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होली का वास्तविक स्वरूप

होली का प्राकृतिक स्वरूप 

होली पर कुछ आम जिज्ञासाएं रहती है कि होली क्यों होती है ? 

 भारतीय होली किसे कहते है ?

 भारतीय होली कैसे मनाई जाती है? 

होलिका का वैज्ञानिक कारण क्या है ?

होली ऐतिहासिक  है या प्राकृतिक पर्व ?


इस लेख में इन सभी जिज्ञासाओं पर तटस्थ भाव से विचार करेंगे क्यों कि
होली जैसे प्राकृतिक और सामाजिक त्योहार को सम्प्रदाय और मनगढ़ंत कहानियों में बांट कर हमने उसका स्वरूप सीमित कर दिया है । 

कालांतर में उसमें हिंसा,मांसाहार,नशा, असभ्यता और अश्लीलता का समावेश होने से उसे सभ्य और उच्च वर्ग के लोगों ने मनाना भी छोड़ दिया है ।

होली की प्राकृतिक स्वाभाविकता उस कृषिप्रधान देश का उत्सव है जहाँ ऋतुएं और फसलें ही त्योहार का आधार होती रहीं हैं । 

होली का यथार्थ - 

अग्नि में भूने हुए अधपके फली युक्त फसल को होलक (होला) कहते हैं । अर्थात् जिन पर छिलका होता है जैसे हरे चने आदि।

भारत देश में ऋतु के अनुसार, _दो मुख्य प्रकार की फसलें होती हैं ।_
भारतीय फसलें तथा उनका वर्गीकरण -
१. ख‍रीफ फसलें : धान, बाजरा, मक्‍का, कपास, मूँगफली, शकरकन्‍द, उर्द, मूँग, मोठ लोबिया (चँवला), ज्‍वार, तिल, ग्‍वार, जूट, सनई, अरहर, ढैंचा, गन्‍ना, सोयाबीन, भिण्डी
२. रवि फसलें : गेहूँ, जौं, चना, सरसों, मटर, बरसीम, रिजका, मसूर, आलू, लाही, जंई।

रवि की फसल में आने वाले सभी प्रकार के अन्न को होला कहते है।

वासन्तीय नवसस्येष्टि होलकोत्सव" वसन्त ऋतु में आई हुई रवि की नवागत फसल को होम/हवन में डालकर फिर श्रद्धापूर्वक ग्रहण करने का नाम होली है।

यह पर्व प्राकृतिक है, ऐतिहासिक नहीं है।और बाद में होला से ही होली बना है।प्रह्लाद-होलिका वाला दृष्टान्त आलंकारिक है । इस दृष्टांत को होली पर्व से ऐतिहासिक रूप से जोड़ना अनुपयुक्त है।

कोई भी व्यक्ति  कितना भी पुण्यात्मा हो या पापी हो, अग्नि में बैठेगा तो वह जल जाएगा क्योंकि अग्नि का काम जलाना है, वह किसी का तप, निष्ठा धर्म नहीं पूछती।और यदि होलिका प्रहलाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठी थी तो दोनों जलने चाहिएँ परंतु ऐसा नहीं हुआ।इस दृष्टांत को होली के साथ ऐतिहासिक रूप से जोड़ने से कोई लाभ नहीं है।

 होली एक प्राकृतिक पर्व है, भौगोलिक पर्व है।

होली मनाने का सही विधान, वसन्त ऋतु के नये अन्न को दान देकर ग्रहण करना है।क्योंकि भारतीय संस्कृति दान देकर, बाँट कर खाने में विश्वास करती है।

 वेदों  में  भी  कहा है - केवलाघो भवति केवलादी" अर्थात् अकेला खानेवाला पापी होता है।इसलिए प्रसन्नतापूर्वक बाँट कर खाना चाहिए।

होली के दूसरे दिन जो रंग खेलने की प्रथा है वह भी एक प्राकृतिक उत्सव है।आपस में मेल -मिलाप को बढ़ाना, एक दूसरे का सम्मान करना, एक दूसरे के साथ प्रेम करना, किसी के प्रति मन दुःखी हो या लड़ाईं हो गया हो तो उसको भूलकर  एक दूसरे को प्रकृति के उपहार स्वरुप प्रदत्त वसंत ऋतु में आए हुए नए फूलों का चूर्ण करके उसका रंग बनाकर सभ्यता से प्रसन्नता पूर्वक बिना किसी को परेशान किए लगाना और सम्मान करना चाहिए।यह कार्य भी प्रेम पूर्वक करना चाहिए, द्वेषपूर्वक नहीं।जिससे कोई व्यक्ति दुखी ना हो, आपके रंग लगाने से परेशान ना हो, इसका विचार रखना चाहिए।

वसंत ऋतु में आयुर्वेद के अनुसार  वात, पित्त, कफ आदि दोषों को सम रखने के लिए होलक (नए अन्न)  को भून कर खाना चाहिए और पलाश आदि फूलों को रात्रि में पानी में डूबा कर उससे स्नान करना चाहिए।

केमिकल वाले रंगों का प्रयोग सर्वथा नहीं करना चाहिये, जो कि पर्यावरण को दूषित करता है और skin disease उत्पन्न करता है । अतः प्राकृतिक और सुरक्षित रंगों का उपयोग करना चाहिये।मूलतः किसी भी शास्त्र में रंग या कीचड़ से होली खेलने का भी विधान नहीं है जैसे दीपावली पर पटाखा फोड़ने का नहीं है । यह सब समाज द्वारा विकसित व्यवस्थाएं हैं । जब परंपराएं विकृत होती हैं तो उन्हें सुधारा जाता है न कि समाप्त किया जाता है । परंपराएं समाप्त करने से हमारी और समाज की सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक रूप से जो क्षति होती है वह अपूरणीय होती है ।

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