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Showing posts from April, 2022

अब तो महावीर बन जाएं

*आओ अब तो महावीर बन जायें* ✍️डॉ रुचि अनेकान्त जैन ,नई दिल्ली  प्रतिवर्ष महावीर जन्मोत्सव को पूरे विश्व में बड़ी धूमधाम के साथ मनाया जाता है | सुबह प्रभातफेरी से लेकर दिनभर और शाम तक देश दुनिया के  अलग-अलग भागों में अनेक पूजन,अभिषेक,संगोष्ठियां तथा सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से बड़े हर्षोल्लास पूर्वक महावीर जन्म कल्याणक महोत्सव मनाया जाता है । महावीर जन्मोत्सव हजारों वर्षों से मनाते आ रहे हैं किंतु वर्ष में सिर्फ एक बार महावीर के सिद्धांतों को याद करके क्या हम महावीर जैसे बन सकते हैं ?आज इस बात पर विचार करना बहुत आवश्यक हो गया है कि क्या हमें महावीर की जीवन शैली को ,उनके सिद्धांतों को प्रतिपल, साल के तीन सौ पैंसठ दिन नहीं अपनाना चाहिए ? ऐसा जिस दिन होगा तभी हमारा महावीर जन्मोत्सव मनाना सफल होगा। आज के इस समय में जिसमें अधिकांश लोग अवसाद से घिरे हुए हैं ,भारत में ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व में कोरोना महामारी का प्रकोप छाया हुआ है ,ऐसे में महावीर के प्रमुख सिद्धांतों अहिंसा ,अनेकांत और अपरिग्रह को जीवन में अपनाने की आवश्यकता है। वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए ,अहिंसा के सिद्धांत

महावीर की 11 शिक्षाएं

*भगवान महावीर की 11 शिक्षायें* *पहली शिक्षा: सभी आत्मायें समान हैं, कोई छोटा-बड़ा नहीं है।* इस शिक्षा को न मानने का परिणाम आज सारा विश्व भुगत रहा है, कोरोना वायरस के रूप में। जब मानव जाति पशुओं को जीव मानने को ही तैयार नहीं है तो फिर उनको अपने समान मानना तो बहुत दूर की बात है। ज़रा विचार करो आपके छोटे-से बच्चे को या आपके पिताजी को कोई जिंदा कड़ाई में तल दे और उसका भोजन करे तो आपको कैसा लगेगा? अरे! यह तो प्रकृति का नियम है कि प्रत्येक जीव को अपने द्वारा किये गए व्यवहार का फल अवश्य ही मिलता है, *जो व्यवहार आप अपने साथ नहीं चाहते वह व्यवहार आप किसी भी जीव के प्रति ना करें* और अगर करेंगे तो उसका फल ब्याज सहित कर्म आपको लौटायेंगे। *दूसरी शिक्षा : भगवान कोई अलग से नहीं बनता, जो जीव पुरुषार्थ करे, वही भगवान बन सकता है।* यही जैन धर्म की विशेषता है कि वह भक्त नहीं, भगवान बनने का मार्ग दिखाता है। हमारे यहाँ भगवान जन्मते नहीं, अपने पुरुषार्थ से बनते हैं। *तीसरी शिक्षा:भगवान जगत के कर्ता-धर्ता नहीं हैं, मात्र जानने वाले हैं।* ज़रा विचारें, जो जगत में करने-धरने का काम हमारे भगवान नहीं कर सकते, और हम कर

जैन पुराणों में हनुमान

जैन मान्यता के अनुसार हनुमान ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ जैन मान्यता के अनुसार हर काल में 24 तीर्थंकर,12 चक्रवर्ती ,9 नारायण, 9 प्रतिनारायण,9 बलभद्र इस प्रकार 63 शलाका पुरुष होते हैं यह सभी उत्तम पदधारी उसी जन्म में या थोड़े से जन्म लेकर मोक्ष प्राप्त करते है। हनुमानजी 18 वें कामदेव थे वह बंदर नहीं थे, बल्कि वानर वंशी थे, अर्थात जैन रामायण (पद्मपुराण) के अनुसार इनके वंश के राज्य ध्वज में बंदर का चिन्ह था, इसलिए इनका कुुल वानर वंश के नाम से विख्यात है, इनके पिता राजकुमार पवन कुमार और माता अंजना थी बचपन में एक दिन जब हनुमान जी अपने मामा के विमान में बैठकर आकाश मार्ग से जा रहे थे तब खेल-खेल में उछलकर ,वे नीचे पहाड़ पर गिर पड़े ,इससे इनको कोई हानि नहीं हुई, बल्कि पहाड़ ही टूट गया इनकी हड्डियां वजृ की थी । जैन मान्यता के अनुसार हनुमान जी बाल ब्रह्मचारी न होकर ग्रहस्थ थे ,उनके न हीं बंदर जैसा मुंह था न ही पूंछ थी उनका रंग रूप वानर जैसा नहीं था ।वह विद्याधारी थेे। विद्या के बल पर उन्होंने लंका में वानर का रूप रचा था उसके बाद उन्होंने राजपाट और स्त्री आदि का त्याग कर साधु हो गए और तपस्या करके श्रीराम

तीर्थंकर भगवान महावीर और उनके सिद्धांत

*तीर्थंकर वर्धमान महावीर और उनकी दिव्यदेशना* *पावन प्रसंग-भगवान् महावीर स्वामी का २६२१वाँ जन्मकल्याणक महोत्सव*              *डॉ.पंकज कुमार जैन*                  *९५८४२०११०३* जैनशास्त्रों में तीर्थंकर शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है कि *"तीर्थकृत: संसारोत्तरणहेतुभूतत्वात्तीर्थमिव तीर्थमागम: तत्कृतवतः" (समाधिशतक/टी./2/222/24 )* अर्थात् संसार से पार होने के कारण को तीर्थ कहते हैं, वह तीर्थ आगम है और उस आगम के कर्ता को तीर्थंकर कहते हैं। आशय यह है कि तीर्थंकर वे हैं जिनकी दिव्यदेशना या उपदेशों से संसार के प्राणियों के समस्त सांसारिक कष्ट और दुःख न केवल समाप्त होते हैं वरन् सदैव के लिए इनसे मुक्ति या मोक्ष प्राप्त हो जाता है और प्राणियों की आत्मा में विद्यमान अनन्त सुख अनन्त काल के लिए प्रकट हो जाता है ।  भारतवर्ष की पवित्रभूमि पर इस अवसर्पिणी काल में चौबीस तीर्थंकरों ने जन्म ग्रहण किया है । जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव और अन्तिम चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी हैं । भगवान् महावीर स्वामी के पाँच नाम विख्यात हैं - वर्धमान,सन्मति,वीर,अतिवीर एवं महावीर । भगवान्

आचार्य समन्तभद्र और आचार्य अमृतचन्द्र की समानता

*आचार्य समन्तभद्र और आचार्य अमृतचन्द्र*  -प्रो. वीरसागर जैन आचार्य समन्तभद्र और आचार्य अमृतचन्द्र में प्रायः बहुत अधिक दूरी समझी जाती है | आचार्य समन्तभद्र न्याय के शिरोमणि विद्वान् समझे जाते हैं और आचार्य अमृतचन्द्र अध्यात्म के शिरोमणि विद्वान् समझे जाते हैं | एक एकदम तार्किक एवं नीरस समझे जाते हैं और दूसरे एकदम आध्यात्मिक एवं सरस | प्राय: लोग इन दोनों में पूर्व-पश्चिम जैसा अंतर समझते हैं | परन्तु यदि गहराई से देखें तो दोनों में बड़ी भारी समानता है, इतनी अधिक कि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू लगते हैं, क्योंकि दोनों ही वस्तुतः अध्यात्म एवं न्याय दोनों से समन्वित जैनविद्या के मूर्धन्य आचार्य हैं | कोई भी केवल न्याय अथवा केवल अध्यात्म का विद्वान् नहीं है | दोनों ही के यहाँ दोनों का मणिकांचन संयोग है | आचार्य समन्तभद्र ने न्याय के आचार्य होते हुए भी एक पल को भी अध्यात्म का पल्ला नहीं छोड़ा है और आचार्य अमृतचन्द्र ने अध्यात्म के आचार्य होते हुए भी एक पल को भी न्याय का पल्ला नहीं छोड़ा है | दरअसल जैन विद्या है ही ऐसी, न्याय और अध्यात्म से समन्वित, किन्तु जो लोग इस रहस्य को नहीं जानते, वे आज या

महावीर

‘तुम्हारे महावीर से अलग हैं मेरे महावीर’     - कुमार अनेकांत©  महावीर को सब याद करते हैं तुम भी मैं भी तुम उन्हें इसलिए महावीर मानते हो क्योंकि बचपन में एक सर्प आने पर दूसरे बालकों की तरह वे डरे नहीं थे नगर में हाथी के उपद्रव पर सब भाग गए थे लेकिन उन्होंने उसे काबू में कर लिया था | और भी किस्से – कहानियाँ हैं उनकी वीरता के जिस कारण तुम कहते उन्हें महावीर मगर मेरे महावीर वह है जो धर्म के साथ विज्ञान समझाते थे जीवन का लक्ष्य आत्मज्ञान बतलाते थे जब पूरी दुनिया ईश्वर को सृष्टि का कर्त्ता मानती थी निज पुरुषार्थ भूलकर भाग्य भरोसे बैठी थी धर्म के नाम पर चारों ओर हिंसा फैली थी अनासक्ति, वैराग्य के नाम पर बस पाखंडियों की टोली थी उस समय उनका अभ्युदय एक दिव्य प्रकाश बना था मिथ्वात्व दूर भगा कर आत्मा को कर्मों से मुक्त किया था खुद का खुदा खुद में ही बसा ऐसा यथार्थ बताया भगवान भरोसे बैठी जनता में आत्मपुरुषार्थ जगाया वस्त्रों से भी मोह छोड़कर सच्चे फकीर बने थे बस तब से ही वो मेरे सच्चे महावीर बने थे |