*सम्यक ज्ञान का स्वरूप*
मोक्ष मार्ग में सम्यक ज्ञान का बहुत महत्व है । अज्ञान एक बहुत बड़ा दोष है तथा कर्म बंधन का कारण है । अतः अज्ञान को दूर करके सम्यक ज्ञान प्राप्त करने का पूर्ण प्रयास करना चाहिए ।
परिभाषा -
जो पदार्थ जैसा है, उसे वैसे को वैसा ही जानना, न कम जानना,न अधिक जानना और न विपरीत जानना - जो ऍसा बोध कराता है,वह सम्यक ज्ञान है ।
ज्ञान जीव का एक विशेष गुण है जो स्व व पर दोनों को जानने में समर्थ है। वह पा̐च प्रकार का है–मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय व केवलज्ञान। अनादि काल से मोहमिश्रित होने के कारण यह स्व व पर में भेद नहीं देख पाता। शरीर आदि पर पदार्थों को ही निजस्वरूप मानता है, इसी से मिथ्याज्ञान या अज्ञान नाम पाता है। जब सम्यक्त्व के प्रभाव से परपदार्थों से भिन्न निज स्वरूप को जानने लगता है तब भेदज्ञान नाम पाता है। वही सम्यग्ज्ञान है। ज्ञान वास्तव में सम्यक् मिथ्या नहीं होता, परन्तु सम्यक्त्व या मिथ्यात्व के सहकारीपने से सम्यक् मिथ्या नाम पाता है। सम्यग्ज्ञान ही श्रेयोमार्ग की सिद्धि करने में समर्थ होने के कारण जीव को इष्ट है। जीव का अपना प्रतिभास तो निश्चय सम्यग्ज्ञान है और उसको प्रगट करने में निमित्तभूत आगमज्ञान व्यवहार सम्यग्ज्ञान कहलाता है। तहा̐ निश्चय सम्यग्ज्ञान ही वास्तव में मोक्ष का कारण है, व्यवहार सम्यग्ज्ञान नहीं।
*सम्यग्ज्ञान और सम्यक दर्शन में अंतर*
सम्यक ज्ञान व सम्यक दर्शन में अन्तर है।ज्ञान का अर्थ जानना है और दर्शन का अर्थ मानना है।बिना सम्यक दर्शन के सम्यक ज्ञान नहीं हो सकता है।
*सम्यक ज्ञान के पांच भेद* -
इसके पांच भेद है
१ *मतिज्ञान* -इन्द्रियों और मन के निमित्त से होने वाले ज्ञान को मतिज्ञान कहते है
२ *श्रुतज्ञान* - मतिज्ञान से जाने गए पदार्थ के विषय में विशेष जानने को श्रुतज्ञान कहते है
३ *अवधिज्ञान* - द्रव्य क्षेत्र का और भाव की मर्यादा लिए हुए रूपी द्रव्य के स्पष्ट प्रत्यक्ष ज्ञान को अवधि ज्ञान कहते है।
४ *मन:पर्यय* - दूसरे के मन में स्थित रूपी द्रव्य के स्पष्ट ज्ञान को मन:पर्यय ज्ञान कहते है।
५ *केवलज्ञान* - जो लोकालोक के तीनो कालो के समस्त पदार्थो को स्पष्ट प्रत्यक्ष एकसाथ जानता है उसे केवलज्ञान कहते है।
*सम्यक ज्ञान के अन्य ८ भेद* -
१. *शब्दाचार* - ग्रन्थों के शब्द मात्रा आदि का शुध्द उच्चारण।
२. *अर्थाचार* - समझ कर पढना, शुध्द अर्थ करना।
३. *उभयाचार* - अर्थ समझते हुये शुध्द उच्चारण करना।
४. *विनयाचार* - विनय के साथ शास्त्रों को पढना ।
५. *बहुमानाचार* - गुरु और शास्त्रों का आदर करना।
६. *उपघाताचार* - धारणापूर्वक ज्ञान आराधना करना और उसे बार बार पढना,उसे कुछ नियम लेकर पढना।
७. *कालाचार* - आगम प्रणीत समय में ही स्वाध्याय करना-सुर्य ग्रहण ,चन्द्र ग्रहण,दाह क्रियाआदि अयोग्य कालों में शास्त्र नहीं पढना।
८. *अनिन्हवाचार* - जिस गुरु,शास्त्र से ज्ञान प्राप्त किया है,उसका नाम नहीं छिपाना ।
सम्यग्ज्ञान के बिना मोक्ष मार्ग संभव नहीं है अतः चारित्र से पूर्व सम्यग्ज्ञान अति आवश्यक है ।
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