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जैन सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य

सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य (इसवी सन पूर्व ३२१-२९७


मयूर मल्लिनाथ वग्यानी, सांगली महाराष्ट्र 
9422707721
  

चन्द्रगुप्तजीका जन्म जैन कुल में हुआ था. उन्होने  नंद राजा को  हराके वो  मगध के राजा बन गये। उनकी राजधानी पाटलिपुत्र थी। इसके महामन्त्री चाणक्य थे। उसकी सहायता से उसने सम्पूर्ण भारत पर शासन किया। उनका राज्य ईरान, अफगानिस्तान से लेकर बंगाल उड़ीसा तक था

नंद वंश को समाप्त करने और सिंहासन पर बैठने के बाद, चंद्रगुप्त ने राज्य की सीमाओं का विस्तार करना शुरू कर दिया और ग्रीक राजा अलेक्जेंडर के वफादार सेनापति सेल्यूकस निकेटर को हराकर उत्तर-पश्चिम में कई राज्यों को अपने नियंत्रण में ले लिया। इस युद्ध में हारने के बाद सेल्यूकस ने अपनी पुत्री कार्नेलिया का विवाह चन्द्रगुप्त से करके संधि कर ली।

शादी में, चंद्रगुप्त ने सेल्यूकस को 500 हाथी भेंट किये। और फिर उसने चाणक्य की मदद से सेल्यूकस के साथ ऐतिहासिक संधि की और नई मित्रता की शुरुआत की. इसके साथ ही अराकोसिया, (कंधार), गेड्रोसिया (बलूचिस्तान), पारोपमिसदाए (गांधार) चंद्रगुप्त को दिए जाने का उल्लेख मिलता है।

ग्रीक में चंद्रगुप्त का उल्लेख सैंड्रोकोट्टोस या एंड्रोकोटस के नाम से किया गया है। इस सफल ऑपरेशन के बाद चंद्रगुप्त की प्रसिद्धि पूरी दुनिया में फैल गई और मिस्र और सीरिया के तत्कालीन शक्तिशाली साम्राज्यों ने एशियाई महाद्वीप में पहली बार अपने राजनीतिक दूतावास स्थापित किए और इन देशों के राजदूतों को चंद्रगुप्त के दरबार में नियुक्त किया गया।
इतिहासकारोंका कहना की यूनानी राजदूत मेगस्थनीज चंद्रगुप्त के शासन और मौर्यों के वैभव से इतना प्रभावित हुआ कि उसने इंडिका नामक ग्रंथ लिखा। दुर्भाग्य से, इस ग्रंथ का अधिकांश भाग आज मौजूद नहीं है। परन्तु जो भाग अभी भी उपलब्ध है उससे चन्द्रगुप्त की शक्ति तथा चणक की प्रभावशाली नीति का आभास होता है, अपनी लिखा है कि शाही दरबार में जैन साधु उपस्थित थे। इसके अलावा तक्षशिला में जैन मुनियों की उपस्थिति का अभिलेख है, चंद्रगुप्त और सिकंदर की मुलाकात भी उसकी डायरी में अंकित है। वापस जाते समय, सिकंदर ने राज्य का प्रबंधन करने के लिए अपने सेनापतियों को भारत में छोड़ दिया था . 

पंजाब और उत्तर-पश्चिमी प्रांतों को विदेशी शासन से मुक्त कराने के लिए चंद्रगुप्त को यूनानी सेना से युद्ध करना पड़ा। यूनानी सेना को भारत से खदेड़ने के बाद चंद्रगुप्त मौर्य पंजाब, उत्तर-पश्चिम सीमा और सिंध प्रांत का स्वामी बन गया। चंद्रगुप्त के शासन वाले क्षेत्रों में बलूचिस्तान, अफगानिस्तान, गांधार, हिंदू कुश पर्वत श्रृंखला, काबुल, विंध्य पर्वत, बिहार, बंगाल, ओडिशा, दक्कन (आधुनिक महाराष्ट्र) और मैसूर शामिल थे।

मौर्य काल के दौरान, मगध क्षेत्र में मगधी प्राकृत, पाली प्रमुख भाषाएँ थीं, संस्कृत शिलालेखों या किसी भी समकालीन लिखित उपकरण में मौजूद नहीं थी। चंद्रगुप्त ने अपने साम्राज्य का विस्तार उत्तर-पश्चिमी सीमाओं तक भी किया, जहाँ पैशाचिक और गांधारी प्राकृत जैसी भाषाएँ प्रयोग में थीं। इससे प्रारंभिक अनुमान लगाया जा सकता है कि चंद्रगुप्त ने अपने शासन काल में मगधी प्राकृत अथवा पाली को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थान दिया होगा।

इसके अलावा, मौर्य साम्राज्य के प्रत्येक प्रांत में अपनी क्षेत्रीय भाषाओं का उपयोग किया गया होगा, उदाहरण के लिए - गांधारी प्राकृत। सम्राट अशोक के शासनकाल में प्राकृत को राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाया गया था. 

12वीं शताब्दी में हेमचंद्र द्वारा लिखित परिशिष्ट पर्व में चंद्रगुप्त के काल का उल्लेख मिलता है। श्रवणबेळगोळ के 7वीं और 8वीं शताब्दी के शिलालेखों से पता चलता है कि चद्रगुप्त मौर्य और जैन ऋषि भद्रबाहु ने यहा निर्वाण प्राप्त किया. 

जैन आचार्य भद्रबाहु ने चंद्रगुप्त मौर्य को भविष्यवाणी की थी कि उत्तर में बारह वर्ष का सूखा पड़ेगा। फिर उन्होंने अपना सिंहासन अपने पुत्र बिम्बिसार को सौंप दिया और आचार्य भद्रबाहु के साथ अपने बारह हजार शिष्यों के साथ श्रवणबेलगोला के लिए प्रस्थान कर गए। शिलालेख में यहां आने का उल्लेख है। साथ ही 12 साल की तपस्या के बाद उन्हें चंद्रगिरि पर्वत पर निर्वाण प्राप्त हुआ। चन्द्रगुप्त बस्ती चन्द्रगिरि पर्वत पर स्थित है. 

श्रवणबेलगोला में 7वीं शताब्दी का भद्रबाहु शिलालेख (संस्कृत, प्रारंभिक कन्नड़ लिपि)। यह यहां का सबसे पुराना शिलालेख है और इसमें भद्रबाहु और प्रभाचंद्र का उल्लेख है। इतिहासकार लुईस राइस का कहना है कि प्रभाचंद्र ही चंद्रगुप्त मौर्य थे।

डॉ एफ डब्ल्यू थॉमस कहते हैं,  (The testimony of Megasthenes would likewise seem to imply that Chandragupta submitted to the devotional teachings of Sramanas as opposed to the doctrines of the Brahmins ( Jainism or early faith of Ashoka, p.23)
‘अनुवाद'’
(मेगस्थनीज़ की गवाही के अनुसार, ऐसा प्रतीत होता है कि चंद्रगुप्त ने ब्राह्मणों की शिक्षाओं के विरुद्ध जाकर श्रमणों के भक्ति दर्शन के सामने आत्मसमर्पण कर दिया)।
इससे यह सिद्ध होता है कि चन्द्रगुप्त वैदिक नहीं बल्कि श्रमण अर्थात् जैन दर्शन का अनुयायी थे. 

डॉ  विन्सेंट स्मिथ कहते है, (I am now disposed to believe that the tradition is probably true in its main outline and that Chandragupta really abdicated and became Jain ascetic. (History of India, p. 146)

अनुवाद'
(''अब मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि यह परंपरा संभवतः अपनी मुख्य रूपरेखा में सत्य है, और चंद्रगुप्त ने वास्तव में राज्य त्याग दिया और जैन तपस्वी बन गए।)

डॉ  काशीप्रसाद जायस्वाल  कहते हैं,
The Jain books of the 5th century A.D and later Jain inscriptions claim Chandragupta as a Jain imperial ascetic. My studies have compelled me to respect the historical data of Jain writings and see no reason why we should not accept the Jain claim that Chandragupta at the end of this reign accepted Jainism and abdicated and died as Jain ascetic. i am not the first to accept the view, Mr. Rice, who has studied the Jain inscriptions of Shravanbelagola thoroughly gave verdict in favor of it and Mr. Smith has also leaned towards it ultimately. (J.B.O.R Society, Vol. VIIII)


अनुवाद'
(''5वीं शताब्दी और उसके बाद के जैन ग्रंथ चंद्रगुप्त को जैन तपस्वी के रूप में दावा करते हैं। मेरे अध्ययन ने मुझे जैन लेखन के ऐतिहासिक आंकड़ों का सम्मान करने और यह दावा करने के लिए मजबूर किया कि चंद्रगुप्त ने अपने शासनकाल के अंत में राज्य छोड़ दिया और जैन धर्म में परिवर्तित हो गए और जैन तपस्वी के रूप में उनकी मृत्यु हो गई. मुझे कोई कारण नहीं दिखता कि हमें सहमत क्यों नहीं होना चाहिए। मैं यह विचार रखने वाला पहला व्यक्ति नहीं हूं, श्री राइस, जिन्होंने श्रवणबेलगोला के जैन शिलालेखों का गहन अध्ययन किया है और इसके पक्ष में निर्णय दिया और श्री. अंततः स्मिथ का झुकाव भी इसी ओर हुआ है. 
‘’Chandragupta died in 297 B.C after a reign of about 24 years. According to the Jain traditions he abdicated the throne in favor of his Son Bindusara and then retired to Mysore, Along with Jain tradition, He starved himself to death’’ ( A new textbook of History of India, English edition part 1, Page 113)

लगभग 24 वर्षों के शासनकाल के बाद 297 ईसा पूर्व में चंद्रगुप्त की मृत्यु हो गई। जैन परंपराओं के अनुसार उन्होंने अपने पुत्र बिंदुसार के पक्ष में सिंहासन त्याग दिया और फिर मैसूर चले गए, जैन परंपरा के साथ, उन्होंने सल्लेखना/ संथरा ले लिया. 
उनके अनुसार, चंद्रगुप्त ने अपने बेटे बिंबिसार को राज्य सौंप दिया और जैन परंपरा के अनुसार मैसूर में  उन्होंने सल्लेखना/ संथरा ले लिया. 
इतिहासकार रामास्वामि अय्यंगर आणि बी शेषगिरी राव कहते हैं,    
When Bhadrabahu,, the last of the Sruta Kevali Jain Acharyas met Chandragupta Maurya in his court at Pataliputra and foretold him of the impending terrible twelve years famine Chandragupta abdicated his throne and joined Bhadrabahu who, collecting a body of twelve thousand disciples, started a grand exodus towards the south. (As stated by Ramaswami Ayyangar and B.Sheshgiri Rao in their Studies in South Indian Jainism, 1922)

इतिहासकार रामास्वामी अयंगर और बी शेषगिरि राव कहते हैं,,
जब श्रुत केवली जैन आचार्यों में से अंतिम भद्रबाहु ने पाटलिपुत्र में अपने दरबार में चंद्रगुप्त मौर्य से मुलाकात की और उन्हें आसन्न भयानक बारह साल के अकाल की भविष्यवाणी की, तो चंद्रगुप्तने अपना सिंहासन त्याग दिया और आचार्य भद्रबाहुजी के साथे शामिल हो गए, जिन्होंने बारह हजार शिष्यों का एक समूह इकट्ठा करके दक्षिण मे प्रयाण किया।

राय बहादूर श्री नरसिहाचार्य  कहते हैं, ,
(‘’The hill which contains the foot-prints of his (Chandragupta’s) preceptor is called Chandra Giri after his after his name and on it stands a magnificent temple called Chandra Basti with its carved and decorated walls, portraying scenes from the life of the great Emperor. He was a true hero and attained the heaven from that hill in the Jain of Sallekhana’’,), Jain-Shasana, Pp. 307-308.’’)

राय बहादुर श्री नरसिहाचार्य कहते हैं,
(''जिस पहाड़ी पर उनके (चंद्रगुप्त के) के पैरों के निशान हैं, उसे उनके नाम पर चंद्र गिरि कहा जाता है और उस पर चंद्र बस्ती नामक एक भव्य मंदिर खड़ा है, जिसकी नक्काशीदार और सजी हुई दीवारें महान सम्राट के जीवन के दृश्यों को चित्रित करती हैं। वह एक सच्चे नायक थे और सल्लेखना लेके उस पहाड़ी से स्वर्ग प्राप्त किया था", जैन-शासन, पीपी। 307-308
श्रवणबेलगोल में चंद्रगिरि पर्वत पर चंद्रगुप्त के नाम पर एक जैन मंदिर है और चंद्रगुप्त और आचार्य भद्रबाहु से संबंधित विभिन्न शिलालेख भी पाए जाते हैं।

भारत में इतिहासकारों ने कभी भी खुले तौर पर स्वीकार नहीं किया कि चंद्रगुप्त जैन थे। कुछ इतिहासकारों का सुझाव है कि वह निचली जाति के थे ,  जबकि एक मध्ययुगीन टिप्पणीकार का कहना है कि चंद्रगुप्त नंद की मुरा नामक पत्नियों में से एक का पुत्र थे।

उनके और आचार्य भद्रबाहु के संदर्भ में शिलालेखों के साथ-साथ विभिन्न ऐतिहासिक लेखकों लुईस राइस, डॉ एफ डब्ल्यू थॉमस, डॉ विंसेंट स्मिथ, डॉ काशीप्रसाद जयसवाल, इतिहासकार रामास्वामी अयंगर और बी शेषगिरी राव द्वारा दिए गए ऐतिहासिक संदर्भों से इस बात से सहमत होणा पडता हैं कि वह जन्म से जैन थे और मरते समय उन्होंने श्रवणबेलगोल में जैन सिद्धांतों के अनुसार सल्लेखना/ संथरा ली थी. 
चंद्रगुप्त के संबंध में विश्वसनीय शिलालेख भारत में अश्रवणबेळगोळ के अलावा कहीं भी नहीं मिलते हैं। विदेशों में भी इतिहासकारों ने यह स्वीकार किया है कि चन्द्रगुप्त जैन थे।
चंद्रगुप्त के समय में, जैन धर्म भारत के साथ-साथ वर्तमान अफगानिस्तान, पाकिस्तान, ईरान और श्रीलंका तक फैल गया। चंद्रगुप्त के बाद उनके पोते अशोक ने कलिंग युद्ध में भयानक हिंसा को देखकर बुद्ध द्वारा सिखाए गए धम्म के मार्ग का अनुसरण किया और बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। अशोक के समय में बौद्ध धर्म भारत के बाहर श्रीलंका, थाईलैंड, जापान और चीन जैसे दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में फैल गया।

इंडियन अँटीक्वेरीच्या ५ व्या खंड मी सम्राट अशोक (इसवि सन पूर्व  २३३-२३६)  के प्रारंभिक जीवन पर कहा गया है कि बौद्ध धर्म में परिवर्तित होने से पहले वह जैन धर्म के संरक्षक थे।
अशोक ने अहिंसा के जिन सिद्धांतों का प्रचार किया, वे बौद्ध धर्म की तुलना में जैन धर्म के अधिक अनुरूप हैं। इससे यह भी सिद्ध होता है कि वह मूलतः जैन थे। इस दृष्टिकोण का समर्थन डॉ. थॉमस ने अपनी पुस्तक  Early Faith of Ashoka में भी किया है. 

पशु दया पर अशोक का आदेश बौद्ध धर्म की तुलना में जैन धर्म के अधिक अनुरूप है, ऐसा प्राचार्य  कर्ण का भी मानना ​​है, वे ऐसा कहते हैं कि, ''His (Asoka's) ordinances concerning the sparing of animal life agrees much more closely with the ideas of heretical Jains than those of Buddhists'' (Indian Antiquary, Vol. V, Page 205.) 

अनुवाद

जानवरों की जान बचाने के संबंध में उनके (अशोक के) अध्यादेश बौद्धों की तुलना में विधर्मी जैनियों के विचारों से अधिक मेल खाते हैं

उपरोक्त से यह सिद्ध होता है कि अशोक प्रारंभ में जैन थे लेकिन कुछ इतिहासकारों का मानना है कि बाद में उन्होंने बुद्ध के मध्य मार्ग को अपने करीब पाया और धम्म के मार्ग का अनुसरण किया. 

अशोक के बाद उनका पोता संप्रतिने जैन धर्म का अनुसरण किया। उन्होंने जैन धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार किया। उन्होंने जैन साधुओं को भी देश-विदेश में प्रचार के लिये भेजा। संप्रति ने हजारों मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया। जैन परंपरा के अनुसार, उन्होंने 53 वर्षों तक शासन किया। अशोक की मृत्यु के बाद (अर्थात दशरथ के शासनकाल के दौरान) सौराष्ट्र, महाराष्ट्र, आंध्र और मैसूर के राज्य साम्राज्य से अलग हो गए, लेकिन बाद में संप्रति ने उन पर पुनः कब्ज़ा कर लिया।

सम्प्रति का परपोता बहद्रत मौर्य था , जो मौर्य वंश के अंतिम सम्राट था । उसका सेनापति पुष्यमित्र शुंग वैदिक था। उसने धोखे से बहद्रत की हत्या कर दी और खुद को सम्राट घोषित कर दिया।
धर्मानंद कौशांबी के अनुसार, अंतिम मौर्य सम्राट बहद्रत की 184 ईसवी पूर्व के  आसपास उनकी सेना का निरीक्षण करते समय शुंग वंश के सेनापति पुष्यमित्र ने हत्या कर दी थी। (प्राचीन भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता, पुष्ठ 217, (The Culture and Civilization of Ancient India in Historical Outline, page  217 )
चन्द्रगुप्त मौर्य और अशोक के बाद मौर्य साम्राज्य कमजोर हो गया। बाद के सम्राट चंद्रगुप्त और अशोका द्वारा निर्मित विशाल साम्राज्यों को बनाए नहीं रख सके। अंतिम सम्राट बहाद्रत की हत्या के बाद इस विशाल मौर्य साम्राज्य का पतन हो गया.

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