स्थानांगसूत्र में पाँच निर्ग्रन्थों का स्वरूप..एक तुलनात्मक विवेचन.
प्रो० फूलचन्द जैन, प्रेमी- वाराणसी
आचारांगादि द्वादशांगों में स्थानांगसूत्र ऐसा तृतीय अंग आगम है, जिसमें प्रथमानुयोग आदि चारों अनुयोगों का अक्षय ज्ञान भण्डार समाहित है। दस स्थानों (अध्ययनों) में विभक्त इस आगम में क्रमश: एक से लेकर बढ़ते हुए क्रम से दस संख्या तक का विविध विषयों का सूत्रात्मक शैली में तात्त्विक विवेचन अद्भुत विधि से किया गया है। इसके अध्ययन से जहाँ हमें चरम तीर्थंकर महावीर के वचनामृत का पान करने का गौरव प्राप्त होता है, वहीं हमें इसकी वाचना में सम्मिलित उन महान आचार्यों की अद्भुत उच्च मेधा के भी दर्शन हो जाते हैं। इसे यदि हम भारतीय ज्ञान परम्परा का विश्वकोश कहें तो अत्युक्ति नहीं होगी।
यहाँ प्रस्तुत है स्थानांग सूत्र के पंचम स्थान में वर्णित निर्ग्र्ंथों का तुलनात्मक स्वरूप विवेचन-
इसमें ( सूत्र संख्या 184 से 189 तक में) जिन पाँच प्रकार के निर्ग्रन्थों का स्वरूप मिलता है,
वे हैं —पुलाक, बकुश, कुशील,निर्ग्रन्थ और स्नातक। इन पाँच प्रकार के निर्ग्रन्थों का उल्लेख कुछ आगमों, इनके व्याख्या साहित्य और तत्त्वार्थसूत्र (सूत्र सं.9/46) तथा इसके टीका साहित्य के अनेक ग्रंथों में भी मिलता है।
स्थानांग सूत्र में इन पांचोँ में प्रत्येक के पांच-पाँच उपभेदों सहित बहुत ही विस्तृत और अच्छा विवेचन प्राप्त होता है। इसमें कहा है- पंच णियंठा पण्णत्ता, तं जहा- पुलाए, बउसे, कुसीले, णियंठे, सिणाते ॥ १८४ ॥
इन पाँच में आरम्भ के तीन प्रथम और तृतीय
भेदों के उपभेद शब्द मात्र परिवर्तन के समान हैं.जैसे– पुलाए ( कुसीले) पंचाविहे पण्णत्ते, तं जहा - णाणपुलाए, दंसण पुलाए, लिंगपुणाए, अहासुहमकुसीले णाणं पंचमे ।
निर्ग्रन्थों के पुलाक, बकुश आदि ये पांच भेद चारित्र परिणाम की हानि-वृद्धि की अपेक्षा से तथा साधनात्मक योग्यता के साथ ही द्रव्य, क्षेत्र, काल,भाव और अपनी स्वभावगत प्रवृत्तियों पर आधारित हैं।इन पांच निर्ग्रंथों का क्रमशःस्वरूप विवेचन इस प्रकार है –
१. पुलाक निर्ग्रन्थ—
निःसार धान्य -कणों की तरह जिनका चरित्र है, वे पुलाक निर्ग्रन्थ कहे जाते हैं। जिनका मन उत्तर-गुणों के पालन की भावना से रहित है, जो कहीं पर और कदाचित् व्रतों में भी परिपूर्णता को प्राप्त नहीं होते हैं, वे पुलाक कहलाते हैं।
आचार्य देवनंदी पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि (१/४६/5)में कहा है– उत्तरगुणभावनापेतमनसो व्रतॆष्वपिक्वचित्कदा-चित्परिपूर्णतामपरिप्राप्नुव-न्तोऽविशुद्धपुलाकसादृश्यात्पुलाका इत्युच्यन्ते ।
अर्थात् जिनका मन उत्तरगुणों की भावना से रहित है, जो कहीं पर और कदाचित् व्रतों में भी परिपूर्णता को नहीं प्राप्त होते हैं, वे अविशुद्ध पुलाकके समान होनेसे पुलाक कहे जाते हैं।
तत्त्वार्थराजवार्तिक(१/४७/६३८/४) में भी यही बात कही है.
सर्वार्थसिद्धि (१/४७/४६१/११)में प्रतिसेवना कुशील के सम्बन्ध में कहाहै–प्रतिसेवना-पञ्चानां मूलगुणानां रात्रिभोजन-वर्जनस्य च पराभियोगाद् बलादन्यतमं प्रतिसेवमानः पुलाको भवति।
अर्थात् प्रतिसेवना-दूसरों-के दबाव वश जबर्दस्ती से पांच मूलगुण और रात्रि भोजन वर्जन-व्रत में से किसी एक की प्रतिसेवना करनेवाला पुलाक होता है. स्थानांग सूत्र में पुलाक के पाँच भेद बतलाये हैं-
१. ज्ञान पुलाक अर्थात् स्खलित, मिलित (मिश्रित) आदि ज्ञान के अतिचारों का सेवन करने वाला।
२. दर्शन पुलाक - सम्यक्त्व के अतिचारों का सेवन करने वाला.
३. चरित्र पुलाक- मूलगुण तथा उत्तरगुण- दोनों में ही दोष लगाने वाला ।
४. लिंग पुलाक - शास्त्रविहित उपकरणों से अधिक उपकरण रखने वाला अथवा अकारण ही अन्य लिंग को धारण करने वाला।
5.यथासूक्ष्मपुलाक- प्रमादवश अकल्पनीय वस्तु-ग्रहण करने का मन में भी चिन्तन करने वाला अथवा पूर्वोक्त पाँचों अतिचारों में से कुछ-कुछ अतिचारों का सेवन करने वाला.
2. बकुश निर्ग्रन्थ-
बकुश शब्द शबल अर्थात् चित्र-विचित्र शब्द का पर्यायवाची है। ये मूलगुणों की दृष्टि तो निर्दोष होते हैं,किन्तु वीतरागता सूचक उपकरणों, शिष्यों एवं शरीर से ममत्वयुक्त होते हैं। इसलिए इनका चरित्र चित्रवर्ण होता है। फिर भी पुलाक से श्रेष्ठ हैं। बकुश के लक्षणों के आधार पर ये दो प्रकार के हैं- उपकरण बकुश और शरीर बकुश।
श्रमणोचित उपकरणों में जिनका चित्त आसक्त है, जो सजे-धजे सुन्दर उपकरणों की आकांक्षा रखते हैं, वे उपकरण बकुश है। तथा शरीर का संस्कार की आकांक्षा करने वाले निर्ग्रन्थ शरीर बकुश कहलाते हैं।
बकुश के पांच भेद –स्थानांग सूत्र में बकुश के पांच प्रकार इस प्रकार बतलाये–
" बउसे पंचविधे पण्णत्ते, तं जहा- आभोगबउसे, अणाभोग बउसे, संवुडबउसे, असंबुड बउसे, अहासुहुमबउसे णामं पंचमे । अर्थात्-
१. आभोग बकुश - जान-बूझकर शरीर की बिभूषा करने वाला,
2. अनाभोग बकुश - अनजान में शरीर की विभूषा करने वाला,
३. संवृतबकुश- छिपकर छिपकर शरीरादि की विभूषा करने वाला.
4. असंवृतबकुश- प्रकटरूप में शरीर की विभूषा करने वाला.
5. यथासूक्ष्मबकुश - प्रकट या अप्रकट में शरीरादि की सूक्ष्म विभूषा करने वाला।
भगवती आराधना की विजयोदया टीका (१६५०/१७२२/८)के अनुसार –रात्रौ यथेष्टं शेते, संस्तरं च यथाकामं बहुतरं करोति, उपकरणबकुशो । देहबकुशः दिवसे वा शेते च यः पार्श्वस्थः - अर्थात् जो रात में सोते हैं. अपनी इच्छा के अनुसार बिछौना भी बड़ा बनाते हैं, उपकरणों का संग्रह करते हैं. उनको उपकरण बकुश कहते हैं। जो दिनमें सोता है उसको देहबकुश कहते हैं।
सर्वार्थसिद्धि(9/47) के अनुसार बकुश साधु के इसी प्रकार के भेद बतलाते हुए कहा है –
बकुशो द्विविधः-उपकरण-बकुशः शरीरबकुश -श्चेति । तत्रोपकरणबकुशो बहुविशेष -युक्तोपकरणाकाङ्क्षी। शरीर-संस्कारसेवी शरीरबकुशः ।
अर्थात् बकुश दो प्रकार के होते हैं, - उपकरण बकुश और शरीरबकुश। अनेक प्रकारकी विशेषताओं को लिये हुए उपकरणोंको चाहनेवाला उपकरण बकुश होता हैं, तथा शरीर का संस्कार करने वाला शरीर-बकुश है।
राजवार्तिक(१/४७/४/६३८/५)में भी यही बात कही है–बकुशो द्विविधः- उपकरणबकुशः शरीर बकुशश्चेति । तत्र उपकरणाभिष्वक्तचित्तो विविधविचित्रपरिग्रहयुक्त्तःबहुविशेष-युक्तोपकरणकाङ्क्षी तत्संस्कारप्रतीकारसेवी भिक्षुरुपकरण बकुशो भवति । शरीरसंस्कारसेवी शरीरबकुशः ।
= बकुश दो प्रकार के हैं-उपकरण-बकुश और शरीर-बकुश । उपकरणोंमें जिसका चित्त आसक्त है, जो विचित्र परिग्रह युक्त हैं, जो सुन्दर सजे हुए उपकरणोंकी आकांक्षा करते हैं तथा इन संस्कारों के प्रतीकारकी सेवा करनेवाले भिक्षु उपकरण बकुश हैं। शरीर संस्कारसेवी शरीर बकुश हैं।
3. कुशील निर्ग्रन्थ–
जिस श्रमण के मूलगुण तथा उत्तरगुणों में दोष लग जाते हों, वे कुशील श्रमण हैं। इसके भी सामान्यतः दो भेद हैं - कषाय कुशील और प्रतिसेवना कुशील.
१. कषाय कुशील - जिनके मूलगुण और उत्तरगुण दोनों पूर्ण हैं, किन्तु कभी-कभार उत्तरगुणों में दोष लग जाते हैं। वस्तुतः जिन्होंने अन्य कषायों को तो रोक लिया है, किन्तु संज्वलन कषाय को नहीं रोक पाये हैं। संज्वलन कसाय जीव को यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति नहीं होने देती.
2.प्रतिसेवना कुशील-इसी तरह जो मुलगुण और उत्तरगुणों से परिपूर्ण हैं, किन्तु जिनसे कभी कभी उत्तरगुणों की विराधना हो जाती है,ऐसे निर्ग्रन्थ साधु प्रतिसेवना कुशील कहे जाते हैं। स्थानांग में कुशील निर्ग्रन्थों के पाँच भेद हैं-
१. ज्ञानकुशील- काल, विनय.उपधान, बहुमान, अनिह्नव (गुरु और शास्त्र का नाम नहीं छिपाना ).व्यंजन, अर्थ और तदुभय (व्यंजनार्थोभय)- ज्ञानाचार के इन आठ अंगों से युक्त सम्यग्ज्ञान के अभ्यास रूप ज्ञानाचार की प्रतिपालना नहीं करने वाला ज्ञानकुशील है.
यहाँ उपधान से तात्पर्य स्वाध्याय प्रारम्भ करते समय, उस शास्त्र के पूर्ण होने तक विशेष नियम या व्रत धारण करना है!
२. दर्शन कुशील- निःकांक्षित आदि आठ अंगों रूप दर्शनाचार की प्रतिपालना नहीं करने वाला।
३. चारित्रकुशील - कौतुक, भूतिकर्म (भस्मलेप या धागा बाँधकर ज्वर आदि की चिकित्मा करने वाला), प्रश्नाप्रश्न, निमित्त आजीविका, कल्क-कुरुका लक्षण, विद्या तथा मन्त्र का प्रयोग करने वाला.
४. लिंग कुशील - अन्य-अन्य साधुओं का वेष धारण करके आजीविका धारण करने वाला।
५. यथासूक्ष्म कुशील- अपने को तपस्वी आदि कहलाने या कहने से हर्षित होने वाला.
4.निर्ग्रन्थ-
जिनकी मोह और कषाय की ग्रंथियाँ क्षीण हो चुकीं है अर्थात् जल की लकीर के सदृश अन्तर्मुहुर्त के बाद ही जिन्हें केवलज्ञान प्रकट होने वाला है। इनमें मोहनीय कर्म का तो उदय नहीं होता, पर शेष घातिया कर्म का उदय होता है। ये यथाख्यात संयम के धारी तथा शुक्ल लेश्या युक्त होते हैं। ये मरकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त जाते हैं.
भगवती आराधना की विजयोदया (४३/१४२)में कहा है– तत् त्रितयमिह निर्ग्रंथ शब्देन भण्यते। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रयको यहाँ निर्ग्रंथ शब्द द्वारा कहा गया है।
प्रवचनसार./ता. वृत्ति(२०४/२७८/में कहा है– व्यवहारेण नग्नत्वको यथाजातरूपं निश्चयेन तु स्वात्मरूपं तदित्थं भूतं यथाजातरूपं धरतीति यथाजातरूपधरःनिर्ग्रंथो जात इत्यर्थः अर्थात् व्यवहार नय से नग्नत्व को यथाजातरूप कहते हैं और निश्चयनय से स्वात्मरूप को. इस प्रकार के व्यवहार व निश्चय यथाजातरूप को धारण करनेवाला यथाजातरूपधर कहलाता है। 'निर्ग्रंथ होना' इसका ऐसा अर्थ है।
सर्वार्थसिद्धि.(१/४६/४६०/१०)में कहा है— उदकदण्डराजिवदनभिव्यक्तोदयकर्माणः ऊर्ध्वं मुहूर्त्तायदुद्भिद्यमानकेवलज्ञानदर्शनभाजो'
निर्ग्रंन्थाः। अर्थात् जिस प्रकार जल में लकड़ी से की गयी रेखा अप्रगट रहती है, इसी प्रकार जिनके कर्मोंका उदय अप्रगट हो, और अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् ही जिन्हें केवलज्ञान व केवलदर्शन प्रगट होनेवाला है, वे निर्ग्रन्थ कहलाते हैं।
स्थानांगसूत्र में निर्ग्रन्थ के पाँच भेद कहे हैं-
1.प्रथमसमय निर्ग्रन्थ– निर्ग्रन्थ की काल-स्थिति अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होती है। उस काल में प्रथम समय में वर्तमान निर्ग्रन्थ ।
2. अप्रथमसमय निर्ग्रन्थ- प्रथम समय के अतिरिक्त शेष समय में वर्तमान निर्ग्रन्थ ।
३. चरम समय निर्ग्रन्थ- अन्तिम समय में वर्तमान निर्ग्रन्थ.
४. अचरम समय निर्ग्रन्थ - अन्तिम समय के अतिरिक्त शेष समय में वर्तमान निर्ग्रन्थ.
५.यथासूक्ष्मनिर्ग्रन्थ- प्रथम या अन्तिम समय की अपेक्षा किये बिना सामान्य रूप से सभी समयों में वर्तमान निर्ग्रन्थ.
५. स्नातक—
जिनके समग्र घातिया कर्म का क्षय हो चुका है। ऐसे दोनों प्रकार के (सयोग एवं अयोग) केवली को स्नातक कहते हैं। इन्हें नियम से मुक्ति प्राप्त होती है।
स्थानांग में स्नातक निर्ग्रन्थ के पांच भेद बतलाये है-सिणाते पंचविधे पण्णत्ते, तं जहा - अच्छवी, असबले, अकम्मंसे, संसुद्धणाणदंसणधरे-अरहा जिणे केवली, अपरिस्साई । अर्थात्-
1.अच्छवी– काययोग का निरोध करने वाले
२. अशबल - निरतिचार साधुत्व का पालन करने वाले.
३. अकर्मांश -घात्यकर्म का पूर्णतः क्षय करनेवाले.
4.संशुद्धज्ञानदर्शनधारी–अर्हत्, जिन, केवली.
5.अपरिस्सावी–सम्पूर्ण काययोग का निरोध करने वाला.
निष्कर्ष…इस प्रकार वस्तुतः पुलाक आदि पूर्वॉक्त पांचोँ निर्ग्रन्थ ही हैं.इसीलिए सर्वार्थसिद्धि -(१/४६/४६०/१२)में कहा है-- त एते पंचापि -निर्ग्रंन्थाः। चारित्रपरिणामस्य प्रकर्षाप्रकर्षभेदे सत्यपि नैगमसंग्रहादिनयापेक्षया सर्वेऽपि ते निर्ग्रन्थाः – अर्थात् ये पाँचों ही निर्ग्रन्थ होते हैं। इनमें चारित्ररूप परिणामों की न्यूनाधिकता के कारण भेद होने पर भी नैगम और संग्रह आदि (द्रव्यार्धिक) नयोंकी अपेक्षा वे सब निर्ग्रन्थ कहलाते हैं.
तत्त्वार्थराजवार्तिक(9/46/637/) में पुलाकादि के निर्ग्रन्थ होने सम्बन्धी महत्वपूर्ण शंका प्रस्तुत करते हुए, इसका समाधान भी किया गया है - यथा गृहस्थश्चारित्रभेदान्निर्ग्रन्थव्यप देशभाग् न भवति तथा पुलाकादीनामपि प्रकृष्टाप्रकृष्टमध्य-चारित्र भेदान्निर्ग्रंथत्वं
- नोपपद्यते । । ६ । न वैष दोषः । कुतः यथाजात्या चारिध्ययनादिभेदेन भिन्नेषु ब्राह्मणशब्दोऽवशिष्टो वर्तते तथा निर्ग्रन्थशब्दोऽपि इति ।७। किं च यद्यपि निश्चयनयापेक्षया गुणहीनेषु न प्रवर्तते तथापि संग्रहव्यवहारनय-विवक्षावशात्सकल-विशेषसंग्र-हो भवति। किंच दृष्टिरूपसामान्यात् ।६। भग्नव्रते
वृत्तावतिप्रसंग इति चेत्, न, रूपाभावात् ।१०। अन्यस्मिन् सरूपेऽतिप्रसंग इति चेद,न, दृष्ट्यभावात् । ११... किमर्थः पुलाकादि उपदेशः ... चारित्रगुणस्योत्तरोत्तरप्रकर्षेवृत्तिविशेष -ख्यापनार्थः पुलाकाद्युपदेशः क्रियते ।१२। -
अर्थात् यहाँ प्रश्न हैकि - जैसे गृहस्थ चारित्रभेद होनेके कारण निर्ग्रन्थ नहीं कहा जाता, वैसे ही पुलाकादि को भी उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य आदि चारित्र भेद होनेपर भी निर्ग्रन्थ नहीं कहना चाहिये ! -इसका समाधान करते हुए आ. अकलंकदेव कहते हैं– १- जैसे चारित्र व अध्ययन आदि का भेद होनेपर भी सभी ब्राह्मणोंमें जाति की दृष्टिसे ब्राह्मण शब्दका प्रयोग समानरूप से होता है, उसी प्रकार पुलाक आदि में भी निर्ग्रन्थ शब्दका प्रयोग हो जाता है। २- यद्यपि निश्चय नय से गुणहीनों में निर्ग्रन्थ शब्द नहीं प्रवर्तता, परन्तु संग्रह और व्यवहार नय की अपेक्षा वहाँ भी उस शब्दका प्रयोग सर्वसंग्रहार्थ कर लिया जाता है।
३- सम्यग्दर्शन और नग्न रूप की अपेक्षा भी वे सब समान हैं।
आगे प्रश्न यह है कि- यदि व्रतोंका भंग हो जाने पर भी आप इनमें निर्ग्रन्थ शब्द की वृत्ति मानते हैं,तब तो गृहस्थों में भी इसकी वृत्ति होनेका प्रसंग प्राप्त होता है ?
इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य कहते हैं –
-नहीं होता, क्योंकि वे गृहस्थ नग्नरूपधारी नहीं हैं। आगे प्रश्न है-- तब जिस किसी भी नग्नरूपधारी मिथ्यादृष्टि में उसकी वृत्तिका प्रसंग प्राप्त हो जायगा ?
इसका उत्तर है- नहीं, क्योंकि उन मिथ्यादृष्टि में सम्यग्दर्शन नहीं पाया जाता.
पुनः प्रश्न—फिर उसमें पुलाकादि भेदों का व्यपदेश ही क्यों किया?क्योंकि चारित्र गुण का क्रमिक विकास और क्रम- प्रकर्ष दिखाने के लिए इनकी चर्चा यहाँ की गई है.
इस प्रकार इन पांच निर्ग्रंन्थों का तुलनात्मक अध्ययन इसलिए भी बहुत ही महत्वपूर्ण है ताकि जैन धर्म की दोनों ही परम्पराओं के शास्त्रों का यह वैशिष्टय् सामने आ सके कि सैद्धान्तिक दृष्टि से भी कोई विशेष भिन्नता नहीं है, अपितु दोनों में समानतायें अधिकतो हैं ही, एक दूसरे के पूरक भी हैं.
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