🌹 *अहिंसा परमोधर्म:*
✍️ डॉ रंजना जैन दिल्ली
*'अत्ता चेव अहिंसा' का मूलमंत्र भारतीय संस्कृति का प्राणतत्त्व रहा है। इस सूत्र के अनुसार प्राणीमात्र का स्वभाव अहिंसक है। भले ही सिंह आदि प्राणी संस्कारवश/परिस्थितिवश भोजनादि के लिए हिंसा करते भी हैं, परन्तु वे भी पूर्णतः हिंसक नहीं है। अपने बच्चों पर ममता, दया एवं रक्षा की भावना उनमें अहिंसा के अस्तित्व को प्रमाणित करती है।*
*अहिंसा वीरों का आभूषण है। क्रोध, बैर, झूठ, चोरी, दुराचार, अनावश्यक-संग्रह, छल-प्रपंच आदि की दुष्प्रवृत्तियाँ अहिंसक-मानस में कभी नहीं पनपती हैं।* इसीलिए 'महर्षि पतंजलि' ने लिखा है कि --
*"अहिंसा-प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्याग:।"*
--(योगसूत्र, 2/35)
अर्थात् *जब जीवन में अहिंसा की भावना प्रतिष्ठित हो जाती है, तो व्यक्ति के मन से बैरभाव का त्याग हो ही जाता है।*
*अहिंसा एक ऐसे वटवृक्ष के समान है जिसमें सत्य, शील, दया, क्षमा, निरभिमानता, परोपकार आदि की सद्भावनायें पक्षियों की तरह घोंसला बनाकर निवास करती हैं।*
*विश्व को सभ्यता और संस्कृति की शिक्षा देने के कारण 'विश्वगुरु' की पदवी-प्राप्त भारतवर्ष में अहिंसा को जीवन-दर्शन का मेरुदंड माना गया है। भारतीय दर्शन में जो मर्यादा और अनुशासन के संस्कार गहरे तक घर किये हुए हैं, उसका मूलकारण भी अहिंसक-जीवनदृष्टि ही है।*
'महर्षि मनु' ने हजारों वर्ष पूर्व लिखा था कि--
*अहिंसयैव भूतानां कार्यं श्रेयोSनुशासनम्।*
--(मनुस्मृति, 2/159)
*अहिंसा की साधना वास्तव में एक उत्कृष्ट-साधना है, इसीलिए भारतीय-मनीषियों एवं संतों ने इसे मात्र अन्य-जीवों की रक्षा तक ही सीमित नहीं रखा है। उनका मानना है कि यदि आपका मन प्रमाद, असावधानी या आवेश आदि से युक्त होता है, तो फिर किसी जीव के प्राणों का घात हो या न हो, हिंसा की उत्पत्ति तो हो चुकी है। इसप्रकार उन्होंने मात्र हिंसा की परिणति को ही नहीं, अपितु उसे उत्पत्ति के स्तर पर ही मर्यादित/नियंत्रित कर उसे आध्यात्मिक-ऊँचाइयाँ प्रदान की हैं। उनकी स्पष्ट-मानसिकता रही है कि मन से पूर्ण-अहिंसक बने बिना व्यक्ति यदि जप-तप, पूजा-पाठ, व्रत-अनुष्ठान कर भी ले; तो भी उसे आत्मदृष्टि नहीं मिल सकती, वह आत्मबोध नहीं कर सकता; क्योंकि उसकी दृष्टि हिंसा की कालिमा से कलुषित है।*
*वस्तुत: पुण्य की आसक्ति एवं आकर्षण हिंसा के मूल कारण राग-द्वेष की वृत्तियों से कलुषित-चित्त है। जो व्यक्ति अपने मन को इन कलुषित-परिणामों से मुक्तकर पूर्ण-अहिंसक बनाकर आत्मज्ञानी बन जाता है, उसे पुण्यकर्मों के प्रति विवशता जैसी भावना नहीं रह जाती।*
'नारायण श्रीकृष्ण' 'गीता' में लिखते हैं --
*"आत्मवन्तं हि कर्माणि न बध्नन्ति धनंजय!"*
अर्थात् *हे अर्जुन! जो आत्मज्ञानी हैं, जिनका चित्त विषय-वासनाओं एवं राग-द्वेष आदि हिंसामूलक-भावनाओं से रहित है, उन्हें कर्मों का बंधन नहीं होता।*
*यह आश्वासन मिलने के बाद दृढ़-विश्वास से भरपूर आत्मवेत्ता को भला पुण्यादि-कार्यों का क्या आकर्षण रह जायेगा ?*
'महात्मा बुद्ध' इसी तथ्य की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि --
*अनवस्सुत्त-चित्तस्स अनन्वाहत-चेतसो।*
*पुञ्ञ-पाप-पहीणस्स नत्थि जागरतो भयं।।*
--(धम्मपद चित्तवग्ग, 12)
अर्थात् *जिसका हृदय राग से रहित एवं द्वेष से मुक्त हो गया है, उस जागृत-पुरुष (आत्मवेत्ता व्यक्ति) को पुण्य-पाप से पृथक् हो जाने का कोई भय नहीं रह जाता।*
*अहिंसा की इतनी उदात्त एवं उच्चतम प्रतिष्ठा करनेवाली भारतीय-संस्कृति ने मात्र आध्यात्मिक-स्तर पर ही अहिंसा की प्रतिष्ठा नहीं की है, अपितु व्यावहारिक-जीवन में भी उसकी तार्किक एवं संतुलित-अवधारणा को प्रस्तुत किया गया है। अग्नि में होम/हवन करके पुण्य की आकांक्षा करनेवालों के प्रति वैदिक-पुराणों में भी सावधान करते हुए स्पष्टतः अहिंसा का पालन करने का आदेश दिया गया है --*
*"अहिंसा परमो धर्मस्तदग्निर्ज्वाल्यते कुत:।*
*हूयमाने यतो वह्नौ सूक्ष्मजीववधो महान्।।"*
--(स्कन्द पुराण, 59/37)
अर्थात् *'अहिंसा परमधर्म है'-- ऐसी स्थिति में अग्नि को (धर्मकार्यों में) जलाना कहाँ तक उचित है ? क्योंकि अग्नि में आहूति देने आदिरूप क्रियाओं से सूक्ष्म-जीवों का अपार-वध (भारी-हिंसा) होती ही है।*
*वस्तुतः उत्कृष्ट अहिंसक-मानसिकता से ही प्राणीमात्र के प्रति करुणा, दया एवं वात्सल्य की उदार-भावना के द्वारा 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की उक्ति को चरितार्थ किया जा सकता है। अत: अहिंसा एक अति-व्यापक धर्म होने से विश्वधर्म है, तथा आज संपूर्ण विश्व इसी की छाया में संरक्षित रह सकता है।*
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