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Showing posts from February, 2020

जैन अध्यात्म

जैन दर्शन में अध्यात्म    'अध्यात्म' शब्द अधि+आत्म –इन दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है कि आत्मा को आधार बनाकर चिन्तन या कथन हो, वह अध्यात्म है। यह इसका व्युत्पत्ति अर्थ हे। यह जगत् जैन दर्शन के अनुसार छह द्रव्यों के समुदायात्मक है। वे छह द्रव्य हैं- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। इनमें जीव द्रव्य चेतन है, जिसे 'आत्मा' शब्द से भी कहा जाता है। शेष पाँचों द्रव्य  अजीव  हैं, जिन्हें अचेतन, जड़ और अनात्म शब्दों से भी व्यवहृत किया जाता है। पुद्गल द्रव्य स्पर्श, रस, गन्ध और रूप गुणोंवाला होने से इन्द्रियों का विषय है। पर आकाश, काल, धर्म और अधर्म ये चार अजीव द्रव्य इन्द्रियगोचर नहीं हैं, क्योंकि उनमें स्पर्श, गन्ध, रस और रूप नहीं हैं। पर आगम और अनुमान से उनका अस्तित्व सिद्ध है। हमारे भीतर दो द्रव्यों का मेल है- शरीर और आत्मा शरीर अचेतन या जड़ है और आत्मा सचेतन है, ज्ञाता-दृष्टा है। किन्तु वह स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण-शब्द रूप नहीं है। अत: पाँचों इन्द्रियों का विषय नहीं है। ऐसा होने पर भी वह शरीर से भिन्न अपने पृथक् अस्तित्व को मानता है। यद्यपि जन्म में तो शरीर के साथ ही आय

भक्तामर स्तोत्र और वेद

*भक्तामर स्तोत्र और वेद*  डॉ अनेकांत कुमार जैन , नई दिल्ली  drakjain2016@gmail.com  एक वैदिक मित्र से बातों ही बातों में पता चला कि उन्हें जैनों का भक्तामर स्तोत्र बहुत पसंद है । उन्होंने कुछ छंद सुना भी दिए तो आनंद आया । फिर उन्होंने कहा कि कई छंद ऐसे हैं जिनका वैदिक मंत्रों से बहुत साम्य है । मुझे आश्चर्य हुआ । यह तथ्य मैं उन अनुसंधान करने वाले शोधार्थियों के लिए प्रेषित कर रहा हूं जो भक्तामर पर गहराई से अध्ययन कर रहे हैं -  मानतुंग आचार्य विरचित स्तोत्र का २३ वां छंद है - त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांस। मादित्यवर्णममलं तमसः परस्तात् ॥ त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयंति मृत्युं। नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र! पन्थाः॥२३॥ अर्थ - हे ऋषभदेव भगवान ! तपस्वीजन आपको सूर्य की तरह तेजस्वी, निर्मल और मोहान्धकार से परे रहने वाले परम पुरुष मानते हैं | आपको ही अच्छी तरह से जान कर मृत्यु पर भी विजय प्राप्त की जा सकती है |इसके सिवाय मोक्षपद का दूसरा सरल रास्ता नहीं है| यजुर्वेद अ.३१ मंत्र ८ की एक स्तुति है - वेदाहमतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्ण तमस: पुरस्तात् । तमेव निदित्वादि मृत्युमेति नान्य पन्था विधते यनाय

शिव और ऋषभदेव

शिव और ऋषभदेव ============ (इतिहास का वह क्षण कितना क्रूर था जब एक महान व्यक्तित्व के दो टुकडे किये !!) हर जगह कूछ  अच्छे और कुछ बुरे लोग होते है ! कटरपण सदैव हिंसा को प्रश्रय देत ही अथवा यु कह सकते है कि उसमे से हिंश स्वता  झरती है ! सैकडो वर्ष पूर्व के समय भी कटरपन्थि थे ! किंतु उदारपन्थियो कि भी कमी नाही थी ! वे संप्रदाय नीरपेक्ष थे ! तामिळनाडू के इतिहास में यद्दपी जैन और शैवो के घात - प्रतिघात का सशक्त चित्रण किया गाय है, किंतु उसके भीतर से झांकती संप्रदाय नीरपेक्षता भी स्पष्ट देखी जा सकती है ! शिव और ऋषभदेव क्या दो थे ? एक ज्वलंत प्रश्न है ! जैन ग्रन्थो में दोनो को एक मन गया है ! भट्टाकलंक एक प्रसिद्ध आचार्य थे ! उनका एक लोकप्रिय काव्य है  -  अकलंक स्तोत्र  उसमे लिखा है  - "सो$स्मान्पातू निरंजनो जीन्पती: सर्वत्र सूक्ष्म शिव: !" (अकलंक स्तोत्र - १०)  मनतुन्गाचार्य के भक्तामर स्तोत्र का आज भी घर-घर में पाठ होता है ! उन्होने एक स्थान पार कहा है - नान्य: शिव: शिवपदस्य मुनीन्द्रपंथ:!! (भक्तामर स्तोत्र -२३)  आचार्य जिनसेन ने "हर" शब्द का प्रयोग तीर्थंकर ऋषभदेव के लिए