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भक्तामर स्तोत्र और वेद

*भक्तामर स्तोत्र और वेद* 

डॉ अनेकांत कुमार जैन , नई दिल्ली 
drakjain2016@gmail.com 


एक वैदिक मित्र से बातों ही बातों में पता चला कि उन्हें जैनों का भक्तामर स्तोत्र बहुत पसंद है । उन्होंने कुछ छंद सुना भी दिए तो आनंद आया । फिर उन्होंने कहा कि कई छंद ऐसे हैं जिनका वैदिक मंत्रों से बहुत साम्य है । मुझे आश्चर्य हुआ । यह तथ्य मैं उन अनुसंधान करने वाले शोधार्थियों के लिए प्रेषित कर रहा हूं जो भक्तामर पर गहराई से अध्ययन कर रहे हैं - 

मानतुंग आचार्य विरचित स्तोत्र का २३ वां छंद है -

त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांस।
मादित्यवर्णममलं तमसः परस्तात् ॥
त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयंति मृत्युं।
नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र! पन्थाः॥२३॥

अर्थ -
हे ऋषभदेव भगवान ! तपस्वीजन आपको सूर्य की तरह तेजस्वी, निर्मल
और मोहान्धकार से परे रहने वाले परम पुरुष मानते हैं |
आपको ही अच्छी तरह से जान कर मृत्यु पर भी विजय प्राप्त की जा सकती है |इसके सिवाय मोक्षपद का दूसरा सरल रास्ता नहीं है|

यजुर्वेद अ.३१ मंत्र ८ की एक स्तुति है -

वेदाहमतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्ण तमस: पुरस्तात् ।
तमेव निदित्वादि मृत्युमेति नान्य पन्था विधते यनाय ।।

अर्थ 
मैंने उस महापुरुष को जाना है जो सूर्य के समान तेजस्वी और अज्ञानादि अंधकार से दूर है । उसी को जानकर मृत्यु से पार हुआ जा सकता है ,मुक्ति के लिए अन्य कोई मार्ग नहीं है ।

विचारणीय :

यह स्तुति और आचार्य मानतुंग की स्तुति शब्द साम्य की दृष्टि से विशेष ध्यान देने योग्य है ।

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