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Showing posts from March, 2022

गहोई समाज और जैन

*गहोई समाज सत्य के आलोक में* -    गौरव जैन            gouravj132@gmail.com      भारत के इतिहास को पीछे मुड़कर देखते हैं तो उसके कई उजले पक्ष सामने आते हैं जिनकी आज हमें कोई खबर नहीं है, इतिहासविद् भी उन पक्षों से अपरिचित से मालूम पड़ते हैं,ऐसा ही इतिहास है गहोई समाज का।      बुंदेलखंड-चंबल क्षेत्र के गांवों-कस्बों में व्यापार व कृषि रुप उत्तम अहिंसक आजीविका के माध्यम से अपना जीवन निर्वाह करने वाली यह जाति आज अपने मूल मार्ग से इस कदर दूर हो गई है अब मूल केवल इनके द्वारा बनवाए मंदिर और मूर्तियों में बचा है।        बुंदेलखंड क्षेत्र जैन-धर्म का अति प्राचीन क्षेत्र है,यहां कई अतिप्राचीन सिद्धक्षेत्र,अतिशय क्षेत्र,जिनालय है जो प्रागैतिहासिक काल से जैनधर्म की यशोगाथा गा रहे हैं, जिनमें द्रोणगिरि,नैनागिरि,नवागढ़,आहार आदि प्रमुख हैं।     गहोई समाज मूलतः जैन-धर्म अनुयायी समाज रहा है,इस समाज ने प्राचीन काल में जैन-धर्म के उत्थान में बहुत भूमिका निभाई है,भारत के सबसे पुराने वैश्यों(व्यापारियों) में ...

मानवजीवन के प्रथम सूत्रधार हैं भगवान् ऋषभदेव

*मानवजीवन के प्रथम सूत्रधार हैं भगवान् ऋषभदेव* आज चैत्र कृष्ण नवमी को भगवान् ऋषभदेव की जन्मजयन्ती है । सभी जैनधर्मानुयायियों के द्वारा आज के दिन हर्षोल्लास और उत्सव पूर्वक भगवान् ऋषभदेव का जन्मकल्याणक मनाया जाता है । जैनधर्म के चौबीस तीर्थंकरों में भगवान् ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर हैं । इन्हें आदिनाथ और वृषभदेव भी कहा जाता है । भगवान् ऋषभदेव के चरित्र का प्रामाणिक वर्णन आचार्य जिनसेन(सातवीं शती ईस्वी) द्वारा संस्कृत भाषा में रचित आदिपुराण में प्राप्त होता है । भगवान् ऋषभदेव अवसर्पिणी सृष्टि के सुखमादुःखमा नामक तृतीयकाल में हुए थे ।  तीर्थंकर ऋषभदेव का जन्म अयोध्या में इक्ष्वाकु वंश में हुआ था । उनके पिता राजा नाभिराय और माता रानी मरुदेवी थीं । श्री ऋषभदेव की आयु चौरासी लाख पूर्व और शरीर की अवगाहना पाँच सौ धनुष थी । युवा अवस्था में आपका विवाह नन्दा और सुनन्दा नामक दो कन्याओं से हुआ था । महारानी नन्दा से भरत चक्रवर्ती आदि निन्यानबे पुत्र और ब्राह्मी नामक पुत्री का जन्म हुआ था और रानी सुनन्दा से बाहुबलि नामक पुत्र और सुन्दरी नामक पुत्री का जन्म हुआ था । जिस समय तीर्थंकर ऋषभदेव राज्यपद पर ...

जैन दर्शन के प्रमुख ग्रंथ

*☝️जैन धर्म के मुख्य प्राचीन ग्रंथ ( मुख्य मूल शास्त्र ) 2000 वर्ष पूर्व से लेकर 100 वर्ष पूर्व तक के‌ प्रमुख जैन ग्रंथाधिराज और उनके रचयिता* 📖 1. षट्खंडागम - आचार्य पुष्पदंतजी, आचार्य भूतबलिजी 2. समयसार - आचार्य कुंदकुंदजी 3. नियमसार - आचार्य कुंदकुंदजी 4. प्रवचनसार - आचार्य कुंदकुंदजी 5. अष्टपाहुड़ - आचार्य कुंदकुंदजी 6. पंचास्तिकाय - आचार्य कुंदकुंदजी 7. रयणसार - आचार्य कुंदकुंदजी 8. दश भक्ति - आचार्य कुंदकुंदजी 9. वारसाणुवेक्खा - आचार्य कुंदकुंद 10. तत्त्वार्थसूत्र - आचार्य उमास्वामीजी 11. आप्तमीमांसा - आचार्य समन्तभद्रजी 12. स्वयंभू स्तोत्र - आचार्य समन्तभद्रजी 13. रत्नकरण्ड श्रावकाचार - आचार्य समन्तभद्रजी 14. स्तुति विद्या - आचार्य समन्तभद्रजी 15. युक्त्यनुशासन - आचार्य समन्तभद्रजी 16. तत्त्वसार - आचार्य देवसेनजी 17. आराधना सार - आचार्य देवसेनजी 18. आलाप पद्धति - आचार्य  देवसेनजी 19. दर्शनसार - आचार्य  देवसेनजी 20. भावसंग्रह - आचार्य  देवसेनजी 21. लघु नयचक्र - आचार्य  देवसेनजी 22. इष्टोपदेश - आचार्य पूज्यपादजी (देवनन्दी) 23. समाधितंत्र - आचार्य पूज्यपादजी (देवन...

होली का वास्तविक स्वरूप

होली का प्राकृतिक स्वरूप  होली पर कुछ आम जिज्ञासाएं रहती है कि होली क्यों होती है ?   भारतीय होली किसे कहते है ?  भारतीय होली कैसे मनाई जाती है?  होलिका का वैज्ञानिक कारण क्या है ? होली ऐतिहासिक  है या प्राकृतिक पर्व ? इस लेख में इन सभी जिज्ञासाओं पर तटस्थ भाव से विचार करेंगे क्यों कि होली जैसे प्राकृतिक और सामाजिक त्योहार को सम्प्रदाय और मनगढ़ंत कहानियों में बांट कर हमने उसका स्वरूप सीमित कर दिया है ।  कालांतर में उसमें हिंसा,मांसाहार,नशा, असभ्यता और अश्लीलता का समावेश होने से उसे सभ्य और उच्च वर्ग के लोगों ने मनाना भी छोड़ दिया है । होली की प्राकृतिक स्वाभाविकता उस कृषिप्रधान देश का उत्सव है जहाँ ऋतुएं और फसलें ही त्योहार का आधार होती रहीं हैं ।  होली का यथार्थ -  अग्नि में भूने हुए अधपके फली युक्त फसल को होलक (होला) कहते हैं । अर्थात् जिन पर छिलका होता है जैसे हरे चने आदि। भारत देश में ऋतु के अनुसार, _दो मुख्य प्रकार की फसलें होती हैं ।_ भारतीय फसलें तथा उनका वर्गीकरण - १. ख‍रीफ फसलें : धान, बाजरा, मक्‍का, कपास, मूँगफली, शकरकन्‍द, उर्द, मूँग...

नंदीश्वरद्वीप और अष्टाह्निका महापर्व

🌹 *नंदीश्वरद्वीप और अष्टाह्निका महापर्व*                         ✍️ डॉ रंजना जैन दिल्ली            *मध्यलोक के बीचो-बीच 1 लाख योजन विस्तार वाला 'जंबूद्वीप' है। उस जंबूद्वीप को चारों ओर से घेरता हुआ 2 लाख योजन वलयाकार 'लवण समुद्र' है। लवण-समुद्र के चारों ओर 4 लाख योजन विस्तृत 'घातकीखंड' नाम का दूसरा-द्वीप है। घातकीखंड-द्वीप को घेरता हुआ 8 लाख योजन 'कालोदधि' नाम का समुद्र है। कालोदधि-समुद्र को घेरता हुआ 16 लाख योजन विस्तार वाला 'पुष्कर-द्वीप' है। जिसके मध्य में 'मानुषोत्तर-पर्वत' है, जिसके बाद मनुष्यों का आवागमन नहीं है। इसके आगे केवल चतुर्निकाय के देव ही जा सकते हैं। इसीप्रकार क्रमश: एक समुद्र और एक द्वीप की रचना के क्रम में आठवाँ द्वीप 'नंदीश्वर-द्वीप' है।*        *'नंदीश्वर-द्वीप' का कुल विस्तार 163 करोड़ 84 लाख योजन प्रमाण है। इसके बहुमध्य भाग में पूर्व-दिशा की ओर काले रंग का एक 'अंजनगिरि पर्वत' है, जो कि 84 हजार योजन ऊँचा है। जिसकी आकृति ढ़ोलक के समान गोल है। उस अंजनगिरि के ...

कविवर संतलाल और सिद्धचक्र विधान

*कविवर संतलाल जी  और सिद्धचक्र विधान का संक्षिप्त परिचय* 🍁 - डाँ. अशोक जैन गोयल, दिल्ली           *जन्म एवं जन्म स्थान* 🍁 कविवर संतलालजी का जन्म सन् 1834 में नकुड(सहारनपुर,उ.प्र.) निवासी लाला शीलचंद जी के परिवार में हुआ। *देहपरिवर्तन* 🍁 कविवर संतलाल जी का देहपरिवर्तन सन् 1886 में 52 वर्ष की आयु में समाधि -भावना पूर्वक हुआ । *शिक्षा* 🍁 आरंभिक शिक्षा नकुड (सहारनपुर) में की, बाद में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए रूड़की (उत्तराखंड) के थामसन कालेज में अध्ययन किया। स्वत: स्वाध्याय के बल से शास्त्र अभ्यास में विशेष दक्ष थे, वे अल्प आयु में ही जिनागम के मर्मज्ञ बन गये थे। जिनागम के गहन अध्ययन से वे अध्यात्मविद्या में विशेष पारंगत हो गये थे। *कृतित्व* 🍁 उन्होंने अनेकों बार अन्य मतावलंबियों के साथ शास्त्रार्थ किया और जिनधर्म की सत्यता /महत्ता को उत्तर भारत में सब जगह प्रचारित किया। उनके सत्य संभाषण से सभी जगह जिनधर्म का प्रचार-प्रसार हुआ। उन्होंने जैन धर्मावलंबियों में प्रचलित अनेकों कुरीतियों को समाप्त किया। *उस समय उत्तर भारत में प्राय: हिंदू रीति-रिवाज...