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Showing posts from December, 2022

प्रकरण : श्री सम्मेद शिखर जी

प्रकरण : श्री सम्मेद शिखर जी *अतिवादी होने से भी बचें जैन* प्रो अनेकान्त कुमार जैन ,नई दिल्ली एक बात है जो किस तरह कही जाय समझ नहीं आ रहा । क्यों कि हम लोग उभय अतिवाद के शिकार हैं ।  वर्तमान में  श्री सम्मेद शिखर जी प्रकरण में आधे से अधिक जैन वहाँ की इस स्थिति का जिम्मेदार स्वयं जैनों को ठहराने में पूरी  ताकत लगा कर महौल को हल्का करने की भी कोशिश कर रहे हैं ।  इसमें भी अधिकांश वे लोग भी हैं जिन्हें स्वयं सारी सुविधाएं चाहिए और दूसरों को त्याग तपस्या के उपदेश दे रहे हैं ।  ये वैसे समाधान बतला कर स्वयं को धन्य समझ रहे हैं जो अशक्य अनुष्ठान होता है ।  जैसे -  1.यदि देश के सभी नागरिक अपराध छोड़ दें तो पुलिस की आवश्यकता ही न पड़े । 2. यदि सभी लोग बहुत साफ सफाई से रहें तो मच्छर पैदा ही न हों । 3.यदि सभी लोग ब्रह्मचर्य का पालन करें तो जनसंख्या बढ़े ही नहीं । यदि ऐसा हो तो वैसा हो .... आदि आदि काल्पनिक ख्याली पुलाव पका कर आप अपना पेट भर लेते हैं और निश्चिंत हो जाते हैं । इस तरह के आलसी लोग जिन्हें सिर्फ बातें बनाना और अति आदर्श की वे बातें करना आता है जो वास्तव में यथार्थ में संभव ही नहीं है । वे

तत्त्वार्थसूत्रम्

  तत्त्वार्थसूत्रम् प्रथमअध्याय सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणिमोक्षमार्गः॥१॥तत्त्वार्थश्रद्धानंसम्यग्दर्शनम्॥२॥तन्निसर्गादधिगमाद्वा॥३॥जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षस्तत्त्वम्॥४॥नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यासः॥५॥प्रमाणनयैरधिगमः॥६॥निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः॥७॥सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्च॥८॥मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानिज्ञानम्॥९॥तत्प्रमाणे॥१०॥आद्येपरिक्षम्॥११॥प्रत्यक्षमन्यत्॥१२॥मतिःस्मृतिःसंज्ञाचिन्ताऽभिनिबोधइत्यनर्थान्तरम्॥१३॥तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्॥१४॥अवग्रहेहावायधारणाः॥१५॥बहुबहुविधक्षिप्रानिःसृतानुक्तध्रुवाणांसेतराणाम्॥१६॥अर्थस्य॥१७॥व्यञ्जनस्यावग्रहः॥१८॥नचक्षुरनिन्द्रियाभ्याम्॥१९॥श्रुतंमतिपूर्वंद्व्यनेकद्वादशभेदम्॥२०॥भवप्रत्ययोऽवधिर्देवनारकाणाम्॥२१॥क्षयोपशमनिमित्तःषड्विकल्पःशेषाणाम्॥२२॥ऋजुविपुलमतीमनःपर्ययः॥२३॥विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यांतद्विशेषः॥२४॥विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमनःपर्ययोः॥२५॥मतिश्रुतयोर्निबन्धोद्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु॥२६॥रूपिष्ववधेः॥२७॥तदनन्तभागेमनःपर्ययस्य॥२८॥सर्वद्रव्यपर्यायेषुकेवलस्य॥२९॥एकादीनिभाज्यानियुगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्यः॥३०

आचार्य भद्रबाहु को ही आचार्य कुन्दकुन्द का गुरु मानना अधिक उपयुक्त

*आचार्य भद्रबाहु को ही आचार्य कुन्दकुन्द का गुरु मानना अधिक उपयुक्त* :  प्रो .डॉ. फूलचन्द्र जैन प्रेमी, वाराणसी *आचार्य कुन्दकुन्द और उनका दिव्य अवदान* तीर्थंकर महावीर और गौतम गणधर के बाद की उत्तरवर्ती जैन आचार्य परम्परा में अनेक महान् आचार्यों का नाम श्रद्धापूर्वक लिया जाता है; जिनके अनुपम व्यक्तित्व और कर्तृत्व से भारतीय चिन्तन, अनुप्राणित हो कर चतुर्दिक प्रकाश की किरणें फैलाता रहा है, किन्तु इन सब में अब से दो हजार (अथवा लगभग 2400) वर्ष पूर्व युगप्रधान आचार्य कुन्दकुन्द ऐसे प्रखर प्रभात के समान महान् आचार्य हुए, जिनके महान आध्यात्मिक चिन्तन से सम्पूर्ण भारतीय मनीषा प्रभावित हुई और उसने एक अद्भुत मोड़ लिया।  यही कारण है कि इनके परवर्ती भी आचार्यों ने अपने को उनकी परम्परा का आचार्य मानकर उनकी सम्पूर्ण विरासत से जुड़ने में अपना गौरव माना तथा उनकी मूल-परम्परा तथा ज्ञान-गरिमा को एक स्वर से श्रेष्ठ मान्य करते हुए कहा - *मंगलं भगवदो वीर, मंगलं गोदमो गणी।*  *मंगलं कोण्डकुंदाइं, जेण्ह धम्मोत्थु मंगलं॥*  [ मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी। मंगलं कुन्दकुन्दाद्यो, जैनधर्मो$स्तु मंगलम्॥ ] अर्थ