Skip to main content

नागराजा मंदिर क्या एक जैन मंदिर था ?

नागराजा मंदिर क्या एक जैन मंदिर था ? 

नागरकोइल का नागराजा मंदिर, जो आज सर्प देवता की पूजा का प्रमुख केंद्र बन चुका है, कभी एक प्राचीन जैन तीर्थ स्थल था। यह मंदिर दक्षिण भारत के कन्याकुमारी जिले के नागरकोइल शहर में स्थित है और यहाँ की दीवारों पर उकेरी गई जैन मूर्तियाँ इसके प्राचीन जैन इतिहास को दर्शाती हैं। हालांकि, आज इस मंदिर को मुख्य रूप से नागराजा की पूजा का केंद्र माना जाता है, लेकिन यह कई शताब्दियों पहले एक दिगंबर जैन तीर्थ स्थल था। नागराजा की पूजा के साथ इस मंदिर की दीवारों पर जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ, जिनमें से कुछ ध्यानमुद्रा में बैठी हुई हैं, आज भी मौजूद हैं। इन मूर्तियों के अस्तित्व ने इस मंदिर के जैन अतीत को उजागर किया है, जो अब हिंदू मंदिर में बदल गया है।

मंदिर की दीवारों पर जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ और अन्य जैन चिह्नों की उपस्थिति यह संकेत देती है कि यह स्थान प्राचीन समय में एक प्रमुख जैन मठ या तीर्थ स्थल था। यह मंदिर शायद 8वीं-9वीं शताब्दी के आसपास स्थापित हुआ था, जब दक्षिण भारत में जैन धर्म का व्यापक प्रभाव था। इस क्षेत्र में जैन संस्कृति के प्रबल होने के प्रमाण मधुरै, अलागारकोइल, तिरुनेलवेली और अन्य स्थानों पर भी पाए जाते हैं, जहाँ जैन मठ और तीर्थ स्थल स्थित थे। जैन समुदाय के लिए यह क्षेत्र एक प्रमुख केंद्र था, जहाँ व्यापार, शिक्षा और धार्मिक गतिविधियाँ संपन्न होती थीं।

हालांकि, समय के साथ जैन धर्म का प्रभाव घटा और अन्य धर्मों का प्रभुत्व बढ़ने लगा। विशेषकर पांड्य शासकों के समय में, जिनका प्रारंभिक काल जैन धर्म के प्रति सहानुभूति वाला था, बाद के पांड्य शासकों ने शैव धर्म को अपना लिया और जैन मठों का रूपांतरण हुआ। इसके साथ ही, विजयनगर साम्राज्य और नायक वंश के समय में जैन मंदिरों का हिंदू मंदिरों में रूपांतरण अधिक हुआ। नागराजा मंदिर का कवरवर्शन भी इसी समय हुआ होगा, जब यह मंदिर एक जैन तीर्थ स्थल से नाग पूजा का केंद्र बन गया।

एक समय था जब नागरकोइल और इसके आसपास के क्षेत्र में जैन समुदाय का गहरा प्रभाव था। हालांकि, समय के साथ जैन समुदाय की संख्या में कमी आई और आज यहां जैन आबादी बहुत कम रह गई है। यह क्षेत्र कभी जैन व्यापारियों, तीर्थयात्रियों और साधुओं का प्रमुख ठिकाना था, लेकिन राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन ने जैन धर्म के प्रभाव को धीरे-धीरे घटित कर दिया। पांड्य शासकों के धर्म परिवर्तन, साथ ही हिंदू धर्म के प्रभाव ने जैन धर्म को इस क्षेत्र से खदेड़ा। इसके अलावा, विजयनगर साम्राज्य और दक्षिण भारत में जैन धर्म के प्रति बढ़ती शैव और वैष्णव श्रद्धा ने जैनों के पलायन को उत्प्रेरित किया।

आज, नागरकोइल और कन्याकुमारी जिले में जैन धर्म का कोई प्रमुख केंद्र नहीं बचा है। कुछ परिवार ही बचें हैं जो अपने जैन विश्वासों को पालन करते हैं, लेकिन उनका सांस्कृतिक प्रभाव बहुत सीमित है। जैन धर्म के इस क्षेत्र से विलुप्त होने का मुख्य कारण राजनीतिक संरक्षण का अभाव था। शासकों द्वारा जैन धर्म के प्रति सहानुभूति कम होने और अन्य धर्मों के विकास ने इस समुदाय को अपना स्थान छोड़ने पर मजबूर किया। इसके अलावा, जैन मंदिरों का हिंदू मंदिरों में रूपांतरण और जैन मठों का विलय भी जैन धर्म के धीमे विलुप्त होने के कारण बने।

हालांकि, नागराजा मंदिर के स्थापत्य में उकेरी गई जैन मूर्तियाँ और शिलालेख इस मंदिर के प्राचीन जैन अतीत का प्रमाण देती हैं। यह इस बात का स्पष्ट उदाहरण है कि किस प्रकार धार्मिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक बदलावों के कारण एक स्थान का धार्मिक स्वरूप बदल सकता है, लेकिन उसकी ऐतिहासिक धरोहर हमेशा जीवित रहती है। यह स्थान आज भी उन समयों की गवाही देता है जब जैन धर्म का इस क्षेत्र में गहरा प्रभाव था और जब जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ इन दीवारों पर उकेरी गई थीं।

आज भी, नागराजा मंदिर के अंदर और उसके आस-पास के इलाके में जैन धर्म के अवशेषों को देखना संभव है, जो यह दर्शाते हैं कि इस क्षेत्र में कभी जैन धर्म का प्रचुर प्रभाव था। हालांकि यह मंदिर आज एक प्रमुख नाग पूजा केंद्र बन चुका है, लेकिन इसका इतिहास और स्थापत्य एक साक्षी है उस समय का, जब यहां जैन धर्म के प्रभावशाली केंद्र थे।

Comments

Popular posts from this blog

जैन ग्रंथों का अनुयोग विभाग

जैन धर्म में शास्त्रो की कथन पद्धति को अनुयोग कहते हैं।  जैनागम चार भागों में विभक्त है, जिन्हें चार अनुयोग कहते हैं - प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग।  इन चारों में क्रम से कथाएँ व पुराण, कर्म सिद्धान्त व लोक विभाग, जीव का आचार-विचार और चेतनाचेतन द्रव्यों का स्वरूप व तत्त्वों का निर्देश है।  इसके अतिरिक्त वस्तु का कथन करने में जिन अधिकारों की आवश्यकता होती है उन्हें अनुयोगद्वार कहते हैं। प्रथमानुयोग : इसमें संयोगाधीन कथन की मुख्यता होती है। इसमें ६३ शलाका पुरूषों का चरित्र, उनकी जीवनी तथा महापुरुषों की कथाएं होती हैं इसको पढ़ने से समता आती है |  इस अनुयोग के अंतर्गत पद्म पुराण,आदिपुराण आदि कथा ग्रंथ आते हैं ।पद्मपुराण में वीतरागी भगवान राम की कथा के माध्यम से धर्म की प्रेरणा दी गयी है । आदि पुराण में तीर्थंकर आदिनाथ के चरित्र के माध्यम से धर्म सिखलाया गया है । करणानुयोग: इसमें गणितीय तथा सूक्ष्म कथन की मुख्यता होती है। इसकी विषय वस्तु ३ लोक तथा कर्म व्यवस्था है। इसको पढ़ने से संवेग और वैराग्य  प्रकट होता है। आचार्य यति वृषभ द्वारा रचित तिलोयपन...

णमोकार महामंत्र के 9 रोचक तथ्य

9 अप्रैल 2025 विश्व नवकार सामूहिक मंत्रोच्चार पर विशेष – *णमोकार महामंत्र के 9 रोचक तथ्य* डॉ.रूचि अनेकांत जैन प्राकृत विद्या भवन ,नई दिल्ली १.   यह अनादि और अनिधन शाश्वत महामन्त्र है  ।यह सनातन है तथा श्रुति परंपरा में यह हमेशा से रहा है । २.    यह महामंत्र प्राकृत भाषा में रचित है। इसमें कुल पांच पद,पैतीस अक्षर,अन्ठावन मात्राएँ,तीस व्यंजन और चौतीस स्वर हैं । ३.   लिखित रूप में इसका सर्वप्रथम उल्लेख सम्राट खारवेल के भुवनेश्वर (उड़ीसा)स्थित सबसे बड़े शिलालेख में मिलता है ।   ४.   लिखित आगम रूप से सर्वप्रथम इसका उल्लेख  षटखंडागम,भगवती,कल्पसूत्र एवं प्रतिक्रमण पाठ में मिलता है ५.   यह निष्काम मन्त्र है  ।  इसमें किसी चीज की कामना या याचना नहीं है  । अन्य सभी मन्त्रों का यह जनक मन्त्र है  । इसका जाप  9 बार ,108 बार या बिना गिने अनगिनत बार किया जा सकता है । ६.   इस मन्त्र में व्यक्ति पूजा नहीं है  । इसमें गुणों और उसके आधार पर उस पद पर आसीन शुद्धात्माओं को नमन किया गया है...

सम्यक ज्ञान का स्वरूप

*सम्यक ज्ञान का स्वरूप*  मोक्ष मार्ग में सम्यक ज्ञान का बहुत महत्व है । अज्ञान एक बहुत बड़ा दोष है तथा कर्म बंधन का कारण है । अतः अज्ञान को दूर करके सम्यक ज्ञान प्राप्त करने का पूर्ण प्रयास करना चाहिए । परिभाषा -  जो पदार्थ जैसा है, उसे वैसे को वैसा ही जानना, न कम जानना,न अधिक जानना और न विपरीत जानना - जो ऍसा बोध कराता है,वह सम्यक ज्ञान है । ज्ञान जीव का एक विशेष गुण है जो स्‍व व पर दोनों को जानने में समर्थ है। वह पा̐च प्रकार का है–मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय व केवलज्ञान। अनादि काल से मोहमिश्रित होने के कारण यह स्‍व व पर में भेद नहीं देख पाता। शरीर आदि पर पदार्थों को ही निजस्‍वरूप मानता है, इसी से मिथ्‍याज्ञान या अज्ञान नाम पाता है। जब सम्‍यक्‍त्व के प्रभाव से परपदार्थों से भिन्न निज स्‍वरूप को जानने लगता है तब भेदज्ञान नाम पाता है। वही सम्‍यग्‍ज्ञान है। ज्ञान वास्‍तव में सम्‍यक् मिथ्‍या नहीं होता, परन्‍तु सम्‍यक्‍त्‍व या मिथ्‍यात्‍व के सहकारीपने से सम्‍यक् मिथ्‍या नाम पाता है। सम्‍यग्‍ज्ञान ही श्रेयोमार्ग की सिद्धि करने में समर्थ होने के कारण जीव को इष्ट है। जीव का अपना प्रतिभ...