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Showing posts from December, 2021

जैन दर्शन में लेश्या का स्वरूप

लेश्या क्या है ? लेश्या का मतलब होता है,आत्मा का स्वभाव । आत्मा के स्वभाव से तात्पर्य है कि जिसके द्वारा आत्मा कर्मों से लिप्त होती है तथा मन के शुभ और अशुभ परिणाम को लेश्या कहते हैं। लेश्या 6 प्रकार की होती है। 1.कृष्ण लेश्या 2.नील लेश्या 3.कपोत लेश्या 4.तेजो लेश्या 5.पदम लेश्या 6.शुक्ल लेश्या इसके अलावा आत्मा के जो विचार हैं उनको भाव लेश्या कहते हैं और जिन पुदगलो के द्वारा आत्मा के विचार बदलते रहते हैं, उन पुदगलो को द्रव्य लेश्या कहते हैं, लेश्या के नाम द्रव्य लेश्या के आधार पर ही रखे गए हैं। तीन लेश्या अशुभ फलदाई होती हैं, और वह पाप का कारण बनती हैं और 3 लेश्या शुभ फलदाई होती हैं और वह पुण्य का कारण बनती है। तीन अशुभ लेश्या निम्नलिखित हैं 1.कृष्ण लेश्या 2.नील लेश्या 3.कपोत लेश्या तीन शुभ लेश्या निम्नलिखित हैं 1. तेजो लेश्या 2. पदम लेश्या 3. शुक्ल लेश्य लेश्याओ के लक्ष्ण निम्नलिखत प्रकार से होते है - 1. कृष्ण लेश्या- निर्दयी, पापी, जीवो की हत्या करने वाला ,असंयमित, अमर्यादित, इन्द्रियो को वश मे न रखने वाला आदि  उपरोक्त परिणामो से युक्त जीव कृष्ण लेश्या के परिणाम वाला होता है । 2. नील

श्री मल्लप्पा जी

- श्री मल्लप्पाजी का जन्म वीर निर्वाण संवत् २४४२, विक्रम संवत् १९७३, ईस्वी सन् १२ जून, १९१६ में ग्राम सदलगा, तालुका चिक्कोडी, जिला बेलगाम (वर्तमान नाम-बेलगावी), कर्नाटक प्रांत में हुआ था। आपके तीन पीढी पूर्व वंशज #आष्टा गाँव में निवास करते थे। वहाँ से शिवराया भरमगौड़ा चौगुले, प्रांत कर्नाटक, जिला बेलगाम, (बेलगावी) तालुका-चिक्कोड़ी, ग्राम सदलगा आए थे। इसलिए आपका गोत्र ‘#अष्टगे’ कहा जाने लगा।  दक्षिण भारत में चतुर्थ, पंचम, बोगार, कासार, सेतवाल आदि दिगंबर जैन प्रसिद्ध जातियाँ होती हैं। गाँव के जमीदारों की चतुर्थ जाति होती है। मल्लप्पाजी गाँव के ज़मीदार होने से चतुर्थ जाति के थे। सदलगावासी उन्हें मल्लिनाथजी के नाम से पुकारते थे।  उनके पिता सदलगा ग्राम के कलबसदि (पाषाण निर्मित) मंदिर के मुखिया श्री पारिसप्पाजी (पार्श्वनाथ) अष्टगे एवं माता श्रीमती काशीबाईजी थीं। पारिसप्पाजी के दो विवाह हुए थे। पहली पत्नी कम उम्र में स्वर्गवासी हो गई थीं। तब काशीबाई से उनका दूसरा विवाह हुआ था। दोनों पत्नियों से उनकी दस संतानें थीं। इनमें से चार दिन में तीन संतानों की मृत्यु प्लेग रूपी महामारी फैलने से हो गई,

"बाज़ के बच्चे मुँडेरों पर नही उड़ते..."

"बाज़ के बच्चे मुँडेरों पर नही उड़ते..." जिस उम्र में बाकी परिंदों के बच्चे चिचियाना सीखते है, उस उम्र में एक मादा बाज अपने चूजे को पंजे में दबोच कर सबसे ऊंचा उड़ जाती है। पक्षियों की दुनिया में ऐसी Tough and tight training किसी और की नही होती। मादा बाज अपने चूजे को लेकर लगभग 12 Km ऊपर ले जाती है, वह दूरी तय करने में उसे 7 से 9 मिनट का समय लेती है। यहां से शुरू होती है, उस नन्हें चूजे की कठिन परीक्षा। उसे अब यहां बताया जाएगा कि तू किस लिए पैदा हुआ है?तेरी दुनिया क्या है? तेरी ऊंचाई क्या है? तेरा धर्म बहुत ऊंचा है और फिर मादा बाज उसे अपने पंजों से छोड़ देती है। धरती की ओर ऊपर से नीचे आते वक्त लगभग 2 km उस चूजे को आभास ही नहीं होता कि उसके साथ क्या हो रहा है। 7 km के अंतराल के आने के बाद उस चूजे के पंख जो कंजाइन से जकड़े होते है, वह खुलने लगते हैं। लगभग 9 km आने के बाद उनके पंख पूरे खुल जाते हैं। यह जीवन का पहला दौर होता है, जब बाज का बच्चा पंख फड़फड़ाता है। अब धरती से वह लगभग 3000 मीटर दूर है, लेकिन अभी वह उड़ना नहीं सीख पाया है। अब धरती के बिल्कुल करीब आता है, जहां से वह अपने

क्या बुंदेलखंड में बिछुड़े जैन श्रावकों की घरवापसी संभव है ❓

क्या बुंदेलखंड में बिछुड़े जैन श्रावकों की घरवापसी संभव है ❓ #जैन_धर्म_विस्तार   जैन धर्म एक समय पूरे भारत का बहुसंख्यक धर्म था,सभी समुदायो,कुलो,जातियो में यह प्रचलित रहा,पर समय ने ऐसी करवट ली कि कई कारणों से यह सिमटता चला गया।    बुंदेलखंड भारत का हृदय क्षेत्र है,यहां हमारे लाखों वर्ष प्राचीन सिद्ध क्षेत्र है, निसंदेह प्राचीन काल में यहां जैन बहुसंख्यक रहे होंगे। पर आज स्थितियां अलग है,आज यहां जैन-धर्म 3-4 जातियों परवार,गोलापूरब,गोलालारे,गोलसिंघारे में ही शेष बचा है।    क्या हमें ज्ञात है कि आज के कुछ दशको पहले बुंदेलखंड में स्थित नेमा,असाटी,गहोई,ताम्रकार, धाकड़,अग्रवाल,कलार जैसी जातियो में जैन धर्म को मानने वाले लोग अच्छी-खासी संख्या में थे,और इसके साक्ष्य इनके द्वारा निर्मित करवाई गई प्रतिमाओ की प्रशस्तियो में मिलते हैं।   सन् 1912 में दिगंबर जैन समाज ने अपने स्तर पर जनगणना करवाई थी उसकी डायरेक्टरी देखने पर चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए, उसमें बुंदेलखंड क्षेत्र में जैन-धर्म मानने वालों में नेमा,असाटी,गहोई जैसी जातियों के लोग अच्छी-खासी संख्या में थे। फिर क्या कारण रहे कि यह जैन-धर्म