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Antiquity of Jainism....जैन धर्म की प्राचीनता

जैन धर्म की प्राचीनता....
Antiquity of Jainism....

None can ignore the remarkably rich Jain heritage in India for over 5,000 years. The Jain and the Vedic traditions comprise the two ancient streams of religious and philosophical thought in India, the former being the older.

Jain principles are radically different from mono/polytheistic faiths; Jainism, for instance, is irreligious in its denial of the concept of creation/creator and ins¬tead follows the ‘Anadi Anantam Cho’ evolutionary concept, that is, the universe has always existed and will always  exist.

Nude figures, considered Rishabha, have been discovered at Mohenjodaro and Harappa. Seal motifs found there are identical to those found in the ancient Jain art at Mathura.

Scholars like Radha Mookerji, Roth, Chakravarti, Ram Prasad Chanda, T.N. Ramchandran, Maha¬devan, Kamta Jain, Radhakrishnan, Hiralal Jain, Zimmer, Jacobi and Vincent Smith have all established that Jainism is anancient religion which is not a sect or sub-sect. The Shramana tradi¬tion of Jainism significantly predates the Vedic one.

Radhakrishnan noted that Rishabhdeo had been recognised even in the Bhagvada Purana and was worshipped well before the first century BC. The Yajurveda mentions the names of three Tir¬thankaras.

Eminent writer Dr Jyoti Jain wrote that there is absolutely no evidence that “Jainism branched off from the Vedic religion...instead it may well be the oldest living religion of non-Aryan or pre-Aryan origin”. From the Encyclopaedia of Religions to Encyclopaedia Britannica, Jainism is defined and treated as a separate religion.

That Jains do not believe in God as a creator, that it was a distinct religion flourishing before Christianity, that it flourished long before Hinduism as an independent religion .

“If this is not history and Historical Confirmation I do not know what else would be covered by these terms”
Barrister Champatrai

“It should be borne in mind, however, while prehistory is a period of the history of mankind for which there are no written sources, archaeology is a method of remained leftby the people of past.”
(Introduction, History of humanity, Vol. 1 Pre-History and begnnings of Civilization Ed. S.J. Laser, Unesco, 1994)

सृष्टि अनादि-निधन है। सभी प्रकार के ज्ञान, विचारधाराएँ भी अनादि निधन है। समय-समय पर उन्हें प्रकट करने वाले अक्षर, पद, भाषा और पुरुष भिन्न हो सकते हैं।

इस युग में सदियों पहले श्री ऋषभदेव द्वारा जैन धर्म का प्रादुर्भाव हुआ। जैन धर्म की प्राचीनता प्रामाणिक करने वाले अनेक उल्लेख अजैन साहित्य और खासकर वैदिक साहित्य में प्रचुर मात्रा में हैं। अर्हंतं, जिन, ऋषभदेव, अरिष्टनेमि आदि तीर्थंकरों का उल्लेख ऋग्वेदादि में बहुलता से मिलता है, जिससे यह स्वतः सिद्ध होता है कि वेदों की रचना के पहले जैन-धर्म का अस्तित्व भारत में था। 

श्रीमद्‍ भागवत में श्री ऋषभदेव को विष्णु का आठवाँ अवतार और परमहंस दिगंबर धर्म का प्रतिपादक कहा है। विष्णु पुराण में श्री ऋषभदेव, मनुस्मृति में प्रथम जिन (यानी ऋषभदेव) स्कंदपुराण, लिंगपुराण आदि में बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि का उल्लेख आया है। दीक्षा मूर्ति-सहस्रनाम, वैशम्पायन सहस्रनाम महिम्न स्तोत्र में भगवान जिनेश्वर व अरहंत कह के स्तुति की गई है। योग वाशिष्ठ में श्रीराम ‘जिन’ भगवान की तरह शांति की कामना करते हैं। इसी तरह रुद्रयामलतंत्र में भवानी को जिनेश्वरी, जिनमाता, जिनेन्द्रा कहकर संबोधन किया है। नगर पुराण में कलयुग में एक जैन मुनि को भोजन कराने का फल कृतयुग में दस ब्राह्मणों को भोजन कराने के बराबर कहा गया है। इस तरह के कुछ उद्धरण इसी पुस्तक के अन्य पाठों में दिए गए हैं। प्रस्तुत पाठ में कुछ विद्वानों, इतिहासज्ञों, पुरातत्वज्ञों की मान्यताओं का उल्लेख किया गया है।

‘जैन परम्परा ऋषभदेव से जैन धर्म की उत्पत्ति होना बताती है जो सदियों पहले हो चुके हैं। इस बात के प्रमाण हैं कि ईस्वी सन्‌ से एक शताब्दी पूर्व में ऐसे लोग थे जो कि प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की पूजा करते थे। इसमें कोई संदेह नहीं है कि जैन धर्म महावीर और पार्श्वनाथ से भी पूर्व प्रचलित था। यजुर्वेद में तीन तीर्थंकर ऋषभ, अजितनाथ, अरिष्टनेमि के नामों का उल्लेख है। भागवत पुराण भी इस बात का समर्थन करता है कि ऋषभदेव जैन धर्म के संस्थापक थे।’ Indian Philosophy P.287 डॉ. राधाकृष्णन्‌

‘जैन-विचार निःसंशय प्राचीनकाल से हैं। क्योंकि ‘अर्हन इदं दय से विश्वमभ्वम्‌’ इत्यादि वेद वचनों में वह पाया जाता है।’ – संत विनोबा भावे

‘मुझे प्रतीत होता है कि प्राचीनकाल में चार बुद्धया मेधावी महापुरुष हुए हैं। इनमें पहले आदिनाथ या ऋषभदेव थे। दूसरे नेमिनाथ थे। ये नेमिनाथ ही स्केंडिनेविया निवासियों के प्रथम ओडिन तथा चीनियों के प्रथम फो नामक देवता थे।’– राजस्थान – कर्नल टाड

‘इन खोजों (मथुरा के स्तूप आदि से) से लिखित जैन परम्परा का बहुत सीमा तक समर्थन हुआ है और वे जैन धर्म की प्राचीनता के और प्राचीनकाल में भी बहुत ज्यादा वर्तमान स्वरूप में ही होने के स्पष्ट व अकाट्य प्रमाण हैं। ईस्वी सन्‌ के प्रारंभ में भी चौबीस तीर्थंकर अपने भिन्न-भिन्न चिह्नों सहित निश्चित तौर पर माने जाते थे।’
– इतिहास विसेन्ट स्मिथ

‘जैन परम्परा इस बात में एक मत है कि ऋषभदेव, प्रथम तीर्थंकर जैन धर्म के संस्थापक थे। इस मान्यता में कुछ ऐतिहासिक सत्यता संभव है।’ (Indian Antiquary Vol. 19 p. 163) Dr. jacobi

‘हम दृढ़ता से कह सकते हैं कि अहिंसा-धर्म (जैन धर्म) वैदिक धर्म से अधिक प्राचीन नहीं तो वैदिक धर्म के समान तो प्राचीन है।’Cultural Heritage of india page 185-8

‘यह भी निर्विवाद सिद्ध हो चुका है कि बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध के पहले भी जैनियों के 23 तीर्थंकर हो चुके हैं।’ – इम्पीरियल गजेटियर ऑफ इंडिया, पृष्ठ-51

‘बौद्धों के निर्ग्रन्थों (जैनों) का नवीन सम्प्रदाय के रूप में उल्लेख नहीं किया है और न उसके विख्यात संस्थापक नातपुत्र (भगवान महावीर स्वामी) का संस्थापक के रूप में ही किया है। इससे जैकोबी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि जैन धर्म के संस्थापक महावीर की अपेक्षा प्राचीन है। यह सम्प्रदाय बौद्ध सम्प्रदाय के पूर्ववर्ती है।’– Religion of India By Prof. E.W. Hopkins S.P.P. 283.

‘दान-पत्र पर उक्त पश्चिमी एशिया सम्राट की मूर्ति अंकित है जिसका करीब 3200 वर्ष पूर्व का अनुमान किया जाता है।’  (19 मार्च, 1895 साप्ताहिक टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित ताम्र-पत्र के आधार पर) डॉ. प्राणनाथ विद्यालंकार

‘ईस्वी सन्‌ से लगभग 1500 से 800 वर्ष पूर्व और वास्तव में अनिश्चितकाल से… संपूर्ण उत्तर भारत में एक प्राचीन, व्यवस्थित, दार्शनिक, सदाचार युक्त एवं तप-प्रधान धर्म अर्थात जैन-धर्म प्रचलित था जिससे ही बाद में ब्राह्मण व बौद्ध-धर्म के प्रारंभ में संन्यास मार्ग विकसित हुए। आर्यों के गंगा, सरस्वती तट पर पहुँचने के पहले ही जो कि ईस्वी सन्‌ से 8वीं या 9वीं शताब्दी पूर्व के ऐतिहासिक तेईसवें पार्श्व के पूर्व बाईस तीर्थंकर जैनों को उपदेश दे चुके थे।’
Short studies in the Science of Comparative Religion p. 243-244 by Major General Fulong F.R.A.S.

‘पाँच हजार वर्ष पूर्व के सभ्यता-सम्पन्न नगर मोहन जोदड़ो व हड़प्पा की खुदाई से प्राप्त सील, नं. 449 में जिनेश्वर शब्द मिलता है।’
– डॉ. प्राणनाथ विद्यालंकार

‘मोहन जोदड़ो और हड़प्पा से प्राप्त मोहरों में जो मुद्रा अंकित है, वह मथुरा की ऋषभदेव की मूर्ति के समान है व मुद्रा के नीचे ऋषभदेव का सूचक बैल का चिह्न भी मिलता है।’ (Modern Reliew of August, 1932) पुरातत्वज्ञ श्री रामप्रसाद चंदा

‘तीर्थंकरों की मान्यता अत्यंत प्राचीन है जैसा कि मथुरा के पुरातत्व से सिद्ध है… महावीर इस परंपरा में अंकित रहे हैं।’– रिलीजन्स ऑफ एनिन्सयंट इंडिया-पृष्ठ 111-112  डॉ. लुई रिनाड, पेरिस (प्रवास)

‘जैन धर्म का अणुवाद (Atomic Theory) भी उसकी प्राचीनता का पोषक है। किसी भी प्राचीन मत में सांख्य व योग-दर्शन में भी अणुवाद का उल्लेख नहीं मिलता है। यथार्थ इसके बाद के वैशेषिक व न्याय दर्शन।’

“If (the Atomic theory) has been adopted by the Jains And….. also by the Ajvikas – we place the jains first because they seem to have worked out there system from the most primitive notions about matter.” H. Jacobi Enoyolor of Religion & Ethics Vol. II. P. 199-200

‘मोहन जोदड़ों की खुदाई में योग के जो प्रमाण मिले हैं, वे जैन मार्ग के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव के हैं। इस दृष्टि से जैन विद्वानों का यह मानना अयुक्तियुक्त नहीं दिखता कि ऋषभदेव वेदोल्लिखित होने से भी वेद-पूर्व हैं।’ – संस्कृति के चार अध्याय – पृष्ठ-62, राष्ट्रकवि रामधारीसिंह दिनकर

‘शुद्ध ऐतिहासिक दृष्टि से यदि विचार करें तो यह मानना ही पड़ता है कि भारतीय सभ्यता के निर्माण में आदिकाल से ही जैनियों का हाथ था जो मोहन जोदड़ों की मुद्राओं में मिलता है।’– हिमालय में भारतीय संस्कृति, पृ. 47 – विश्वम्भरसहाय प्रेमी

‘विद्वानों का अभिमत है कि यह धर्म (जैन) प्राग्‌ ऐतिहासिक व प्राग्‌ वैदिक है। सिन्धु घाटी की सभ्यता से मिली योग मूर्ति तथा ऋग्वेद के कतिपय मंत्रों में ऋषभदेव तथा अरिष्टनेमि जैसे तीर्थंकरों के नाम इस विचार के मुख्य आधार हैं।’
– मिश्र-भारतीय इतिहास व संस्कृति, पृ. 199-200 (डॉ. विशुद्धानंद पाठक और पंडित जयशंकर मिश्र)

‘जैसा कि पहले तीर्थंकर सिन्धु सभ्यता से ही थे। सिन्धु जनों के देव नग्न होते थे, जैसे लोगों ने उस सभ्यता व संस्कृति को बनाए रखा और नग्न तीर्थंकरों की पूजा की।’
– इण्डस सिविलाइजेशन ऋग्वेद एण्ड हिन्दू कल्चर’ (पृष्ठ 344 – श्री पी.आर. देशमुख)

‘जैन धर्म संसार का मूल अध्यात्म धर्म है, इस देश में वैदिक धर्म के आने से बहुत पहले से ही यहाँ जैन धर्म प्रचलित था।’ – उड़ीसा में जैन धर्म’ – श्री नीलकंठ शास्त्री

‘मथुरा के कंकाली टीला में महत्वपूर्ण जैन पुरातत्व के 110 शिलालेख मिले हैं, उनमें सबसे प्राचीन देव निर्मित स्तूप विशेष उल्लेखनीय हैं, पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार ईसा पूर्व 800 के आसपास उसका पुनर्निर्माण हुआ। कुछ विद्वान इस स्तूप को तीन हजार वर्ष प्राचीन मानते हैं।’
-मथुरा के जैन साक्ष्य ऋषभ सौरभ- 3, डॉ. रमेशचंद शर्मा

‘वाचस्पति गैरोला का भारतीय दर्शन प्र. 93 पर कथन है कि ‘भारतीय इतिहास, संस्कृति और साहित्य ने इस तथ्य को पुष्ट किया है कि सिन्धु घाटी की सभ्यता जैन सभ्यता थी।’– भारतीय दर्शन पृ. – 93 – डॉ. गेरोला

‘जैन धर्म हड़प्पा सभ्यता जितना पुराना है और प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव कम से कम ईसा से लगभग 2700 वर्ष पूर्व सिन्धु-घाटी सभ्यता में समृद्धि या प्रसिद्धि को प्राप्त हुए हैं। ऋग्वेद के अनुसार जिसने परम सत्य को उद्घोषित किया और पशुबलि और पशुओं के प्रति अत्याचार का विरोध किया।

(हड़प्पा की खुदाई से प्राप्त कुछ मूर्तियों के संदर्भ में) बहुत प्राचीन काल से भारतीय शिल्पकला की दृष्टि से ऐसी नग्न मूर्तियाँ जैन तीर्थंकरों की तपस्या और ध्यान-मुद्रा की हैं। इन मूर्तियों की तपस्या और ध्यान करती हुई शांत मुद्रा श्रवणबेलगोला, कारकल, यनूर की प्राचीन जैन मूर्तियों से मिलती हैं। (अँग्रेजी से अनुवाद)’ – हड़प्पा और जैन-धर्म, टी.एन. रामचंद्रन

‘सिन्धु घाटी की अनेक सीलों में उत्कीर्ण देवमूर्तियाँ न केवल बैठी हुई योगमुद्रा में हैं और सुदूर अतीत में सिन्धु घाटी में योग के प्रचलन की साक्षी है अपितु खड़ी हुई देवमूर्तियाँ भी हैं जो कायोत्सर्ग मुद्रा को प्रदर्शित करती है…।

कायोत्सर्ग मुद्रा विशेषतया जैनमुद्रा है? यह बैठी हुई नहीं खड़ी हुई है। आदिपुराण के अठारहवें अध्याय में जिनों में प्रथम जिन ऋषभ या वृषभ की तपश्चर्या के सिलसिले में कायोत्सर्ग मुद्रा का वर्णन हुआ है।’

कर्जन म्यूजियम ऑफ आर्कियोलॉजी मथुरा में सुरक्षित एक प्रस्तर-पट्ट पर उत्कीर्णित चार मूर्तियों में से एक वृषभ जिन की खड़ी हुई मूर्ति कायोत्सर्ग मुद्रा में है। यह ईसा की द्वितीय शताब्दी की है। मिश्र के आरंभिक राजवंशों के समय की शिल्प-कृतियों में भी दोनों ओर हाथ लटकाए खड़ी कुछ मूर्तियाँ प्राप्त हैं। यद्यपि इन प्राचीन मिश्री मूर्तियाँ और यूनान की कुराई मूर्तियों की मुद्राएँ भी वैसी ही हैं, तथापि वह देहोत्सर्गजनित निःसंगता जो सिन्धु घाटी की सीलों पर अंकित मूर्तियाँ तथा कायोत्सर्ग ध्यानमुद्रा में लीन जिन-बिम्बों में पाई जाती हैं, इनमें अनुपस्थित है। वृषभ का अर्थ है बैल और बैल वृषभ या ऋषभ जिन की मूर्ति का पहचान चिह्न है।’

‘ – (अंग्रेजी से अनुवाद) सिंध फाइव थाऊजेंड इअर्स अगो, पेज-158-159 (मॉडर्न रिव्यू कलकत्ता – अगस्त, 1932 – पुरातत्वज्ञ रामप्रसाद चंदा)

हिन्दू  धर्म के अनुसार जैनधर्म की प्राचीनता किस प्रकार से सिद्ध होती है? 

हिन्दू  धर्म के विभिन्न शास्त्रों एवं पुराणों के अन्वेषण से ज्ञात होता है कि जैनधर्म की प्राचीनता कितनी अधिक है- जिसे हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं

1. शिवपुराण में लिखा है - 
अष्टषष्ठिसु तीर्थषु यात्रायां यत्फलं भवेत्।
श्री आदिनाथ देवस्य स्मरणेनापि तदभवेत्॥ 

अर्थ - अड़सठ (68) तीर्थों की यात्रा करने का जो फल होता है, उतना फल मात्र तीर्थंकर आदिनाथ के स्मरण करने से होता है।

2. महाभारत में कहा है -
युगे युगे महापुण्यं द्श्यते द्वारिका पुरी,
अवतीर्णो हरिर्यत्र प्रभासशशि भूषणः ।
रेवताद्री जिनो नेमिर्युगादि विंमलाचले, 
ऋषीणामा श्रमादेव मुक्ति मार्गस्य कारणम् ॥ 

अर्थ-युग-युग में द्वारिकापुरी महाक्षेत्र है, जिसमें हरिका अवतार हुआ है। जो प्रभास क्षेत्र में चन्द्रमा की तरह शोभित है और गिरनार पर्वत पर नेमिनाथ और कैलास (अष्टापद) पर्वत पर आदिनाथ हुए हैं। यह क्षेत्र ऋषियों का आश्रय होने से मुक्तिमार्ग का कारण है।

3. महाभारत में कहा है - 
आरोहस्व रथं पार्थ गांढीवं करे कुरु।
निर्जिता मेदिनी मन्ये निर्ग्र्था यदि सन्मुखे ||
अर्थ-हे अर्जुन! रथ पर सवार हो और गांडीव धनुष हाथ में ले, मैं जानता हूँ कि जिसके सन्मुख मुनि आ रहे हैं उसकी जीत निश्चित है। 

4. ऋग्वेद में कहा है - 
ॐ त्रैलोक्य प्रतिष्ठितानां चतुर्विशति तीर्थंकराणाम् ।
ऋषभादिवर्द्धमानान्तानां सिद्धानां शरणं प्रपद्ये । 

अर्थ-तीन लोक में प्रतिष्ठित आदि श्री ऋषभदेव से लेकर श्री वर्द्धमान स्वामी तक चौबीस तीर्थंकर हैं। उन सिद्धों की शरण को प्राप्त होता हूँ।

5. ऋग्वेद में कहा है - 
ॐ नग्नं सुधीरं दिग्वाससं। ब्रह्मगर्भ सनातनं उपैमि वीरं।
पुरुषमर्हतमादित्य वर्णं तसमः पुरस्तात् स्वाहा ||
अर्थ- मैं नग्न धीर वीर ब्रह्मरूप सनातन अहत आदित्यवर्ण पुरुष की शरण को प्राप्त होता हूँ। 

6. यजुर्वेद में कहा है - 
ॐ नमोऽर्हन्तो ऋषभो । 

अर्थ-अर्हन्त नाम वाले पूज्य ऋषभदेव को प्रणाम हो। 

7. दक्षिणामूर्ति सहस्रनाम ग्रन्थ में लिखा है - 
शिव उवाच । 
जैन मार्गरतो जैनो जितक्रोधो जितामय:। 

अर्थ- शिवजी बोले, जैन मार्ग में रति करने वाला जैनी क्रोध को जीतने वाला और रोगों को जीतने वाला है।

8. नगर पुराण में कहा है -
दशभिभोंजितैर्विप्रै: यत्फल जायते कृते ।
मुनेरहत्सुभक्तस्य तत्फल जायते कलौ।

अर्थ- सतयुग में दस ब्राह्मणों को भोजन देने से जो फल होता है। उतना ही फल कलियुग में अहन्त भक्त एक मुनि को भोजन देने से होता है। 

9. भागवत के पाँचवें स्कन्ध के अध्याय 2 से 6 तक ऋषभदेव का कथन है। जिसका भावार्थ यह है कि चौदह मनुओं में से पहले मनु स्वयंभू के पौत्र नाभि के पुत्र ऋषभदेव हुए, जो जैनधर्म के आदि प्रचारक थे। ऋग्वेद में भगवान् ऋषभदेव का 141 ऋचाओं में स्तुति परक वर्णन किया है। ऐसे अनेक ग्रन्थों में अनेक दृष्टान्त हैं।
(Image curtsey - Sanjeev k. Gupta USK)

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