शिव और ऋषभदेव
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(इतिहास का वह क्षण कितना क्रूर था जब एक महान व्यक्तित्व के दो टुकडे किये !!)
हर जगह कूछ अच्छे और कुछ बुरे लोग होते है ! कटरपण सदैव हिंसा को प्रश्रय देत ही अथवा यु कह सकते है कि उसमे से हिंश स्वता झरती है ! सैकडो वर्ष पूर्व के समय भी कटरपन्थि थे ! किंतु उदारपन्थियो कि भी कमी नाही थी ! वे संप्रदाय नीरपेक्ष थे ! तामिळनाडू के इतिहास में यद्दपी जैन और शैवो के घात - प्रतिघात का सशक्त चित्रण किया गाय है, किंतु उसके भीतर से झांकती संप्रदाय नीरपेक्षता भी स्पष्ट देखी जा सकती है !
शिव और ऋषभदेव क्या दो थे ? एक ज्वलंत प्रश्न है ! जैन ग्रन्थो में दोनो को एक मन गया है ! भट्टाकलंक एक प्रसिद्ध आचार्य थे ! उनका एक लोकप्रिय काव्य है - अकलंक स्तोत्र उसमे लिखा है -
"सो$स्मान्पातू निरंजनो जीन्पती: सर्वत्र सूक्ष्म शिव: !" (अकलंक स्तोत्र - १०)
मनतुन्गाचार्य के भक्तामर स्तोत्र का आज भी घर-घर में पाठ होता है ! उन्होने एक स्थान पार कहा है - नान्य: शिव: शिवपदस्य मुनीन्द्रपंथ:!! (भक्तामर स्तोत्र -२३)
आचार्य जिनसेन ने "हर" शब्द का प्रयोग तीर्थंकर ऋषभदेव के लिए हि किया है ! उन्होने "दुरीतारीहरोहर: लिखा है ! इसका अर्थ है - " हे तीर्थंकर ऋषभदेव ! आप पाप रुपी शत्रुओ का हरण करने से "हर" है !
वैदिक ग्रन्थो मे भी शिव कि दिगंबर मुद्रा स्वीकार कि गई है ! "नम: शिवाय" एक प्रसिद्ध स्तोत्र है ! उसमे शिव कि दिगंबर मुद्रा का उल्लेख है "दिव्याय देवाय दिगम्बराय !" भार्तुहरी ने 'वैराग्य शतक' में लिखा है - "एकाकी नि:स्पृह: शांत: पानिपात्रो दिगंबर:!" इसी प्रकार "लिंगपुरान" में लिखा मिलता है -
"नग्नो जटो" निराहारो$चिरी ध्वांतगतो हि स:
निराशस्त्यसंदेह शैवमाप परं पद्म !! (४७/१९-२२)
डॉ. लक्ष्मिनारायण साहू इतिहास के अधिकारी विद्वान है ! उनके कथन से मालूम होता है कि तीर्थंकर ऋषभदेव और शिव दोनो अभिन्न है और एक हि ही ! कालांतर मे संप्रदाय भेद से ये दो भागो मे विभक्त कर लिए गये, ऐसा अनुमान है ! उन्होने अपने "उन्दिसा में जैन धर्म" नामक ग्रंथ में लिखा है , "ऋग्वेद (मं. ५,सू. १०) में केशी तथा दिगंबर का जो वर्णन है, वह जैनियो के भगवान ऋषभदेव और हिंदुवो के शिवजी को अभिन्न सिद्ध करता है !
जैनेद्र व्याकरण (२/२/१९) में लिखा हुआ मिलता है - "शांकरी जीनविद्या" ! नाथ पंथ का प्रारंभ भगवान शंकर से माना जाता है ! अनेक कोशकारो ने शंकर शब्द दिगंबर जैन अर्थ में लिया है ! वाचस्पत्य कोशकार ने शंकर को दिगंबर जैन से साम्भाधित बताया है ! मेदिनी कोषकार का कथन है, "दिगंबर: स्यात क्षपणे नग्ने तमसी शंकरे !" महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय १४, श्लोक १८ में कहा गाय है ! "ऋषभ: पवित्राना योगिना निष्कल: शिव:"! हलायुधकोष में भी ऐसा हि लिखा हुआ मिलता है !
डॉ. रामधारीशिंह दिनकर एवं वाचस्पती आदि ने स्पष्टत: शंकर और शिव को दिगंबरत्व से संबंधित बताया है ! ये शिव ऋषभदेव के अतिरिक्त अन्य नाही थे ! ऋषभदेव का एक नामांतर शिव था ! हर, शंकर और शंभू भी उनके हि नामांतर थे ! श्री दिनकर कि तो मान्यता है कि शैव मार्ग का विकास जैन साधना से हि हुआ है ! वाचस्पत्य ने शिव को जैन का भेद माना है !
याह दुख का विषय है कि आगे चाळकर कुछ सांप्रदायवादी लोगो ने ऋषभ और शिव को दो पृथक व्यक्तित्व के रूप में बांट दिया ! जाब कि दोनो एक थे !
a Peep into Jainism के संशोधित संस्करण में एकवोटेक श्री जयभगवान जैन ने पेज - १० पार लिखा है - " it was again Lord Risabha, who, as will be explained later on, came to be worshipped as Shiva, Shankar, Vishnu and Mahadeva".
ऋषभदेव का चरण चिन्ह बैल है तो शिव का नंदी है !
दोनो दिगंबर है !
दोनो मयुर पिच्छिकाधारी है !
शिव जटाधारी है, ऋषभ भी लोञ्च से पूर्व जटाधारी थे ! उनकी मुर्तीया भी इस रूप में प्राप्त है !
शिवजी चाद्रांकित है, ऋषभ भी सौम्य चंद्र जैसे मुखमंडल से सुशोभित है !
दोनो हि कैलास - वासी है !
शिव, पार्वती के संग है तो ऋषभ भी पार्वत्य वृत्ती के है !
दोनो कि मान्यतावो में फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी का महत्व है !
दोनो एक थे !
इतिहास का वह क्षण कितना क्रूर था जब एक महान व्यक्तित्व के दो टुकडे किये !!
(तामिळनाडू का जैन इतिहास : लेखक - पं. मल्लिनाथ शास्त्री, प्रकाशक - कुन्द्कुंद भारती -१८ बी, स्पेशल इंस्टीटुषण एरिया, न्यू देल्ली ११००६७ से साभार)
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