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Showing posts from May, 2024

जैन ग्रंथों का अद्भुत संकलन : वर्धमान ग्रंथागार Jain library

विश्वस्तरीय डिजीटलाईज्ड लाईब्ररी है लाडनूं का ‘वर्द्धमान ग्रंथागार’ विश्व के प्रत्येक विषय की अध्ययन सामग्री को संजोए हुए दुर्लभ ग्रंथों, पांडुलिपियों,   विश्वस्तरीय पुस्तकों के साथ प्राचीन भारतीय विधा, जैनविद्या, प्राकृत व संस्कृत तथा धर्म और दर्शन आदि से सम्बंधित पुस्तकों का अथाह सागर है लाडनूं स्थित जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) का केन्द्रीय पुस्तकालय ‘वर्द्धमान ग्रंथागार’। विभिन्न शोधार्थियों, प्राध्यापकों, स्वाध्याय करने वालों और रूचि रखने वाले लोगों के लिए यह पुस्तकालय आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है।  पूर्ण सुव्यवस्थित ढंग से संजोई गई 75 हजार से अधिक पुस्तकों और 406 थीसिस, 6650 पांडुलिपियों और विभिन्न जर्नल्स, पत्र-पत्रिकाओं आदि से सम्पन्न यह पुस्तकालय शोधवेताओं के लिए बहुत ही उपयोगी बना हुआ है।  इस केन्द्रीय पुस्तकालय में यहां उच्च सुविधाओं से संयुक्त 120 से अधिक सीट वाला अध्ययन केन्द्र और रीडिंग हाॅल व रीडिंग गैलरी के अलावा अलग-अलग विषयों के 3 रीडिंग रूम लाईब्रेरी के अन्दर बनाए गए है। यहां फोटोकाॅपी एवं स्कैनर की सुविधा, व...

ज्ञानवापी में हो सकती हैं जैन मूर्तियां

महात्मा बुद्ध पूर्व में दिगम्बर जैन मुनि थे

महात्मा बुद्ध पूर्व में दिगम्बर जैन मुनि थे भगवान महावीर स्वामी के समकालीन मगध के कपिलवस्तु नरेश शुद्धोधन का पुत्र गौतमबुद्ध नामक राजकुमार हुआ। जिसने वैदिक पशु यज्ञ के विरुद्ध अहिंसा के प्रचार की भावना से संसार से विरक्त होकर राजपाठ एवं लघु पुत्र तथा पत्नी का त्याग कर पलाश नगर में भगवान पार्श्वनाथ की शिष्य परंपरा के पिहितास्रव नामक दिगम्बर जैन मुनि से दिगम्बर जैन मुनि दीक्षा ली थी तब आपका नाम "बुद्ध कीर्ति" रखा गया था किन्तु बाद में भूख को सहन न करने के कारण आप जैन मुनि दीक्षा से विचलित हो गये-अतः आपने गेरुआ वस्त्र पहिनकर मध्यम मार्ग अपनाया, तब आपका नाम "महात्मा बुद्ध" प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ इस विषय में आचार्य श्री देवसेन ने लिखा है कि- सिरिपासणाहतित्थे सरयूतीरे पलासणयरत्थो । पिहियासवस्स सिस्सो महासुदो बुड्ढकित्तमुणी ।। तिमिपूरणासणेहिं अहिगयपबज्जाओ परिष्भहो । रत्तंबरं धरित्ता पवहियं तेण एयंतं ।। अर्थ :- श्री पार्श्वनाथ भगवान के तीर्थकाल में (भगवान महावीर के धर्म प्रचार होने से पहले) सरयू नदी के किनारे पलाश नगर में विराजमान श्री पिहितास्रव मुनि का शिष्य बुद्धकीर्ति...

जैनदर्शन के महाविद्यालय और विद्यालय

*दिगम्बर जैन मुमुक्षु समाज द्वारा संचालित*         *आवासीय विद्यालय एवं महाविद्यालय*               !  ! *एक सामान्य परिचय* !  !                                 (संशोधित : फरवरी 2024)         👦 *शास्त्री बालक महाविद्यालय* 👦         ====================== *1. श्री टोडरमल दिगंबर जैन सिद्धान्त महाविद्यालय जयपुर* प्रवेश -- 11th शास्त्री प्रवेश शिविर (शिक्षण-प्रशिक्षण) - ललितपुर (उत्तर प्रदेश) संपर्क -  डॉ. शांतिकुमारजी पाटिल (प्राचार्य) 9413975133 पं. जिनकुमारजी शास्त्री 89032 01647 पं. गौरवजी शास्त्री 77373 23764 पं. अमनजी शास्त्री 7374833960 *2. आचार्य अकलंकदेव जैन न्याय महाविद्यालय ध्रुवधाम, बाँसवाड़ा (राज.)* प्रवेश -- 11th शास्त्री प्रवेश शिविर - अभी निश्चित नहीं संपर्क- निर्देशक पं. दीपक शास्त्री 9079891238 अधीक्षक पं. नमन शास्त्री 8955316512 *3. आचार्य धरसेन दिगंबर जैन सिद्धांत महाविद्यालय कोट...

जगन्नाथ मंदिर का इतिहास

"जगन्नाथ मंदिर की अनहद गूंज "  जगन्नाथ मंदिर का इतिहास बहुत प्राचीन है और यह मूल रूप से जैन मंदिर है । वर्तमान में हिंदू धर्म के चार धाम से एक धाम माना जाता है । और 51शक्ति पीठों में से एक विमला देवी शक्ति पीठ के नाम से भी विख्यात है । लेकिन एक जैन मंदिर को कब और कैसे परिवर्तित कर दिया गया ?   जब हमारे राष्ट्र की विरासतों को कोई लूट ले या क्षत विक्षत कर दे तो मन विक्षोभ से भर जाता है । अभी कुछ महीने पहले माननीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी के सफल प्रयासों से लूटी गई भारतीय विरासतों को पुनः विदेशों से वापिस ला गया है । जिनमें एक माता अन्नपूर्णा जी की प्रतिमा का उत्सव पूरे भारत वर्ष में मनाया गया । नगरों का भ्रमण कराते हुए उन्हें पुनः विश्वनाथ जी के मंदिर में विराजमान किया गया । हम  सभी भारतवासियों के मन में मानो एक नया विश्वास जाग  गया हो । सभी के मन में माता अन्नपूर्णा जी के प्रति जो भाव उमड़ा वह बहुत ही उत्साहित था । क्या आप जानते हैं उड़ीसा प्रदेश (कलिंग देश) में भव्य जगन्नाथ मंदिर में भी इसी तरह का इतिहास दोहराया गया था ?  - आज से ठीक 8-9BCE (3000 वर्ष ...

समयसारः ग्रंथस्य वैशिष्ट्यम्

समयसारः ग्रंथस्य वैशिष्ट्यम् कुन्दकुन्दस्य प्रौढा श्रेष्ठा च रचना वर्तते समयसारः। `“वोच्छामि समयपहुडमिणमो सुयकेवलीभणियं” इति प्रतिज्ञावाक्येन सूच्यते यत् कुन्दकुन्दाचार्यं ग्रन्थस्यास्य नाम समयपाहुडम् इत्यभीष्टमासीत् परन्तु कालान्तरे ’प्रवचनसारः’ ’नियमसारः’ एतादृशां सारान्तनाम्‍नामनुकरणवशात् ’समयसारः’ इत्येव प्रचलितोऽभवत्।  “समयते एकत्वेना युगपज्जानाति गच्छति च” इति निरुक्तेरनुसारं समयसारशब्दस्यार्थः जीवः इति ज्ञायते,’प्रकर्षेण आसमन्तात् भृतमिति प्राभृतम्’ यस्मिन् पूर्वापरविरोधरहितसांगोपांगवर्णनमस्ति तत्प्राभृतम् इति निरुक्‍तेनुसारं प्राभृतशब्दस्यार्थः शास्त्रमिति भवति। ’समयस्य प्राभृतम्’- जीवस्य आत्मनः वा शास्त्रमित्यर्थः भवति।  समयप्राभृत दशाधिकारेषु विभक्तोऽस्ति- १)पूर्वरङ्गम् २) जीवाजीवाधिकारः ३) कर्तृकर्माधिकारः  ४) पुण्यपापाधिकारः   ५) आस्रवाधिकारः   ६) संवराधिकारः  ७) निर्जराधिकारः   ८) बंधाधिकारः   ९) मोक्षाधिकारः  १०) सर्वविशुद्धज्ञानाधिकारश्च। नयानां सामञ्जस्यमुपस्थापयितुममृतचन्द्राचार्येण स्याद्वादाधिकार उपायोपेयभावाधिका...