Skip to main content

तीर्थंकर वर्द्धमान : एक झलक

तीर्थंकर वर्द्धमान : एक झलक

1.अन्य नाम - वर्द्धमान (वीर, अतिवीर, सन्मति, महावीर)
2.तीर्थंकर क्रम -चतुर्विंशतम
3.जन्मस्थान- क्षत्रिय कुण्डग्राम (वैशाली)
4.पूर्व भव - अच्युतेन्द्र
5.पितृनाम -सिद्धार्थ
6. मातृनाम -  त्रिशलादेवी (प्रियकारिणी)
7. वंशनाम् - नाथववंश 
               (ज्ञातृवंश, 'नाठ'-इति पालिः)
8. गर्भावतरण - आषाढ़ शुक्ला-षष्ठी, शुक्रवार,                    17 जून 599 ई.पू.
9.गर्भवास -नौ-मास, सात-दिन, बारह घंटे
10.जन्मतिथि -चैत्रशुक्ल त्रयोदशी, सोमवार, 27 मार्च, 598 ई.पू.
11. वर्ण (कान्ति)- स्वर्णाभ (हेमवर्ण)
12.चिह्न - सिंह
13.गृहस्थितरूप -अविवाहित
         (प्रसंग चला, परन्तु विवाह नहीं किया)
14. कुमारकाल -28 वर्ष, 5 माह, 15 दिन
15.दीक्षातिथि -मंगसिरकृष्ण दसमी, सोमवार,              29 दिसम्बर 569 ई.पू.
16.तपःकाल - 12 वर्ष, 5 मास, 15 दिन
17. कैवल्य-प्राप्ति - वैशाखशुक्ल दसमी, 
            रविवार 26 अप्रैल, 557 ई.पू.
18. देशनापूर्व मौन - 66 दिन
19. देशनातिथि ( प्रथम )- श्रावणकृष्णप्रतिपदा,            शनिवार, 1 जुलाई 557 ई.पू.
20. निर्वाणतिथि - कार्तिक कृष्ण 30, मंगलवार,         15 अक्टूबर 527 ई.प
21. निर्वाण - भूमि- पावा (मध्यमा पावा)
22. आयु -   72 वर्ष (71 वर्ष, 4 मास, 25 दिन)
23. जन्म-समय की ज्योतिर्ग्रहस्थिति - 
                नक्षत्र -   उत्तरा फाल्गुनि
                 राशि -    कन्या
                 महादशा - बृहस्पति
                 दशा -  शनि
                 अन्तर्दशा - बुध

Comments

Popular posts from this blog

जैन ग्रंथों का अनुयोग विभाग

जैन धर्म में शास्त्रो की कथन पद्धति को अनुयोग कहते हैं।  जैनागम चार भागों में विभक्त है, जिन्हें चार अनुयोग कहते हैं - प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग।  इन चारों में क्रम से कथाएँ व पुराण, कर्म सिद्धान्त व लोक विभाग, जीव का आचार-विचार और चेतनाचेतन द्रव्यों का स्वरूप व तत्त्वों का निर्देश है।  इसके अतिरिक्त वस्तु का कथन करने में जिन अधिकारों की आवश्यकता होती है उन्हें अनुयोगद्वार कहते हैं। प्रथमानुयोग : इसमें संयोगाधीन कथन की मुख्यता होती है। इसमें ६३ शलाका पुरूषों का चरित्र, उनकी जीवनी तथा महापुरुषों की कथाएं होती हैं इसको पढ़ने से समता आती है |  इस अनुयोग के अंतर्गत पद्म पुराण,आदिपुराण आदि कथा ग्रंथ आते हैं ।पद्मपुराण में वीतरागी भगवान राम की कथा के माध्यम से धर्म की प्रेरणा दी गयी है । आदि पुराण में तीर्थंकर आदिनाथ के चरित्र के माध्यम से धर्म सिखलाया गया है । करणानुयोग: इसमें गणितीय तथा सूक्ष्म कथन की मुख्यता होती है। इसकी विषय वस्तु ३ लोक तथा कर्म व्यवस्था है। इसको पढ़ने से संवेग और वैराग्य  प्रकट होता है। आचार्य यति वृषभ द्वारा रचित तिलोयपन...

णमोकार महामंत्र के 9 रोचक तथ्य

9 अप्रैल 2025 विश्व नवकार सामूहिक मंत्रोच्चार पर विशेष – *णमोकार महामंत्र के 9 रोचक तथ्य* डॉ.रूचि अनेकांत जैन प्राकृत विद्या भवन ,नई दिल्ली १.   यह अनादि और अनिधन शाश्वत महामन्त्र है  ।यह सनातन है तथा श्रुति परंपरा में यह हमेशा से रहा है । २.    यह महामंत्र प्राकृत भाषा में रचित है। इसमें कुल पांच पद,पैतीस अक्षर,अन्ठावन मात्राएँ,तीस व्यंजन और चौतीस स्वर हैं । ३.   लिखित रूप में इसका सर्वप्रथम उल्लेख सम्राट खारवेल के भुवनेश्वर (उड़ीसा)स्थित सबसे बड़े शिलालेख में मिलता है ।   ४.   लिखित आगम रूप से सर्वप्रथम इसका उल्लेख  षटखंडागम,भगवती,कल्पसूत्र एवं प्रतिक्रमण पाठ में मिलता है ५.   यह निष्काम मन्त्र है  ।  इसमें किसी चीज की कामना या याचना नहीं है  । अन्य सभी मन्त्रों का यह जनक मन्त्र है  । इसका जाप  9 बार ,108 बार या बिना गिने अनगिनत बार किया जा सकता है । ६.   इस मन्त्र में व्यक्ति पूजा नहीं है  । इसमें गुणों और उसके आधार पर उस पद पर आसीन शुद्धात्माओं को नमन किया गया है...

सम्यक ज्ञान का स्वरूप

*सम्यक ज्ञान का स्वरूप*  मोक्ष मार्ग में सम्यक ज्ञान का बहुत महत्व है । अज्ञान एक बहुत बड़ा दोष है तथा कर्म बंधन का कारण है । अतः अज्ञान को दूर करके सम्यक ज्ञान प्राप्त करने का पूर्ण प्रयास करना चाहिए । परिभाषा -  जो पदार्थ जैसा है, उसे वैसे को वैसा ही जानना, न कम जानना,न अधिक जानना और न विपरीत जानना - जो ऍसा बोध कराता है,वह सम्यक ज्ञान है । ज्ञान जीव का एक विशेष गुण है जो स्‍व व पर दोनों को जानने में समर्थ है। वह पा̐च प्रकार का है–मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय व केवलज्ञान। अनादि काल से मोहमिश्रित होने के कारण यह स्‍व व पर में भेद नहीं देख पाता। शरीर आदि पर पदार्थों को ही निजस्‍वरूप मानता है, इसी से मिथ्‍याज्ञान या अज्ञान नाम पाता है। जब सम्‍यक्‍त्व के प्रभाव से परपदार्थों से भिन्न निज स्‍वरूप को जानने लगता है तब भेदज्ञान नाम पाता है। वही सम्‍यग्‍ज्ञान है। ज्ञान वास्‍तव में सम्‍यक् मिथ्‍या नहीं होता, परन्‍तु सम्‍यक्‍त्‍व या मिथ्‍यात्‍व के सहकारीपने से सम्‍यक् मिथ्‍या नाम पाता है। सम्‍यग्‍ज्ञान ही श्रेयोमार्ग की सिद्धि करने में समर्थ होने के कारण जीव को इष्ट है। जीव का अपना प्रतिभ...