Skip to main content

क्या जैन का मतलब बनिया होता है ?

Dr Amit Rai Jain के फेसबुक वाल से साभार

क्या जैन मतलब बणिया होता है ?
#Jain_Bania
 सोशल मीडिया पर चल रहे माहौल को देखते हुए मैं यह पोस्ट लिख रहा हूं,कि क्या जैन का अर्थ बणिया होता है,आमतौर पर सबकी यह धारणा होती है कि जैन से आशय बणिया/वैश्य वर्ण की एक जाति है।अगर आप भी ऐसा मानते हैं तो आप बहुत बड़ी गलतफहमी के शिकार है।

  जैन कोई जाति या वर्ण नहीं है,बल्कि यह स्वतंत्र धर्म है,इसे समझने के लिए हमें इसके इतिहास की ओर जाना पड़ेगा, जैन धर्म का अपना स्वतंत्र इतिहास है,यह भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे पुराना धर्म है,यहां तक कि वैदिक के भी पहले भी यहां के मूलनिवासियों का धर्म यही था,और इसके अनुयायी ही जैन थे, जिन्हें तत्कालीन समय में भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता था।

   अधिकतर लोग जानकारी के अभाव में जैन-धर्म को वैष्णव या हिंदू से जोड़कर देखते हैं,किंतु मूलनिवासी देवता शिव और प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव एक ही पुरुष थे, यहां का धर्म ऋषभदेव का अनुयायी ही था !

   अंतिम तीर्थंकर महावीर के बाद जैन-धर्म दो परंपराओं में बंट गया,दिगंबर व श्वेतांबर। दिगंबर दक्षिण भारत में अधिक प्रचारित हुआ और श्वेतांबर उत्तर भारत में,इस समय तक भारत में जाति व्यवस्था नहीं थी,बल्कि वर्ण व्यवस्था थी और चारों वर्णो( ब्राह्मण,शूद्र,वैश्य,क्षत्रिय) के लोग जैन-धर्म मानते थे।

   एक समय ऐसा आया जब वैदिक आर्यो(शंकराचार्य आदि) के शैव धर्म के अत्यधिक आग्रह से उत्तर भारत में जैन-धर्म मृतप्राय हो गया,व दक्षिण भारत के कुछ क्षेत्रों तक सीमित रह गया। दक्षिण भारत के हजारों जैन श्रमण व धर्मावलंबियों का अपना मूल धर्म ना छोड़ने के कारण सामूहिक कत्ल कर दिया गया! इतिहास में अनेकों शिलालेख एवं उदाहरण मौजूद हैं जो यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं की हजारों जैन मंदिरों मठों को जबरजस्ती बदल दिया गया, जिनके पुरातात्विक प्रमाण आज भी अनेक स्थलों पर साक्षात मौजूद हैं ! शंकराचार्य जी के आगमन से पहले भारत के सभी लोगों, समूहों, कुलो, जातियों में जैन-धर्म मौजूद था, और जैन धर्म के प्रभाव के कारण आपस में किसी तरीके का छुआछूत या भेदभाव नहीं होता था।

   जब पुनः परिस्थितियां अनुकूल हुई तब दक्षिण भारत व उत्तर भारत में कुछ जगह सुरक्षित स्थानों पर बचे जैन मुनियों ने घूम-घूमकर पुनः लोगों को जैन धर्म से जोड़ने का कार्य किया।
   
  इसमें सर्वाधिक सहयोग जैन सम्राट अमोघवर्ष का मिला,यह राष्ट्रकूट वंश का कट्टर जैन राजा था,जो कर्नाटक प्रांत का शासक था,इसने पूरे भारत को जीता और जगह-जगह राजपूत राजाओं को जैन धर्म अपनाने, प्रचार-प्रसार करने के लिए प्रोत्साहित किया (खासकर उत्तर भारत में)। अमोघवर्ष के ही कारण उत्तर भारत में जैन-धर्म दुबारा पनपा,और राजाओ ने पुनः इसे स्वीकार किया।

  इस दौरान उत्तर भारत में जाति प्रथा का आगमन होने लगा,जैन मुनियों ने भी समयानुकूल परिस्थितियों के अनुरुप जो लोग जैन बने उन्हें गांव,नगर,व्यवसाय के आधार पर नई-नई जातियों में बांट दिया।

  धार्मिक,आर्थिक दृष्टि से लोग संपन्न बने इस भावना से जैन मुनियों ने लोगों को व्यापार और कृषि कर्म से जुड़ने की प्रेरणा दी,इसी का कारण रहा कि तमाम उत्तर भारतीय जैन व्यापारी या कृषक बने, धीरे-धीरे कृषिकर्म छूटता चला गया और व्यापार एकमात्र आजीविका का साधन रह गया।
  
  इसके ठीक उलट दक्षिण भारत में हुआ यहां जैन-धर्म पर्याप्त फलां-फूला,आज भी दक्षिण भारत की सब जातियों में जैन धर्म मौजूद हैं, दक्षिण भारत के बहुसंख्यक जैन खेती करे आजीविका चलाते हैं,यह महाराष्ट्र से लेकर कर्नाटक,केरल, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश के गांवों-कस्बों में फैले हुए हैं।

  वर्तमान भारत में 50 % जैन व्यापारी जातियों से है और 50 % कृषक जातियों से।

  महाराष्ट्र में कासार, चतुर्थ,पंचम,सैतवाळ जैसी बड़ी व ताकतवर जैन जातियां हैं जो सभी कृषि से जुड़ी है। कोल्हापुर,सांगली जिलों के अधिकांश गांवों में जैन लोगों की जनसंख्या 80% तक है,ठीक यही स्थिति कर्नाटक के बेलगांव,बागलकोट,धारवाड़ जिलों में भी है।
 
    कर्नाटक के तुलुनाडू क्षेत्र में जैन धर्म आज भी होयसाल वंशीय क्षत्रियो के बीच है,यह बड़े जमींदार व कृषक है।

  इसी तरह पूर्वोत्तर भारत में सराक नाम की एक कृषक जाति है जिनका जनसंख्या 5 लाख से अधिक है,यह बंगाल, झारखंड,ओडिशा के गांवों में फैले हैं व कृषि कर्म से आजीविका निर्वाह करते हैं।

  हरियाण,पंजाब प्रदेशों में लाखों की संख्या में जाट,गुर्जर समाज में सैकड़ों सालों से जैन धर्म है,यह सभी लोग कृषि कर्म ही करते हैं।

   हाल ही में कई प्रदेशों में स्वर्ण,दलित,आदिवासी,OBC समुदाय के लाखों लोगों ने जैन-धर्म अपनाया है,और यह अधिकतर कृषिकर्म से जुड़े है।

   इसलिए अगर किसी की यह धारणा है कि जैनधर्म बणियो की एक जाति है तो उन्हें अपने मन से इस वहम को निकाल देना चाहिए।

  जैन एक स्वतंत्र धर्म है जो जातिप्रथा के अनुसार नहीं बल्कि समतावाद के सिद्धांत पर चलता है,और इसमें सभी वर्ग,समुदाय के लोग बिना भेदभाव के रहते हैं।

प्रेषक - डॉ. अमित राय जैन ( निदेशक शहजाद राय शोध संस्थान, बड़ौत)

चित्र- प्रस्तुत चित्र में प्रथम महापुरुष (बाएं से दाएं) समाज भूषण रायबहादुर लाला न्यादर मल जी जैन 'रईस,' उनके सुपुत्र सरलमना लाला गिरि लाल जी जैन एवं उनके सुपौत्र जैन रत्न लाला शहजाद राय जी जैन (बिनौली तत्कालीन जिला मेरठ, वर्तमान जिला बागपत उत्तर प्रदेश) दिखलाई पड़ रहे हैं! वर्तमान में मैं इस परिवार की तीसरी पीढ़ी से हूं! जैन धर्म में कृषि कर्म और जमीनों और पशुधन से लगाव का यह परिवार अप्रतिम उदाहरण है ! करीब 100 वर्ष पूर्व इस परिवार के पास 8 गांव रकबा जमीन थी, जो जमीदारी उन्मूलन एक्ट के बाद उन सभी जमीनों पर खेती कर रहे किसानों और आमजन के नाम कर दी गई ! परंतु उसके बावजूद आज तक इस परिवार के पास काफी परिवारिक परंपरा के मुताबिक कृषि भूमि मौजूद है, जिस पर वर्तमान में भी कृषि कर्म किया जा रहा है! कृषि कर्म के साथ-साथ इस परिवार का स्थानकवासी जैन धर्म का पश्चिमी उत्तर प्रदेश स्तर पर संरक्षण, करीब 200 वर्ष प्राचीन अभिलेखागार जहां पर अभिलेखों का दुर्लभ संग्रह वर्तमान में मेरे द्वारा संरक्षित किया जाता है, देश के आजादी आंदोलन में परिवार की महिलाओं का सक्रिय हिस्सेदारी लेना, अनेकों धर्म स्थलों का व्यक्तिगत स्तर पर निर्माण किया जाना, अनेकों शैक्षणिक संस्थाओं की स्थापना जहां से लाखों विद्यार्थी माध्यमिक से लगाकर उच्चतम शिक्षा प्राप्त कर चुके हैं, आदि कार्य इस परिवार का जमीन से जुड़े होने का प्रबल उदाहरण है!

Comments

Popular posts from this blog

जैन ग्रंथों का अनुयोग विभाग

जैन धर्म में शास्त्रो की कथन पद्धति को अनुयोग कहते हैं।  जैनागम चार भागों में विभक्त है, जिन्हें चार अनुयोग कहते हैं - प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग।  इन चारों में क्रम से कथाएँ व पुराण, कर्म सिद्धान्त व लोक विभाग, जीव का आचार-विचार और चेतनाचेतन द्रव्यों का स्वरूप व तत्त्वों का निर्देश है।  इसके अतिरिक्त वस्तु का कथन करने में जिन अधिकारों की आवश्यकता होती है उन्हें अनुयोगद्वार कहते हैं। प्रथमानुयोग : इसमें संयोगाधीन कथन की मुख्यता होती है। इसमें ६३ शलाका पुरूषों का चरित्र, उनकी जीवनी तथा महापुरुषों की कथाएं होती हैं इसको पढ़ने से समता आती है |  इस अनुयोग के अंतर्गत पद्म पुराण,आदिपुराण आदि कथा ग्रंथ आते हैं ।पद्मपुराण में वीतरागी भगवान राम की कथा के माध्यम से धर्म की प्रेरणा दी गयी है । आदि पुराण में तीर्थंकर आदिनाथ के चरित्र के माध्यम से धर्म सिखलाया गया है । करणानुयोग: इसमें गणितीय तथा सूक्ष्म कथन की मुख्यता होती है। इसकी विषय वस्तु ३ लोक तथा कर्म व्यवस्था है। इसको पढ़ने से संवेग और वैराग्य  प्रकट होता है। आचार्य यति वृषभ द्वारा रचित तिलोयपन...

णमोकार महामंत्र के 9 रोचक तथ्य

9 अप्रैल 2025 विश्व नवकार सामूहिक मंत्रोच्चार पर विशेष – *णमोकार महामंत्र के 9 रोचक तथ्य* डॉ.रूचि अनेकांत जैन प्राकृत विद्या भवन ,नई दिल्ली १.   यह अनादि और अनिधन शाश्वत महामन्त्र है  ।यह सनातन है तथा श्रुति परंपरा में यह हमेशा से रहा है । २.    यह महामंत्र प्राकृत भाषा में रचित है। इसमें कुल पांच पद,पैतीस अक्षर,अन्ठावन मात्राएँ,तीस व्यंजन और चौतीस स्वर हैं । ३.   लिखित रूप में इसका सर्वप्रथम उल्लेख सम्राट खारवेल के भुवनेश्वर (उड़ीसा)स्थित सबसे बड़े शिलालेख में मिलता है ।   ४.   लिखित आगम रूप से सर्वप्रथम इसका उल्लेख  षटखंडागम,भगवती,कल्पसूत्र एवं प्रतिक्रमण पाठ में मिलता है ५.   यह निष्काम मन्त्र है  ।  इसमें किसी चीज की कामना या याचना नहीं है  । अन्य सभी मन्त्रों का यह जनक मन्त्र है  । इसका जाप  9 बार ,108 बार या बिना गिने अनगिनत बार किया जा सकता है । ६.   इस मन्त्र में व्यक्ति पूजा नहीं है  । इसमें गुणों और उसके आधार पर उस पद पर आसीन शुद्धात्माओं को नमन किया गया है...

सम्यक ज्ञान का स्वरूप

*सम्यक ज्ञान का स्वरूप*  मोक्ष मार्ग में सम्यक ज्ञान का बहुत महत्व है । अज्ञान एक बहुत बड़ा दोष है तथा कर्म बंधन का कारण है । अतः अज्ञान को दूर करके सम्यक ज्ञान प्राप्त करने का पूर्ण प्रयास करना चाहिए । परिभाषा -  जो पदार्थ जैसा है, उसे वैसे को वैसा ही जानना, न कम जानना,न अधिक जानना और न विपरीत जानना - जो ऍसा बोध कराता है,वह सम्यक ज्ञान है । ज्ञान जीव का एक विशेष गुण है जो स्‍व व पर दोनों को जानने में समर्थ है। वह पा̐च प्रकार का है–मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय व केवलज्ञान। अनादि काल से मोहमिश्रित होने के कारण यह स्‍व व पर में भेद नहीं देख पाता। शरीर आदि पर पदार्थों को ही निजस्‍वरूप मानता है, इसी से मिथ्‍याज्ञान या अज्ञान नाम पाता है। जब सम्‍यक्‍त्व के प्रभाव से परपदार्थों से भिन्न निज स्‍वरूप को जानने लगता है तब भेदज्ञान नाम पाता है। वही सम्‍यग्‍ज्ञान है। ज्ञान वास्‍तव में सम्‍यक् मिथ्‍या नहीं होता, परन्‍तु सम्‍यक्‍त्‍व या मिथ्‍यात्‍व के सहकारीपने से सम्‍यक् मिथ्‍या नाम पाता है। सम्‍यग्‍ज्ञान ही श्रेयोमार्ग की सिद्धि करने में समर्थ होने के कारण जीव को इष्ट है। जीव का अपना प्रतिभ...