Skip to main content

इस घटना के माध्यम से मैं कुछ कहना चाहता हूँ---/////

इस घटना के माध्यम से मैं कुछ कहना चाहता हूँ ......................

हमने दूसरे समुदाय से क्या सीखा ?और उन्हें क्या सिखाया ?

                                        -  डॉ अनेकांत कुमार जैन ,नई दिल्ली

 मैं आपको एक नयी ताज़ा सत्य घटना सुनाना चाहता हूँ और उसके माध्यम से बिना किसी निराशा के कुछ कहना भी चाहता हूँ | शायद आप समझ जाएँ |

 अभी मेरा दिल्ली में लोधी कॉलोनी में आयोजित एक सर्व धर्म संगोष्ठी में जाना हुआ | जैन धर्म की तरफ से मुझे प्रतिनिधित्व करना था | वह एक राउंड टेबल परिचर्चा थी जिसमें भाषण देने देश के विभिन्न धर्मों के लगभग २४-२५ प्रतिनिधि पधारे थे | अध्यक्ष महोदय ने सभा प्रारंभ की और सभी को वक्तव्य देने से पहले एक शर्त लगा दी कि आपको अपने धर्म के बारे में कुछ नहीं कहना है | आपको अपने से इतर किसी एक धर्म के समुदाय से आपने कौन सी अच्छी बात सीखी सिर्फ यह बताना है | जाहिर सी बात है मेरी तरह सभी अपने धर्म की विशेषताएं बतलाने के आदी थे और अचानक ये नयी समस्या ? खैर सभी ने खुद को किसी तरह तैयार किया इस अनोखे टास्क के लिए | जो हिन्दू धर्म का विद्वान् था उसने इस्लाम की प्रशंसा करके उनकी एक खूबी बताई जिससे वे प्रभावित थे ,एक मुस्लिम विद्वान् ने वेदांत दर्शन की एक खूबी बतलाई जिससे वे प्रभावित हुए | मैंने सिक्ख समुदाय की एक विशेषता बतलाई जिससे मैं प्रभावित हुआ था | इस तरह सभी ने सभी धर्मों की खूबियों का बखान किया ,किसी धर्म को नहीं छोड़ा |ऐसे धर्म तक चर्चा में आये जो भारत में हैं ही नहीं ,या नाम मात्र के हैं |

यह छुपाने वाली बात नहीं है कि मैं मन ही मन मैं सभी धर्म के प्रतिनिधियों की बातें ध्यान पूर्वक इसलिए सुनता रहा और तरसता रहा कि कोई तो ऐसा होगा जो ये कहेगा कि मैं जैन धर्म और समुदाय से प्रभावित हुआ ,मैंने उनसे यह एक अच्छी बात सीखी | टेबल पर पूरा राउंड होने को था लगभग सभी धर्म समुदाय कवर हो लिए थे | लेकिन अंतिम वक्ता को सुनने के बाद मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा कि उस सभा में बैठे अपने अपने धर्मों के शीर्ष विद्वानों में से किसी ने सहजता से भी जैन धर्म का जिक्र तक नहीं किया |

मैं स्तब्ध था, जैन समाज के धर्म प्रभावना के सभी धन और समय के खर्चीले कार्यक्रमों के बारे में सोच रहा था | हमने कितनी महावीर जयंतियां मना लीं,कितने जन्म दिवस और दीक्षा दिवस मना लिए,कितने पञ्चकल्याणक हो लिए ,सेवा के लिए कितने स्कूल,कॉलेज,अस्पताल बना डाले,लाखों संस्थाएं बना डालीं  और इसके बदले आज ये देखने को मिल रहा है कि अन्य धर्मों के किसी एक प्रतिनिधि ने भी कुछ नया सीखने को लेकर जैन धर्म ,समुदाय को प्राथमिकता पर नहीं रक्खा | मुझे लगा कुछ परिचित प्रतिनिधियों से चुपचाप कह दूँ कि आप जैन का बताना ताकि इज्जत बच जाए ,लेकिन मैं शांत रहा | मैंने सोचा नहीं ,ये आज हमारी परीक्षा का सही मौका है | सभी स्वतंत्रता से बोल रहे हैं |उन्हें अपने मन से निर्णय करके बोलने दो ,तो ही ठीक रहेगा |

हम तो अपने गिरेबान में झांकेंगे कि आखिर ऐसी कौन सी भूल हम से हो रही है कि हमारी प्रभावना सिर्फ हम तक ही सीमित है ?क्या हम ऐसा कुछ नहीं कर पाए कि दूसरे हमारे धर्म से दिल से प्रभावित हो ? ये सब अंतर्द्वन्द्व मेरे भीतर चल ही रहा था कि सभा समाप्ति की ओर आ गयी और अध्यक्ष जी को अध्यक्षीय देना था | मैंने मानस बनाया कि यदि इन्होंने भी कुछ नहीं बोला तो फिर मैं निवेदन करूँगा | अध्यक्ष जी मेरी मनः स्थिति शायद भांप गए और विनम्र शब्दों में सभी का धन्यवाद दिया और निवेदन किया कि एक जैन धर्म हममें से किसी ने नहीं ले पाया अतः मैं विराम लेने से पूर्व आप से गुजारिश करता हूँ कि डॉ जैन को छोड़ कर अन्य कोई प्रतिनिधि  इस धर्म के बारे में भी बताये कि आपने जैनों से क्या सीखा ? चूंकि हम सभी धर्मों को साथ लेकर चल रहे हैं अतः इस धर्म पर भी चर्चा थोड़ी देर कर दें | उनके निवेदन के उपरान्त सभी ने सांत्वना के रूप में अहिंसा ,अनेकांत आदि सिद्धांतों की प्रशंसा कर डाली | मैंने भी कुछ राहत महसूस की और सभा समाप्त हो गयी |   

सभा तो समाप्त हो गयी लेकिन मैं अन्दर से हिल गया और अभी तक चिंतन मनन कर रहा रहूँ | आत्मनिरीक्षण कर रहा हूँ | किसी की निंदा या स्तुति के मूड में भी नहीं हूँ | पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा है कि हम किसी निरर्थक आत्मप्रवंचना के शिकार होते जा रहे हैं |अपने ही साथ भारी भरकम छल सा कर रहे हैं | दूसरों को अपने रंग में रंगने की कला विकसित करने की जगह सिर्फ मूर्तियाँ रंग रहे हैं , भगवानों को नहलाये जा रहे हैं लेकिन किसी को भी भिगो नहीं पा रहे हैं | पुण्य पाप की स्वार्थी और बाजारू व्याख्याएं कर रहे हैं | कषायों के कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं और खुश हो रहे हैं कि हम सबसे शुद्ध और अच्छे हैं |हम आध्यात्मिक दिखाई तो देना चाहते हैं ,होना नहीं चाहते और प्रयास भी नहीं करते |

हो सकता है यह घटना तात्कालिक एक संजोग मात्र हो | हर समय हर किसी के साथ जरूरी नहीं कि ऐसा अनुभव हो | मेरे साथ भी ऐसा पहली बार ही हुआ है | लेकिन सोचना तो पड़ेगा | आपके पास समय हो तो आप भी विचार कीजिये  .................

कुछ समझ आता नहीं कैसी हो रही हैं साजिशें |

भीगता कुछ भी नहीं और हो रहीं हैं बारिशें ||

यदि आप भी इस विषय में कुछ कहना चाहते हैं तो मुझेdrakjain2016@gmail.comपर ईमेल कर सकते हैं | 

Comments

Popular posts from this blog

जैन ग्रंथों का अनुयोग विभाग

जैन धर्म में शास्त्रो की कथन पद्धति को अनुयोग कहते हैं।  जैनागम चार भागों में विभक्त है, जिन्हें चार अनुयोग कहते हैं - प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग।  इन चारों में क्रम से कथाएँ व पुराण, कर्म सिद्धान्त व लोक विभाग, जीव का आचार-विचार और चेतनाचेतन द्रव्यों का स्वरूप व तत्त्वों का निर्देश है।  इसके अतिरिक्त वस्तु का कथन करने में जिन अधिकारों की आवश्यकता होती है उन्हें अनुयोगद्वार कहते हैं। प्रथमानुयोग : इसमें संयोगाधीन कथन की मुख्यता होती है। इसमें ६३ शलाका पुरूषों का चरित्र, उनकी जीवनी तथा महापुरुषों की कथाएं होती हैं इसको पढ़ने से समता आती है |  इस अनुयोग के अंतर्गत पद्म पुराण,आदिपुराण आदि कथा ग्रंथ आते हैं ।पद्मपुराण में वीतरागी भगवान राम की कथा के माध्यम से धर्म की प्रेरणा दी गयी है । आदि पुराण में तीर्थंकर आदिनाथ के चरित्र के माध्यम से धर्म सिखलाया गया है । करणानुयोग: इसमें गणितीय तथा सूक्ष्म कथन की मुख्यता होती है। इसकी विषय वस्तु ३ लोक तथा कर्म व्यवस्था है। इसको पढ़ने से संवेग और वैराग्य  प्रकट होता है। आचार्य यति वृषभ द्वारा रचित तिलोयपन्नत्ति में तीन लोक तथा उ

सम्यक ज्ञान का स्वरूप

*सम्यक ज्ञान का स्वरूप*  मोक्ष मार्ग में सम्यक ज्ञान का बहुत महत्व है । अज्ञान एक बहुत बड़ा दोष है तथा कर्म बंधन का कारण है । अतः अज्ञान को दूर करके सम्यक ज्ञान प्राप्त करने का पूर्ण प्रयास करना चाहिए । परिभाषा -  जो पदार्थ जैसा है, उसे वैसे को वैसा ही जानना, न कम जानना,न अधिक जानना और न विपरीत जानना - जो ऍसा बोध कराता है,वह सम्यक ज्ञान है । ज्ञान जीव का एक विशेष गुण है जो स्‍व व पर दोनों को जानने में समर्थ है। वह पा̐च प्रकार का है–मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय व केवलज्ञान। अनादि काल से मोहमिश्रित होने के कारण यह स्‍व व पर में भेद नहीं देख पाता। शरीर आदि पर पदार्थों को ही निजस्‍वरूप मानता है, इसी से मिथ्‍याज्ञान या अज्ञान नाम पाता है। जब सम्‍यक्‍त्व के प्रभाव से परपदार्थों से भिन्न निज स्‍वरूप को जानने लगता है तब भेदज्ञान नाम पाता है। वही सम्‍यग्‍ज्ञान है। ज्ञान वास्‍तव में सम्‍यक् मिथ्‍या नहीं होता, परन्‍तु सम्‍यक्‍त्‍व या मिथ्‍यात्‍व के सहकारीपने से सम्‍यक् मिथ्‍या नाम पाता है। सम्‍यग्‍ज्ञान ही श्रेयोमार्ग की सिद्धि करने में समर्थ होने के कारण जीव को इष्ट है। जीव का अपना प्रतिभास तो निश

जैन चित्रकला

जैन चित्र कला की विशेषता  कला जीवन का अभिन्न अंग है। कला मानव में अथाह और अनन्त मन की सौन्दर्यात्मक अभिव्यक्ति है। कला का उद्भव एवं विकास मानव जीवन के उद्भव व विकास के साथ ही हुआ है। जिसके प्रमाण हमें चित्रकला की प्राचीन परम्परा में प्रागैतिहासिक काल से ही प्राप्त होते हैं। जिनका विकास निरन्तर जारी रहा है। चित्र, अभिव्यक्ति की ऐसी भाषा है जिसे आसानी से समझा जा सकता है। प्राचीन काल से अब तक चित्रकला की अनेक शैलियां विकसित हुईं जिनमें से जैन शैली चित्र इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। जैन चित्रकला के सबसे प्राचीन चित्रित प्रत्यक्ष उदाहरण मध्यप्रदेश के सरगुजा राज्य में जोगीमारा गुफा में मिलते है। जिसका समय दूसरी शताब्दी ईसापूर्व है।१ ग्यारहवीं शताब्दी तक जैन भित्ति चित्र कला का पर्याप्त विकास हुआ जिनके उदाहरण सित्तनवासल एलोरा आदि गुफाओं में मिलते है। इसके बाद जैन चित्रों की परम्परा पोथी चित्रों में प्रारंभ होती है और ताड़पत्रों, कागजों, एवं वस्त्रों पर इस कला शैली का क्रमिक विकास होता चला गया। जिसका समय ११वीं से १५वी शताब्दी के मध्य माना गया। २ जैन धर्म अति प्राचीन एवं अहिंसा प्रधान