जैन दर्शन में अध्यात्म
'अध्यात्म' शब्द अधि+आत्म –इन दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है कि आत्मा को आधार बनाकर चिन्तन या कथन हो, वह अध्यात्म है। यह इसका व्युत्पत्ति अर्थ हे। यह जगत् जैन दर्शन के अनुसार छह द्रव्यों के समुदायात्मक है। वे छह द्रव्य हैं-
- जीव,
- पुद्गल,
- धर्म,
- अधर्म,
- आकाश और
- काल।
- इनमें जीव द्रव्य चेतन है, जिसे 'आत्मा' शब्द से भी कहा जाता है। शेष पाँचों द्रव्य अजीव हैं, जिन्हें अचेतन, जड़ और अनात्म शब्दों से भी व्यवहृत किया जाता है। पुद्गल द्रव्य स्पर्श, रस, गन्ध और रूप गुणोंवाला होने से इन्द्रियों का विषय है। पर आकाश, काल, धर्म और अधर्म ये चार अजीव द्रव्य इन्द्रियगोचर नहीं हैं, क्योंकि उनमें स्पर्श, गन्ध, रस और रूप नहीं हैं। पर आगम और अनुमान से उनका अस्तित्व सिद्ध है।
- हमारे भीतर दो द्रव्यों का मेल है- शरीर और आत्मा शरीर अचेतन या जड़ है और आत्मा सचेतन है, ज्ञाता-दृष्टा है। किन्तु वह स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण-शब्द रूप नहीं है। अत: पाँचों इन्द्रियों का विषय नहीं है। ऐसा होने पर भी वह शरीर से भिन्न अपने पृथक् अस्तित्व को मानता है। यद्यपि जन्म में तो शरीर के साथ ही आया। पर मरण के समय यह स्पष्ट हो जाता है कि देह मात्र रह गयी, आत्मा पृथक् हो गया, चला गया।
- कार्य की उत्पत्ति में दो कारण माने जाते है-
- उपादान और
- निमित्त।
- निमित्त कारण वह होता है जो उस उपादान का सहयोगी होता है, पर कारक नहीं। यदि प्रत्येक द्रव्य के परिवर्तन में पर द्रव्य को कर्ता माना जाये तो वह परिवर्तन स्वाधीन न होगा, किन्तु पराधीन हो जायेगी और ऐसी स्थिति में द्रव्य की स्वतन्त्रता समाप्त हो जायेगी। इस सिद्धान्त के अनुसार जीव द्रव्य की संसार से मुक्ति पराधीन हो जायेगी, जब कि मुक्ति स्वाधीनता का नाम है या ऐसा कहिए कि पराधीनता से छूटने का नाम ही मुक्ति है।
- संसार में जीवन का बंधन यद्यपि पर के साथ है, पर उस बंधन में अपराध उस जीव का स्वयं का हें वह निज के स्वरूप को न जानने की भूल से पर को अपनाता है और वहीं उसका बंधन है। और यह बंधन ही संसार है। इस बंधन से छूटने के लिये जब उसे अपनी भूल का ज्ञान होता है, तो वह उस मार्ग से विरक्त होता है।
- सारांश यह है कि संसारी आत्मा अपने विकारी भावों के कारण कर्म से बंधा है और अपने आत्मज्ञान रूप अविकारी भाव से ही कर्मबंधन से मुक्त होता है। पर संसारी और मुक्ति दोनों अवस्था में अपने उन उन भावों का कर्त्ता वह स्वयं है, अन्य कोई नहीं। ज्ञानी ज्ञान भाव का कर्त्ता है और अज्ञानी अज्ञानमय भावों का कर्त्ता है। समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द ने यही लिखा है—
यं करोति भावमात्मा कर्त्ता सो भवति तस्य भावस्य।
ज्ञानिनस्तुज्ञानमयोऽज्ञानमयोऽज्ञानिन:॥ -संस्कृत छाया,126॥
- आचार्य अमृतचन्द्र भी लिखते हैं-
ज्ञानिनो ज्ञाननिर्वृत्ता: सर्वे भावा भवन्ति हि।
सर्वेऽप्यज्ञाननिर्वृत्ता भवन्त्यज्ञानिनस्तु ते॥67॥
- कर्ता और कर्म के सम्बन्ध में आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं-
य: परिणमति स कर्ता य: परिणामो भवेत्तु तत् कर्म।
या परिणति: क्रिया सा त्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया ॥51॥
- जो पदार्थ परिवर्तित होता है वह अपनी परिणति का स्वयं कर्त्ता है और वह परिणमन उसका कर्म है और परिणति ही उसकी क्रिया हैं। ये तीनों वस्तुत: एक ही वस्तु में अभिन्न रूप में ही हैं, भिन्न रूप में नहीं।
एक: परिणमति सदा परिणामो जायते ते सदैकस्य।
एकस्य परिणति: स्यात् अनेकमप्येकमेव यत: ॥52॥
- द्रव्य अकेला ही निरन्तर परिणमन करता है वह परिणमन भी उस एक द्रव्य में ही पाया जाता है और परिणति क्रिया उसी एक में ही होती है इसलिये सिद्ध है कर्ता, कर्म, क्रिया अनेक होकर भी एक सत्तात्मक है। तात्पर्य यह है कि हम अपने परिणमन के कर्ता स्वयं हैं दूसरे के परिणमन के कर्ता नहीं हैं। आगे चलकर आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं-
आसंसारत एव धावति परं कुर्वेऽहमित्युच्चकै:
दुर्वारं ननु मोहिनामिह महाहङ्काररूपं तम:।
तद्भूतार्थपरिग्रहेण विलयं यद्येकवारं व्रजेत्
तत् किं ज्ञानधनस्य बंधनमहो भूयो भवेदात्मन:॥55॥
- अर्थात् संसारी प्राणियों की अनादि काल से ही ऐसी दौड़ लग रही है कि मैं पर को ऐसा कर लूँ। यह मोही अज्ञानी पुरुषों का मिथ्या अहंकार है। जब तक यह टूट न हो तब तक उसका कर्म बंध नहीं छूटता। इसीलिये वह दु:खी होता है और बंधन में पड़ता है। इसी को स्पष्ट करने के लिये उन्होंने यह सिद्धांत स्थापित किया है कि-
आत्मभावान् करोत्यात्मा परभावान् सदा पर:।
आत्मैव ह्यात्मनो भावा: परस्य पर एव ते॥56॥
- इसका तात्पर्य यह है कि आत्मा अपने ही भावों का कर्ता है और परद्रव्यों के भावों का (परिवर्तनों का) कर्ता परद्रव्य ही है। आत्मभाव आत्मा ही है।
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