृद्धशाली परम्परा को जानने समझाने में अपना सम्पूर्ण जीवन लगाकर उन्हें नये आयाम देते रहे। हम उनके सटा ही रहेंगे। यादे हम मानवोन सभ्यता संस्कृति की संवाहक इन ऐतिहासिक लिपियो के पुनरावलोकन, अध्यपन हेतु जनमानस का ध्यान आकर्षित कर सके तो हमारे पूर्वजों के प्रति अपनी सच्ची श्रद्धांजलि प्रस्तुत कर कुछ हद तक अपने कर्तव्य का निर्वाह कर सकते हैं। इन विरार'तों का संरक्षण, संवर्धन करना वास्तक में अपनी अपनी अस्मिता का, अपने अस्तित्व का संरक्षण करने जैसा है।
भविष्य की तरफ बढ़ते हमारे कदम कहीं न कहीं अतीत से शक्ति और ऊर्जा ग्रहण करते हैं। भारतीय जैन समाज की युवापीढी सास्कृतिक वैभव से एकात्म स्थापित करे तो कदम कदम पर हमार परचम लहरायेगा।
हम सभी का यह परम कर्तव्य है, कि ब्राह्मी लिपि का ऐसा प्रचार प्रसार करना चाहिए कि यह अब नागरी लिपि की तरह प्रचलित हो सके। जो हमें साहित्य में नहीं मिलता, वह हमें अभिलेखो से प्राप्त होता है समारो समृद्धशाली पुरालेखीय सम्पदा को हमे अपने वैभव समृद्धशाली अतीत की याद दिलाती है। ब्राह्मी लिपि जानने के बाद ही समझा जा सकता है।
जणा जणा, मणा मणा बम्ही बम्हरूपे गा
अख्खराण अविखणा सुंदरी अंकिणा
अर्थात् जन जन के मन बसे ब्राह्मी का ब्रह्म स्वरूप, अक्षरों के अक्ष से सुन्दरी के अंक से।
हमारी ऐतिहासिक सम्पदा, तीर्थ आदि की सुरक्षा आज संदिग्ध है, हम उनको संवारने, सम्हालने में उतने जागरूक नहीं है जितना होना चाहिए। इसके लिए राष्ट्रकवि गुप्त ने
मैथिलीशरण ने एक बार हमारी समाज को सम्बोधित करते हुए कहा था–
जिन श्रेष्ट सौधों पर सुगायक अति सुधा थे घोलते,
निशि मव्य टीलो पर उन्ही के आज उल्लू बोलते,
सोते रहो ए जानयो, हम मन करते हैं यहां,
प्राचीन चिन्ह विनष्ट यों, किस जाति के होंगे कहाँ?
इन्हीं भावनाओं के साथ 'जय गोमटेश' ।
श्रीमती डॉ.मुन्नी पुष्पा जैन, वाराणसी।
Address : ‘Anekant Vidya Bhawan’, B. 23/45, Shardanagar Colony, Khojwan, Varanasi -221010
Email : anekantjf@gmail.com, Mob. 9450179254, 967086333
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