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Showing posts from 2025

उत्तम आर्जव

🌼 *जिन देशना* 🌼 ✨ *धर्म दिखावे का विषय* नहीं, *आंतरिक शुद्धता* का मार्ग है। जहाँ छल है, वहाँ धर्म नहीं; और जहाँ धर्म नहीं, वहाँ मोक्षमार्ग भी नहीं। --- 1️⃣ *“जब आपके साथ छल होगा, तब आप सहन नहीं कर सकेंगे”* यह वाक्य हमें 🔍 आत्मचिंतन की ओर ले जाता है। जो व्यक्ति स्वयं छल करता है, वह यह भूल जाता है कि 👉 *वही छल जब उस पर लौटकर आता है, तो उसे सबसे अधिक पीड़ा होती है* 😔 📌 इससे स्पष्ट होता है— छल स्वभावतः दुःखदायी है *जो कर्म हम दूसरों के साथ करते हैं, वही कर्म हमें भोगने पड़ते हैं* 🔄 ➡️ अतः जो छल को गलत मानते हैं, उन्हें किसी भी रूप में छल का प्रयोग नहीं करना चाहिए, विशेषकर मोक्षमार्ग में 🚫 --- 2️⃣ *“मोक्षमार्ग में छल सहित प्रवर्तन मत करो”* 🛤️ मोक्षमार्ग का अर्थ है— *आत्मा को बंधनों से मुक्त करना* *राग–द्वेष, कपट, मान, माया का क्षय करना* यदि कोई व्यक्ति— धर्म का आचरण छलपूर्वक करता है भीतर कुछ और, बाहर कुछ और दिखाता है 🎭 तो वह मोक्षमार्ग पर आगे नहीं, पीछे जा रहा है। 👉 *छल = माया* 👉 *माया = कर्मबंधन* 👉 *कर्मबंधन = संसार* ⛓️ --- 3️⃣ *“धर्मात्मा दिखने के लिए धर्म कर रहे हैं, तो वह स...

जैन साहित्य और संस्कृति की समृद्ध परम्परा : इसका इतिहास संजोने की आवश्यकता

जैन साहित्य और संस्कृति की समृद्ध परम्परा : इसका इतिहास संजोने की आवश्यकता                          प्रो. फूलचन्द जैन प्रेमी,  पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, जैनदर्शन विभाग, सम्पूर्णानन्द संस्कृतविश्वविद्यालय,वाराणसी।                  भारतीय इतिहास का अध्ययन जब शैशव अवस्था में था, तब कुछ तथाकथित इतिहासकारों की यह भ्रान्त धारणा थी कि जैनधर्म कोई बहुत प्राचीन धर्म नहीं है अथवा यह हिन्दू या बौद्ध धर्म की एक शाखा मात्र है। किन्तु जैसे-जैसे प्राचीन साहित्य, कला, भाषावैज्ञानिक अध्ययन तथा पुरातत्व आदि से सम्बन्धित नये-नये विपुल तथ्य सामने आते गये तथा इनके तुलनात्मक अध्ययन-अनुसन्धान का कार्य आगे बढ़ता जा रहा है वैसे वैसे जैनधर्म-दर्शन, साहित्य एवं संस्कृति की प्राचीनता तथा उसकी गौरवपूर्ण परम्परा को सभी स्वीकार करते जा रहे हैं ।      अब तो कुछ इतिहासकार विविध प्रमाणों के आधार पर यह भी स्वीकृत करने लगे हैं कि आर्यों के कथित आगमन के पूर्व भारत में जो संस्कृति थी वह श्रमण य...

भारत में रेल की शुरुआत एक भारतीय जैन ने की थी

*आज भारत में जो रेलवे है, उसको भारत में कौन लाया.?* *आपका उत्तर होगा ब्रिटिश.!* *जी नहीं..ब्रिटिश सिर्फ विक्रेता थे। वास्तव में भारत में रेलवे लाने का स्वपन एक भारतीय जैन का था.!* ¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤ *भारतीय गौरव को छिपाने के लिए हमारे देश की पूर्व सरकारों के समय इतिहास से बड़ी एवं गम्भीर छेड़छाड़ की गई।* *भारत में रेलवे आरम्भ करने का श्रेय हर कोई अंग्रेजों को देता है, लेकिन श्रीनाना जगन्नाथ शंकर सेठ मुर्कुटे जैन के योगदान और मेहनत के बारे में कदाचित कम ही लोग जानते हैं।* *15 सितंबर 1830 को दुनिया की पहली इंटरसिटी ट्रेन इंग्लैंड में लिवरपूल और मैनचेस्टर के बीच चली।*    *यह समाचार हर जगह फैल गया। बम्बई में एक व्यक्ती ने सोचा कि उनके शहर में भी ट्रेन चलनी चाहिए।* *अमेरिका में अभी रेल चल रही थी और भारत जैसे गरीब और ब्रिटिश शासित देश में रहने वाला यह व्यक्ति रेलवे का स्वप्न देख रहा था। कोई और होता तो जनता उसे ठोकर मारकर बाहर कर देती।* *लेकिन यह व्यक्ति कोई साधारण व्यक्ति नहीं था। यह थे बंबई के साहूकार श्रीनाना शंकरशेठ जैन। जिन्होंने स्वयं ईस्ट इंडिया कंपनी को ऋण दिया था। है न...आश्च...

Living Will not death Will

Living Will प्रो. डॉ. लोपा मेहता, मुंबई के जी.एस. मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर थीं, और उन्होंने वहाँ एनाटॉमी विभाग की प्रमुख के रूप में कार्य किया। ७८ वर्ष की उम्र में उन्होंने लिविंग विल (Living Will) बनाई। उसमें उन्होंने स्पष्ट लिखा — जब शरीर साथ देना बंद कर देगा, और सुधार की कोई संभावना नहीं रहेगी, तब मुझ पर इलाज न किया जाए। ना वेंटिलेटर, ना ट्यूब, ना अस्पताल की व्यर्थ भागदौड़। मेरे अंतिम समय में शांति हो — जहाँ इलाज के ज़ोर से ज़्यादा समझदारी को प्राथमिकता दी जाए। डॉ. लोपा ने सिर्फ यह दस्तावेज़ ही नहीं लिखा, बल्कि मृत्यु पर एक शोध-पत्र भी प्रकाशित किया। उसमें उन्होंने मृत्यु को एक प्राकृतिक, निश्चित और जैविक प्रक्रिया के रूप में स्पष्ट किया। उनका तर्क था कि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने मृत्यु को कभी एक स्वतंत्र अवधारणा के रूप में देखा ही नहीं। चिकित्सा का आग्रह यह रहा कि मृत्यु हमेशा किसी रोग के कारण ही होती है, और यदि रोग का इलाज हो जाए, तो मृत्यु को टाला जा सकता है। लेकिन शरीर का विज्ञान इससे कहीं गहरा है। उनका तर्क है — शरीर कोई हमेशा चलने वाली मशीन नहीं है। यह एक सीमित प्रणाली है, ज...

भारतीय संस्कृति और आचार्य विद्यासागर मुनिराज

भारतीय संस्कृति और आचार्य विद्यासागर मुनिराज  (भारतीय संस्कृति के संवर्धन में सन्त शिरोमणि:आचार्यश्री विद्यासागर जी मुनिराज का अवदान)                      प्रो. फूलचन्द जैन प्रेमी,वाराणसी                            ( राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित)                            संत शिरोमणि आचार्यश्री विद्यासागरजी   मुनिराज सर्वोच्च संयम साधना और अध्यात्म जगत के मसीहा माने जाते थे। उनका बाह्य व्यक्तित्व और मौलिक चिंतन  उतना ही अनुपम था,जितना अन्तरंग । अहिंसा, सत्य आदि अट्ठाईस मूलगुणों का निरतिचार पालन करने वाले मुनिराज पूज्य आचार्यश्री इन्द्रियजयी, नदी की तरह प्रवहमान, पक्षियों की तरह स्वच्छन्द, अनियत विहारी, चट्टान की तरह अविचल रहते थे । कविता की तरह रम्य, उदात्त और सुकोमल व्यक्तित्व के धनी,  भौतिक कोलाहलों से दूर, सदा संयम साधना में लीन रहने वाले तपस्वी थे । ...

जैन शास्त्रों में वर्णित रामायण सम्बन्धी कुछ तथ्य

जैन शास्त्रों में वर्णित रामायण सम्बन्धी कुछ तथ्य  1. रावण, कुंभकर्ण, विभीषण, इन्द्रजित कोई राक्षस नहीं थे अपितु इनके वंश का नाम राक्षस था। ये सभी विद्याधर थे। ये सभी जिनधर्म के सच्चे अनुयायी, अहिंसा धर्म को पालन करने वाले थे। ये कोई मांस, मदिरा का सेवन नहीं करते थे। शिकार आदि नहीं करते थे। 2. रावण के जन्म का नाम दशानन था । जब रावण का जन्म हुआ था, तब उनके समीप एक हार था, जिसमें उनके 9 प्रतिबिंब और झलक रहे थे। इस कारण 9+1 = कुल 10 मुख दिखने से उनका नाम दशानन प्रसिद्ध हुआ। उनके 10 मुख नहीं थे। रावण नाम तो बाद में पड़ा। रावण महा पराक्रमी, जिनेंद्र देव का परम भक्त और अनेक विद्यायों का स्वामी था।  3. कुंभकर्ण छह मास नहीं सोते थे। वे सामान्य मनुष्य के समान ही सोते थे। 4. रावण तो भविष्य में तीर्थंकर होंगे । इंद्रजीत और कुंभकर्ण युद्ध में नहीं मारे गए, अपितु उन्होंने तो मुनि दीक्षा अंगीकार करके मोक्ष प्राप्त किया। वे तो हमारे भगवान हैं। 5. यदि हम इनका पुतला दहन करते हैं या पुतला दहन देखकर खुश होते हैं, पुतला दहन देखने जाते हैं, तो हम महापाप ही कमाते हैं। भले ही पुतला जलाते हैं, परन्तु ...

स्थानांगसूत्र में पाँच निर्ग्रन्थों का स्वरूप..एक तुलनात्मक विवेचन.

स्थानांगसूत्र में पाँच निर्ग्रन्थों का स्वरूप..एक तुलनात्मक विवेचन.                      प्रो० फूलचन्द जैन, प्रेमी- वाराणसी                 आचारांगादि द्वादशांगों में स्थानांगसूत्र ऐसा तृतीय अंग आगम है, जिसमें प्रथमानुयोग आदि चारों अनुयोगों का अक्षय ज्ञान भण्डार समाहित है। दस स्थानों (अध्ययनों) में विभक्त इस आगम में क्रमश: एक से लेकर बढ़ते हुए क्रम से दस संख्या तक का विविध विषयों का सूत्रात्मक शैली में तात्त्विक विवेचन अद्‌भुत विधि से किया गया है। इसके अध्ययन से जहाँ हमें चरम तीर्थंकर महावीर के वचनामृत का पान करने का गौरव प्राप्त होता है, वहीं हमें इसकी वाचना में सम्मिलित उन महान आचार्यों की अद्‌भुत उच्च मेधा के भी दर्शन हो जाते हैं। इसे यदि हम भारतीय ज्ञान परम्परा का विश्वकोश कहें तो अत्युक्ति नहीं होगी।     यहाँ प्रस्तुत है स्थानांग सूत्र के पंचम स्थान में वर्णित निर्ग्र्ंथों का तुलनात्मक स्वरूप विवेचन-              इसमें ( सूत्र संख्या 184 से...

जैन का शानदार इतिहास

🔥 *जैन  का शानदार इतिहास* 🔥 ♦️ जैन संस्कृति विश्व की महान एवं प्राचीन संस्कृतियों में से एक है।  👉  हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो की खुदाई में प्राप्त मुद्रा एवं उस पर अंकित ऋषभदेव का सूचक बैल तथा सील नं.449 पर स्पष्ठ रूप से जिनेश्वर शब्द का अंकन होना तथा 👉 वेदों की 141 ऋचाओं में भगवान ऋषभदेव का आदर पूर्वक उल्लेख इस संस्कृति को वेद प्राचीन संस्कृति सिद्ध करती हैं। ♦️ हमारे देश भारत वर्ष का नाम ऋषभदेव के पुत्र चक्रवर्ती भरत के नाम से विख्यात है जो कि जग जाहिर प्रमाण है। 👉 विष्णु पुराण में भी इसका ऊल्लेख मिलता है। हमारे देश के प्रधान मंत्री स्व. जवाहर लाल नेहरु ने उड़ीसा के खंडगिरी स्थित खारवेल के शिला लेख पर "भरतस्य भारत" रूप प्रशस्ति को देख कर ही इस देश का संवैधानिक नामकरण भारत किया था। ♦️ राजा श्रेणिक, सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य , कलिंग नरेश खारवेल एव सेनापति चामुंडराय जैन इतिहास के महान शासक हुए है। ♦️ जैन पुराणों के अनुसार सती चंदन बाला, मैना सुंदरी एवं रानी रेवती आदि अनेक महान सम्यकदृष्टि जैन नारीयां हुई है। 👉 नारी स्वतंत्रता के प्रतीक भगवान महावीर के चतुर्विधि संघ में कु...

संस्कृत की प्रसिद्ध सूक्तियां

संस्कृत की प्रसिद्ध सूक्तियां  ------------------- 1. संघे शक्ति: कलौ युगे। – एकता में बल है। 2. अविवेक: परमापदां पद्म। – अज्ञानता विपत्ति का घर है। 3. कालस्य कुटिला गति:। – विपत्ति अकेले नहीं आती। 4. अल्पविद्या भयंकरी। – नीम हकीम खतरे जान। 5. बह्वारम्भे लघुक्रिया। – खोदा पहाड़ निकली चुहिया। 6. वरमद्य कपोत: श्वो मयूरात। – नौ नगद न तेरह उधार। 7. वीरभोग्य वसुन्धरा। – जिकसी लाठी उसकी भैंस। 8. शठे शाठ्यं समाचरेत् – जैसे को तैसा। 9. दूरस्था: पर्वता: रम्या:। – दूर के ढोल सुहावने लगते हैं। 10. बली बलं वेत्ति न तु निर्बल : जौहर की गति जौहर जाने। 11. अतिपर्दे हता लङ्का। – घमंडी का सिर नीचा। 12. अर्धो घटो घोषमुपैति नूनम्। – थोथा चना बाजे घना। 13. कष्ट खलु पराश्रय:। – पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं। 14. क्षते क्षारप्रक्षेप:। – जले पर नमक छिड़कना। 15. विषकुम्भं पयोमुखम। – तन के उजले मन के काले। 16. जलबिन्दुनिपातेन क्रमश: पूर्यते घट:। – बूँद-बूँद घड़ा भरता है। 17. गत: कालो न आयाति। – गया वक्त हाथ नहीं आता। 18. पय: पानं भुजङ्गानां केवलं विषवर्धनम्। – साँपों को दूध पिलाना उनके विष को बढ़ाना है। 19. सर्...

अनेकांत और स्याद्वाद के संबंध में कुछ आधुनिक मनीषियों के उद्गार

  अनेकांत और स्याद्वाद के संबंध में कुछ आधुनिक मनीषियों के उद्गार जिन आधुनिक मनीषियों ने अनेकांत और स्याद्वाद प्रणाली पर मनन कर उनके संबंध में निष्पक्ष भाव से उनकी यथार्थता, उपयोगिता तथा महत्व पर जो अपने उद्गार समय—समय पर प्रकट किये है उनमें से कुछ का संकलन उन्हीं के शब्दों में निम्नलिखित है— गवर्नमेंट संस्कृत कॉलेज बनारस के भूतपूर्व प्रिंसिपल श्री मंगलदेवजी शास्त्री ने लिखा है कि— ‘भारतीय दर्शन के इतिहास में जैन दर्शन की एक अनोखी देन (अनेकान्त) है। यह स्पष्ट है कि किसी तत्व के विषय में कोई भी तात्विक दृष्टि एकान्तिक नहीं हो सकती, प्रत्येक तत्व में अनेकरूपता स्वाभाविक होनी चाहिये और कोई भी दृष्टि उन सबका एक साथ तात्विक प्रतिपादन नहीं कर सकती। इसी सिद्धांत को जैन दर्शन की परिभाषा में अनेकांत दर्शन कहा गया है। जैनदर्शन का तो यह आधार स्तम्भ है ही, वास्तव में इसे प्रत्येक दार्शनिक विचारधारा के लिये भी आवश्यक मानना चाहिये। बौद्धिक स्तर पर इस सिद्धांत के मान लेने पर मनुष्य के नैतिक और बौद्धिक व्यवहार में भी एक महत्वपूर्ण परिवर्तन आ जाता है। चरित्र ही मानव जीवन का सार है। चरित्र के लिये ...

नागराजा मंदिर क्या एक जैन मंदिर था ?

नागराजा मंदिर क्या एक जैन मंदिर था ?  नागरकोइल का नागराजा मंदिर, जो आज सर्प देवता की पूजा का प्रमुख केंद्र बन चुका है, कभी एक प्राचीन जैन तीर्थ स्थल था। यह मंदिर दक्षिण भारत के कन्याकुमारी जिले के नागरकोइल शहर में स्थित है और यहाँ की दीवारों पर उकेरी गई जैन मूर्तियाँ इसके प्राचीन जैन इतिहास को दर्शाती हैं। हालांकि, आज इस मंदिर को मुख्य रूप से नागराजा की पूजा का केंद्र माना जाता है, लेकिन यह कई शताब्दियों पहले एक दिगंबर जैन तीर्थ स्थल था। नागराजा की पूजा के साथ इस मंदिर की दीवारों पर जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ, जिनमें से कुछ ध्यानमुद्रा में बैठी हुई हैं, आज भी मौजूद हैं। इन मूर्तियों के अस्तित्व ने इस मंदिर के जैन अतीत को उजागर किया है, जो अब हिंदू मंदिर में बदल गया है। मंदिर की दीवारों पर जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ और अन्य जैन चिह्नों की उपस्थिति यह संकेत देती है कि यह स्थान प्राचीन समय में एक प्रमुख जैन मठ या तीर्थ स्थल था। यह मंदिर शायद 8वीं-9वीं शताब्दी के आसपास स्थापित हुआ था, जब दक्षिण भारत में जैन धर्म का व्यापक प्रभाव था। इस क्षेत्र में जैन संस्कृति के प्रबल हो...

स्वर्णमय अंकित ५२ काव्य का भक्तामर महास्तोत्र

दिल्ली के चाँदनी चौक स्थित धर्मपुरा नया मंदिर , जो की आज से २२३ वर्ष प्राचीन है, जिसे सेठ हरसुख राय ने बनवाया था, वही पर १२००० प्राचीन ग्रंथों के साथ स्थित है ये स्वर्णमय अंकित ५२ काव्य का भक्तामर महा स्तोत्र ! जहाँ ये कहा जाता है कि अभी जो प्रचलित भक्तामर स्तोत्र है जिसमे ४८ काव्य है, जो की मूल भक्तामर स्तोत्र के ५२ काव्य में से ४८, ४९, ५०, ५१ काव्य को अलग करके किया है, क्युकी इन ४ काव्य में अति दिव्य शक्तियां है, देवों का साक्षात आह्रन है, जिसका कई लोग असामान्य उपयोग करने लगे थे, जिस वजह से इन्हें पृथक किया गया है ! . .

श्रुत पंचमी मनाने का कारण

*श्रुतपंचमी मनाने का कारण* 🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴 प्रतिवर्ष ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को जैन समाज में, श्रुतपंचमी पर्व मनाया जाता है। इस पर्व को मनाने के पीछे एक इतिहास है, जो निम्नलिखित है- श्री वर्द्धमान जिनेन्द्र के मुख से श्री इन्द्रभूति (गौतम) गणधर ने श्रुत को धारण किया। उनसे सुधर्माचार्य ने और उनसे जम्बूस्वामी नामक अंतिम केवली ने ग्रहण किया। भगवान महावीर के निर्वाण के बाद इनका काम ६२ वर्ष है।  *पश्चात १०० वर्ष में* *०१)* विष्णु, *०२)* नन्दिमित्र, *०३)* अपराजित, *०४)* गोवर्धन, *०५)* भद्रबाहु, ये पांच आर्चाय पूर्ण द्वादशांग के ज्ञाता श्रुतकेवली हुए।  *तदनंतर १८३ वर्ष मे* ग्यारह अंग और दश पूर्वों के वेत्ता से ग्यारह आचार्य हुए- *०१)* विशाखाचार्य, *०२)* प्रोष्ठिन, *०३)* क्षत्रिय, *०४)* जयसेन, *०५)* नागसेन, *०६)* सिद्धार्थ, *०७)* धृतिसेन, *०८)* विजय, *०९)* बुद्धिल, *१०)* गंगदेव जी और *११)* धर्म सेन। *तत्पश्चात २२० वर्ष में* ग्यारह अंग के पाँच पारगामी मुनि हुये *(कही कही १२३ वर्ष भी बताया जाता हैं)* *०१)* नक्षत्र, *०२)* जयपाल, *०३)* पाण्डुनाम, *०४)* ध्रुवसेन और *०५)* कंसाचार्...