*मानवजीवन के प्रथम सूत्रधार हैं भगवान् ऋषभदेव*
आज चैत्र कृष्ण नवमी को भगवान् ऋषभदेव की जन्मजयन्ती है । सभी जैनधर्मानुयायियों के द्वारा आज के दिन हर्षोल्लास और उत्सव पूर्वक भगवान् ऋषभदेव का जन्मकल्याणक मनाया जाता है । जैनधर्म के चौबीस तीर्थंकरों में भगवान् ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर हैं । इन्हें आदिनाथ और वृषभदेव भी कहा जाता है । भगवान् ऋषभदेव के चरित्र का प्रामाणिक वर्णन आचार्य जिनसेन(सातवीं शती ईस्वी) द्वारा संस्कृत भाषा में रचित आदिपुराण में प्राप्त होता है । भगवान् ऋषभदेव अवसर्पिणी सृष्टि के सुखमादुःखमा नामक तृतीयकाल में हुए थे । तीर्थंकर ऋषभदेव का जन्म अयोध्या में इक्ष्वाकु वंश में हुआ था । उनके पिता राजा नाभिराय और माता रानी मरुदेवी थीं । श्री ऋषभदेव की आयु चौरासी लाख पूर्व और शरीर की अवगाहना पाँच सौ धनुष थी । युवा अवस्था में आपका विवाह नन्दा और सुनन्दा नामक दो कन्याओं से हुआ था । महारानी नन्दा से भरत चक्रवर्ती आदि निन्यानबे पुत्र और ब्राह्मी नामक पुत्री का जन्म हुआ था और रानी सुनन्दा से बाहुबलि नामक पुत्र और सुन्दरी नामक पुत्री का जन्म हुआ था । जिस समय तीर्थंकर ऋषभदेव राज्यपद पर आसीन हुए उस समय सृष्टि में आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ था । जो कल्पवृक्ष स्वतः ही मनोवाञ्छित वस्तुएं प्रदान कर रहे थे वे कल्पवृक्ष लोगों की मनोकामना पूर्ण करने में असमर्थ हो रहे थे । प्रजा अपने जीवन और जीविका दोनों के अनुत्तर यक्षप्रश्न से किंकर्तव्यविमूढ थीं । तब प्रजापति श्रीऋषभदेव ने अपने अवधिज्ञान से प्रजा को उपदेश दिया कि अब भोगभूमि की व्यवस्था का अन्त हो चुका है और कर्मभूमि का अभ्युदय हो चुका है । इसलिए मनुष्य को श्रम करके कर्मशील बनने की अनिवार्य आवश्यकता है । श्रीऋषभदेव ने प्रजा की जीविका के लिए असि,मसि,कृषि,विद्या,वाणिज्य और शिल्प नामक षट्कर्मों का उपदेश दिया था । तीर्थंकर ऋषभदेव के इस उपदेश से मनुष्यों की सामाजिक व्यवस्था का आधार निर्मित हुआ था । इसके साथ ही तीर्थंकर ऋषभदेव ने अपने पुत्रों को धनुर्विद्या आदि विविध विद्याओं की शिक्षा प्रदान की थी । अपनी पुत्री ब्राह्मी को अक्षरविद्या और पुत्री सुन्दरी को अंकविद्या के माध्यम से गणित विद्या का प्रथम उपदेश प्रदान किया था । श्रीऋषभदेव की पुत्री ब्राह्मी के नाम पर ही भारतवर्ष की सर्वाधिक प्राचीन लिपि को ब्राह्मी लिपि कहा जाता है ।श्री ऋषभदेव नारीशिक्षा और समानता के प्रथम उद्घोषक थे । श्रीऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती के कारण ही हमारा देश भारतवर्ष के रूप में प्रसिद्ध है ।
तीर्थंकर श्रीऋषभदेव ने ही सर्वप्रथम संन्यास ग्रहण करके योग और ध्यान के माध्यम से संसार के दुःखों से मोक्ष प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त किया था । इस कारण आपको इस युग का आदियोगी भी कहा जाता है । श्री ऋषभदेव ने अपने जन्मकल्याणक के ही दिन चैत्र कृष्ण नवमी को संसार की क्षणभंगुरता देखकर विरक्त होकर प्रयाग में वटवृक्ष के नीचे दिगम्बर प्रव्रज्या(दीक्षा) ग्रहण की थी । उन्होंने एक वर्ष तक निराहार रहने के बाद हस्तिनापुर में वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन राजा श्रेयांस से इक्षुरस का आहार ग्रहण किया था । तीर्थंकर श्री ऋषभदेव के प्रथम आहार ग्रहण करने के कारण ही यह तिथि अक्षयतृतीया पर्व के रूप में विख्यात है । श्री ऋषभदेव ने एक हजार वर्ष के कठोर तप के उपरांत पुरमितालपुर के शकटावन में वटवृक्ष के नीचे फाल्गुन कृष्ण एकादशी के दिन केवलज्ञान प्राप्त करके सर्वज्ञता प्राप्त की थी ।
भगवान् ऋषभदेव ने समवसरण(धर्मसभा) के द्वारा अनेक वर्षों तक असंख्यात भव्यजीवों को अहिंसा, समता एवं आत्मसंयम रूप पवित्र जैनधर्म का उपदेश दिया था ।आपके समवसरण में वृषभसेन आदि चौरासी गणधर ऋषि (प्रधान शिष्य) थे ।चौरासी हजार मुनि और साढ़े तीन लाख आर्यिकायें और तीन लाख श्रावक और पाँच लाख श्राविकाएं थीं ।अन्त में आयु पूर्ण होने पर भगवान् ऋषभदेव ने अष्टापद कैलास पर्वत से माघ कृष्ण चतुर्दशी के दिन निर्वाण प्राप्त किया था ।
भगवान् ऋषभदेव को उनके विराट् व्यक्तित्व के कारण जैनधर्म के साथ-साथ वैदिक परम्परा में भी पूर्ण आदर प्राप्त है । श्रीमद्भागवत पुराण के पाँचवें स्कन्ध में श्री ऋषभदेव के चरित्र का वर्णन बड़ी ही श्रद्धा के साथ किया गया है ।भारतीय संस्कृति पर भगवान् ऋषभदेव के व्यापक प्रभाव का अनुमान हम इस तथ्य से लगा सकते हैं कि भारत की सर्वाधिक प्राचीन और सबसे बड़ी मूर्ति भगवान् ऋषभदेव की ही है । भगवान् ऋषभदेव की चौरासी फीट की विशाल प्राचीन प्रतिमा मध्यप्रदेश के बड़वानी जिले के बावनगजा जी में स्थित है । साथ ही श्री ऋषभदेव के पुत्र बाहुबलि भगवान् की विशाल प्राचीन मनोज्ञ प्रतिमा कर्नाटक के श्रवणवेलगोल में स्थित है । भगवान् ऋषभदेव की कुछ विशिष्ट प्रतिमाएं विदेशी शासक भारत से अपने साथ विदेश ले गये हैं जो विदेशी संग्रहालयों में संरक्षित हैं ।
भगवान् ऋषभदेव अपने लोकव्यापी प्रभाव और उपदेशों के कारण भारतीय जनमानस के हृदय में सदैव श्रद्धास्पद रहेंगे । आज के भोगप्रधान वातावरण में भगवान् ऋषभदेव की योगप्रधान शिक्षाएं मानवजाति के कल्याण के लिए अत्यधिक प्रासंगिक हैं ।
डॉ.पंकज जैन शास्त्री
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