Skip to main content

जैन ग्रंथों का अनुयोग विभाग

जैन धर्म में शास्त्रो की कथन पद्धति को अनुयोग कहते हैं। 

जैनागम चार भागों में विभक्त है, जिन्हें चार अनुयोग कहते हैं - प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग।

 इन चारों में क्रम से कथाएँ व पुराण, कर्म सिद्धान्त व लोक विभाग, जीव का आचार-विचार और चेतनाचेतन द्रव्यों का स्वरूप व तत्त्वों का निर्देश है।

 इसके अतिरिक्त वस्तु का कथन करने में जिन अधिकारों की आवश्यकता होती है उन्हें अनुयोगद्वार कहते हैं।

प्रथमानुयोग : इसमें संयोगाधीन कथन की मुख्यता होती है। इसमें ६३ शलाका पुरूषों का चरित्र, उनकी जीवनी तथा महापुरुषों की कथाएं होती हैं इसको पढ़ने से समता आती है | 

इस अनुयोग के अंतर्गत पद्म पुराण,आदिपुराण आदि कथा ग्रंथ आते हैं ।पद्मपुराण में वीतरागी भगवान राम की कथा के माध्यम से धर्म की प्रेरणा दी गयी है । आदि पुराण में तीर्थंकर आदिनाथ के चरित्र के माध्यम से धर्म सिखलाया गया है ।

करणानुयोग: इसमें गणितीय तथा सूक्ष्म कथन की मुख्यता होती है। इसकी विषय वस्तु ३ लोक तथा कर्म व्यवस्था है। इसको पढ़ने से संवेग और वैराग्य  प्रकट होता है।

आचार्य यति वृषभ द्वारा रचित तिलोयपन्नत्ति में तीन लोक तथा उसमें रहने वाले जीवों का अत्यंत सूक्ष्मता के साथ वर्णन है ।

आचार्य पुष्पदंत और भूतबली द्वारा रचित षटखंडागम में कर्म सिद्धांत का सूक्ष्म वर्णन है । आचार्य नेमिचंद्र कृत गोम्मटसार आदि ग्रंथ इसके अंतर्गत आते हैं ।




चरणानुयोग : इसमें उपदेशात्मक कथन की होती है तथा इसमें श्रावक व मुनिराज को करने योग्य कार्य, उनके कर्तव्य व्रतादिक, भक्ष्य अभक्ष्य मर्यादा इत्यादि का होता है। इसको पढ़ने चारित्र की प्रेरणा मिलती है।
आचार्य वटकेर का मूलाचार ग्रंथ मुनियों के आचार का वर्णन करता है ।आचार्य समन्तभद्र द्वारा रचित रत्न करंड श्रावकाचार ग्रंथ श्रावकों के आचार का वर्णन करता है ।


द्रव्यानुयोग : इसमें निश्चय या वास्तविक कथन की प्रमुखता होती है। यद्यपि इसमें निश्चय व व्यवहार कथन दोनों हैं तथापि इसमें शुद्ध कथन की प्रमुखता होती है। इसका प्रतिपाद्य विषय है सात तत्व, ६ द्रव्य, ९ पदार्थ लेश्या, मार्गणा, गुणस्थान आदि।अध्यात्म ग्रंथ जैसे आचार्य कुन्दकुन्द रचित समयसार ,प्रवचनसार,नियमसार आदि ग्रंथ तथा आचार्य नेमिचन्द्र का द्रव्यसंग्रह ग्रंथ इसी अनुयोग में आता है ।

चारो ही अनुयोग वीतरागता के पोषक तथा मोक्षमार्ग के पथ प्रदर्शक हैं ये भिन्नता सिर्फ कथन पद्धति की अपेक्षा से है, मूल उद्देश्य तो सबका एक ही है। ध्यातव्य है कि अनुयोगों में करणानुयोग के शामिल होने के कारण ही जैन संस्कृति में गणित के अध्ययन की गणित के अध्ययन और अनुशीलन की विशेष प्रवृति देखने को मिलती है।

तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ में प्रथमानुयोग के अलावा शेष सभी अनुयोग का विषय है ।

प्रश्न उत्तर
*जैनागम के ग्रन्थों को कितने भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है?*

उत्तर - जैनागम के ग्रन्थो को चार भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है।

*ये चार भाग कौन-कौन से हैं?*

उत्तर - प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग एवं द्रव्यनुयोग।

 *प्रथमानुयोग के कुछ ग्रन्थों के नाम बताइये।*

उत्तर - आदि पुराण, उत्तर पुराण, पद्म पुराण, चैबीसी पुराण, पांडव पुराण, श्रोणि चरित्र, क्षत्र चूड़ामणि, गद्य चिन्तामणि, हरिवंश पुराण, श्रीपाल, चरित्र, जीवंधर चम्बू, शांति पुराण, चैबीसी पुराण, महापुराण, यशः तिलक चम्पू, चंदा प्रभु चरितम्, धर्मशर्माभ्युदय।

*करणानुयोग के कुछ ग्रन्थों के नाम बताइये।*

उत्तर - तिल्लोय पण्णत्ति, जम्बूद्वीप पण्णत्ति, त्रिलोक भास्कर, जैन ज्यार्तिलोक, लब्धिसार, क्षपणासार, त्रिलोकससार, गोमट्टसार, षट्खंडागम धवलाटीका, कषाय पाहुड़ जयधवला टीका, महाबंध महाधवला टीका, कर्म प्रकृति, योगसार।

*चरणनुयोग के कुछ ग्रन्थों के नाम बताइये।*

उत्तर - रत्नकरण्ड श्रावकाचार, छहढाला, मूलाचार, भगवती आराधना, अमितगति श्रावकाचार, प्रवचनसार, नियमसार, रयणसार चारित्रसार, अनगार धर्मामृत, सागर धर्मामृत, पुरूषार्थ सिद्धियुपाय।

*द्रव्यानुयोग के कुछ ग्रन्थों के नाम बताइये।*

उत्तर - समयसार, नियमसार, द्रव्य संग्रह मोक्ष शास्त्र, पंचास्तिकाय, परम प्रकाश, समाधिशतक, इष्टोपदेश, तत्वार्थ राजवार्तिक, सवार्थसिद्धि

*प्रथमानुयोग क्या है?*

उत्तर - जिसमें चारों पुरूषार्थ, त्रेषठ शलाका के पुरूषों के चरित्र तथा पुण्य आश्रव कराने वाली कथाओं का वर्णन होता है वह प्रथमानुयोग है।

*करणानुयोग किसे कहते हैं?*

उत्तर - जो सम्यग्ज्ञान लोक अलोक के विभागों को, युग के परिवर्तनों को चारों गतियों को दपर्णवत् झलकाता है वह करणानुयोग है।

*चरणानुयोग किसे कहते हैं?*

उत्तर - जो सम्यग्ज्ञान मुनि श्रावकों के चरित्र की उत्पत्ति, वृद्धि आदि को बताता है वह चरणानुयोग है।

*द्रव्यानुयोग किसे कहते हैं?*

उत्तर - जिस अनुयोग में जीव, अजीव, पुण्य, पाप, बंध, मोक्ष आदि का विस्तरित वर्णन रहता है वह द्रव्यानुयोग है।

Comments

Popular posts from this blog

णमोकार महामंत्र के 9 रोचक तथ्य

9 अप्रैल 2025 विश्व नवकार सामूहिक मंत्रोच्चार पर विशेष – *णमोकार महामंत्र के 9 रोचक तथ्य* डॉ.रूचि अनेकांत जैन प्राकृत विद्या भवन ,नई दिल्ली १.   यह अनादि और अनिधन शाश्वत महामन्त्र है  ।यह सनातन है तथा श्रुति परंपरा में यह हमेशा से रहा है । २.    यह महामंत्र प्राकृत भाषा में रचित है। इसमें कुल पांच पद,पैतीस अक्षर,अन्ठावन मात्राएँ,तीस व्यंजन और चौतीस स्वर हैं । ३.   लिखित रूप में इसका सर्वप्रथम उल्लेख सम्राट खारवेल के भुवनेश्वर (उड़ीसा)स्थित सबसे बड़े शिलालेख में मिलता है ।   ४.   लिखित आगम रूप से सर्वप्रथम इसका उल्लेख  षटखंडागम,भगवती,कल्पसूत्र एवं प्रतिक्रमण पाठ में मिलता है ५.   यह निष्काम मन्त्र है  ।  इसमें किसी चीज की कामना या याचना नहीं है  । अन्य सभी मन्त्रों का यह जनक मन्त्र है  । इसका जाप  9 बार ,108 बार या बिना गिने अनगिनत बार किया जा सकता है । ६.   इस मन्त्र में व्यक्ति पूजा नहीं है  । इसमें गुणों और उसके आधार पर उस पद पर आसीन शुद्धात्माओं को नमन किया गया है...

सम्यक ज्ञान का स्वरूप

*सम्यक ज्ञान का स्वरूप*  मोक्ष मार्ग में सम्यक ज्ञान का बहुत महत्व है । अज्ञान एक बहुत बड़ा दोष है तथा कर्म बंधन का कारण है । अतः अज्ञान को दूर करके सम्यक ज्ञान प्राप्त करने का पूर्ण प्रयास करना चाहिए । परिभाषा -  जो पदार्थ जैसा है, उसे वैसे को वैसा ही जानना, न कम जानना,न अधिक जानना और न विपरीत जानना - जो ऍसा बोध कराता है,वह सम्यक ज्ञान है । ज्ञान जीव का एक विशेष गुण है जो स्‍व व पर दोनों को जानने में समर्थ है। वह पा̐च प्रकार का है–मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय व केवलज्ञान। अनादि काल से मोहमिश्रित होने के कारण यह स्‍व व पर में भेद नहीं देख पाता। शरीर आदि पर पदार्थों को ही निजस्‍वरूप मानता है, इसी से मिथ्‍याज्ञान या अज्ञान नाम पाता है। जब सम्‍यक्‍त्व के प्रभाव से परपदार्थों से भिन्न निज स्‍वरूप को जानने लगता है तब भेदज्ञान नाम पाता है। वही सम्‍यग्‍ज्ञान है। ज्ञान वास्‍तव में सम्‍यक् मिथ्‍या नहीं होता, परन्‍तु सम्‍यक्‍त्‍व या मिथ्‍यात्‍व के सहकारीपने से सम्‍यक् मिथ्‍या नाम पाता है। सम्‍यग्‍ज्ञान ही श्रेयोमार्ग की सिद्धि करने में समर्थ होने के कारण जीव को इष्ट है। जीव का अपना प्रतिभ...