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हमारी क्रियाएं और अध्यात्म

हमारी क्रियाएं और अध्यात्म 

डॉ अनेकांत कुमार जैन
२/०७/२०२०

मुंडन वाले प्रसंग में मैंने जानबूझ कर मिथ्यात्व वाली टिप्पणी की थी ,उसका यह सुखद परिणाम रहा कि इतनी अच्छी चर्चा सामने आयी ,जैसा मैं चाहता था ।


जैन परम्परा में कई क्रियाएं मौलिक हैं किन्तु बाद में अन्य परम्परा ने उसे अपने नाम से अपना लिया ,बहुमत के फल स्वरूप वे उनके नाम से प्रसिद्ध हो गईं ।उन्होंने उस क्रिया में अपने मिथ्या
परिणाम और अभिप्राय संयोजित कर दिए इसलिए जैनों ने उस रूप क्रिया को ही इस भय से छोड़ दिया कि कहीं ये हमारे सम्यक्तव में ही दोष उत्पन्न न कर दे ।

कालांतर में ये उन्हीं की क्रियाएं बन गईं । 

जैसे मूर्ति पूजा वैदिकों की मूल नहीं हैं , श्रमण परम्परा की है ,हमसे उनमें गई है ,लेकिन आज हमसे ज्यादा उनकी ही हो गई है । 
स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश में यह स्पष्ट लिखा है कि ' मूर्ति पूजा जैसी विकृति जैनों से सनातन धर्म में अाई है ।

अब जब वहां मूर्ति पूजा थी ही नहीं ,तब सिंधु सभ्यता में योगी मुद्रा में बैठी मूर्ति जो कि कुछ विद्वानों ने ऋषभदेव की बतलाई है , वे शिव की बतला कर योग विद्या का जनक शिव को बतलाते हैं ।
और
बहुमत और बाहुबल सत्य पर अक्सर भारी ही पड़ता है । 

हमने अपनी बहुत सी दैनिक क्रियाओं का ,परंपराओं का मिथयात्व के भय से  जो त्याग किया है , वे हमारे सांस्कृतिक वैभव और समकालीन सामाजिक और भौगोलिक संस्कृति की प्रतीक थी और कई अर्थों में बहुत जरूरी थीं । 

हमारी आगे की पीढ़ी उन क्रियाओं के बदले पाश्चात्य क्रियाओं में ही जा रही है ।

आम
समाज हमेशा साधारण होता है ,वह क्रिया को ही धर्म मानता है और यही सोच कर करता है ।उन्हीं में से कुछ होते हैं जो ज्ञान से जुड़ते हैं ,अध्यात्म से जुड़ते हैं और यदि स्वच्छंदी नहीं हुए तो उपचार से ही क्रियाओं को संपन्न करते हैं किन्तु उसे मात्र साधन मानते हैं साध्य नहीं ।

ज्ञानी के क्रियाओं को हेय आदि कहने के तर्क आदि  से आम समाज क्रिया छोड़ देती हैं और ज्ञान अध्यात्म में भी 
नहीं जुड़ती । फल स्वरूप भटक जाती है और कहीं की नहीं रह जाती । 

विरले ही होते हैं जो दोनों का संतुलन बैठा पाते हैं ।

किसी और को क्या देखें ,हमारी स्वयं धर्म में रुचि बचपन में एक प्रभात फेरी के संचालन रूप क्रियाओं से ही हुई थी , बिना किसी ज्ञान के ।बाद में उसी माध्यम से ज्ञान तक पहुंचे , अब भले ही उस क्रिया में उतनी रुचि नहीं है लेकिन उसकी उपादेयता भावी पीढ़ी के लिए मैं जरूरी मानता हूं । 

 

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