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नंदीश्वरद्वीप और अष्टाह्निका महापर्व

🌹 *नंदीश्वरद्वीप और अष्टाह्निका महापर्व*
                        ✍️ डॉ रंजना जैन दिल्ली 

          *मध्यलोक के बीचो-बीच 1 लाख योजन विस्तार वाला 'जंबूद्वीप' है। उस जंबूद्वीप को चारों ओर से घेरता हुआ 2 लाख योजन वलयाकार 'लवण समुद्र' है। लवण-समुद्र के चारों ओर 4 लाख योजन विस्तृत 'घातकीखंड' नाम का दूसरा-द्वीप है। घातकीखंड-द्वीप को घेरता हुआ 8 लाख योजन 'कालोदधि' नाम का समुद्र है। कालोदधि-समुद्र को घेरता हुआ 16 लाख योजन विस्तार वाला 'पुष्कर-द्वीप' है। जिसके मध्य में 'मानुषोत्तर-पर्वत' है, जिसके बाद मनुष्यों का आवागमन नहीं है। इसके आगे केवल चतुर्निकाय के देव ही जा सकते हैं। इसीप्रकार क्रमश: एक समुद्र और एक द्वीप की रचना के क्रम में आठवाँ द्वीप 'नंदीश्वर-द्वीप' है।*

       *'नंदीश्वर-द्वीप' का कुल विस्तार 163 करोड़ 84 लाख योजन प्रमाण है। इसके बहुमध्य भाग में पूर्व-दिशा की ओर काले रंग का एक 'अंजनगिरि पर्वत' है, जो कि 84 हजार योजन ऊँचा है। जिसकी आकृति ढ़ोलक के समान गोल है। उस अंजनगिरि के चारों ओर एक लाख योजन विस्तार वाली चार 'वापियाँ'/बाबड़ियाँ हैं। प्रत्येक वापी की चारों दिशाओं में एक-एक लाख योजन विस्तार वाले अशोक, सप्तच्छद, चम्पक और आम्र नाम के चार सुंदर 'वन' हैं। इस प्रकार नंदीश्वर-द्वीप की एक दिशा में 16 वन हैं। प्रत्येक वापी में सफेद रंग का एक-एक 'दधिमुख पर्वत' है, जिसकी ऊँचाई दस हजार महायोजन है। ये दधिमुख पर्वत इतने मनमोहक हैं कि इनको देखते ही सुख की अनुभूति होती है। प्रत्येक वापी के बाह्य दोनों कोनों पर लाल रंग के दो-दो 'रतिकर पर्वत' हैं। इन रतिकर पर्वतों के बाहरी हिस्सें में जिनमंदिर है, और आभ्यांतर हिस्से पर देव क्रीड़ा करते हैं।*

        *इस प्रकार एक दिशा में एक अंजनगिरि, चार दधिमुख, आठ रतिकर ये सब मिलाकर कुल तेरह (13) पर्वत होते हैं। इनके ऊपर 13 जिनमंदिर स्थित हैं। इसी प्रकार शेष तीनों दिशाओं में भी पर्वत, वापी, वनों और जिनमंदिर की रचना है। इस प्रकार कुल मिलाकर 4 अंजनगिरि, 16 दधिमुख और 32 रतिकर सहित 52 पर्वत हैं। जिन पर अति सुन्दर 52 अकृत्रिम जिनमंदिर स्थित हैं।*

       *प्रत्येक जिनालय में अतिभव्य 108 रत्नमयी अकृत्रिम जिनबिम्ब विराजमान हैं। जिनको देखकर समस्त देव और देवियाँ अति-हर्षित होती हैं। एक-एक जिनबिम्ब की ऊँचाई 500 धनुष है, और सभी जिनबिम्ब पद्मासन मुद्रा में विराजमान हैं।* कविवर  'द्यानतराय जी' के शब्दों में -- 
       *बिंब अठ एक सौ रतनमयी सोहहीं,*
       *देव-देवी सरब नयन मन  मोहहीं।*
       *पाँचसै धनुष तन पद्म-आसन परं।।*

          *इन रत्नमयी जिनबिम्बों के मुख और नाखून लाल है, नेत्र श्याम और श्वेत हैं, मुख पर श्याम रंग की भौंह और सिर पर श्याम रंग के केशों की सुन्दर छवि विद्यमान है। इन प्रतिमाओं का रूप इतना मोहक है कि देखकर लगता है कि मानो अभी परमात्मा की वाणी खिरने वाली है। चेहरे पर बिखरी मुस्कान देखते ही मन की सारी कलुषता को एक क्षण में ही धो देती है।* कवि के शब्दों में --
     *लाल नखमुख नयन श्याम और श्वेत हैं।*
        *श्याम रंग भौंह सिर केश छवि देत हैं।*
        *वचन बोलत मनों हसत कालुष हरं।।*

       कविवर कहते हैं कि *करोड़ों सूर्य का प्रकाश भी इन प्रतिमाओं की छवि के आगे फीका लगता है। इनके दर्शन मात्र से ही वैराग्य की भावना प्रबल होती है। इन जिनबिम्बों की सुंदरता का वर्णन तो वचनातीत हैं, परन्तु इनको देखने मात्र से ही जीव को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जाती है।* कवि के शब्दों में --
        *कोटि-शशि-भानु-दुति-तेज छिप जात है,*
        *महा-वैराग्य   परिणाम   ठहरात   है।*
        *वयन नहिं कहैं लखि होत सम्यकधरं।।*    

        *नंदीश्वर द्वीप पर स्थित इन 52 अकृत्रिम जिनालयों वर्ष में तीन बार अर्थात् कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़ माह के अंतिम आठ-दिनों में चतुर्निकाय के देव बड़ी धूमधाम से पूजन-वंदना करने जाते हैं। उन दिनों को हम सभी 'अष्टाह्निका पर्व' के नाम से जानते हैं। 'तिलोयपण्णत्ति' में 'आचार्य यतिवृषभ' लिखते हैं --*
*वरिसे वरिसे चहुविहदेवा णंदीसरम्मि दीवम्मि।*
*आसाढकत्तिएसुं फग्गुणमासे समायंति।।83।।* 
               
        *चारों दिशाओं में विराजमान जिनालयों और जिनबिम्बों में कल्पवासी देव पूर्व दिशा में, भवनवासी देव दक्षिण दिशा में, व्यंतर जाति के देव पश्चिम दिशा में, और ज्योतिषी देव उत्तर दिशा में अपने मुख से सुंदर स्तोत्रों का उच्चारण करते हुए अपनी-अपनी विभूति के योग्य महिमा, पूजन, वंदन आदि करते हैं।* आचार्य देव के शब्दों में -- 
*पुव्वाए कप्पवासी भवणसुरा दक्खिणाए वेंतरया।*
*पच्छिमदिसाए तेसुं जोइसिया उत्तरदिसाए।।*
                           (गाथा नं. 100)
*णियणियविभूदिजोग्गं महिमं कुव्वंति थोत्तबहलमुहा।*
*णंदीसरजिणमंदिरजत्तासुं विउलभत्तिजुदा।।*
                           (गाथा नं. 101)

        *ये देव अष्टमी से लेकर पूर्णिमा तक दिन में चार बार भक्ति पूर्वक अकृत्रिम जिनालयों में विराजमान जिनबिम्बों की भाव सहित पूजन-वंदना करते हैं।*

         *इन असंख्यात द्वीप-समुद्रों की रचना में हम मनुष्य-गति के जीव केवल ढाई-द्वीप में ही विचरण करते हैं। बीचों-बीच मानुषोत्तर पर्वत की रचना होने से इससे बाहर जाने की सामर्थ्य हमारी नहीं है, इसलिए हम सभी इन आठ-दिनों में यहीं भरतक्षेत्र में रहकर ही बड़ी धूमधाम और उत्साह पूर्वक पूजन विधानादि के माध्यम से 'नंदीश्वर द्वीप' में विराजमान जिन-चैत्य-चैत्यालयों की भावों से ही वंदना करते हैं। आगम में अष्टाह्निका और दशलक्षण महापर्व को शाश्वत पर्व माना गया है।* कविवर 'द्यानतराय जी' के शब्दों में --
       *"सरब-परव में बड़ो  अठाईं-परव है,*
        *नंदीश्वर सुर जाहिं लेहि वसु दरब है।*
        *हमें सकति सो नाहीं इहाँ करि थापना,*
        *पूजैं जिनगृह प्रतिमा है हित आपना।।"*

    *अकृत्रिम जिनालयों में विराजमान समस्त जिनबिम्बों को मेरा बारम्बार नमन*
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