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तीर्थंकर भगवान महावीर और उनके सिद्धांत

*तीर्थंकर वर्धमान महावीर और उनकी दिव्यदेशना*
*पावन प्रसंग-भगवान् महावीर स्वामी का २६२१वाँ जन्मकल्याणक महोत्सव*
             *डॉ.पंकज कुमार जैन*
                 *९५८४२०११०३*

जैनशास्त्रों में तीर्थंकर शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है कि *"तीर्थकृत: संसारोत्तरणहेतुभूतत्वात्तीर्थमिव तीर्थमागम: तत्कृतवतः" (समाधिशतक/टी./2/222/24 )* अर्थात् संसार से पार होने के कारण को तीर्थ कहते हैं, वह तीर्थ आगम है और उस आगम के कर्ता को तीर्थंकर कहते हैं। आशय यह है कि तीर्थंकर वे हैं जिनकी दिव्यदेशना या उपदेशों से संसार के प्राणियों के समस्त सांसारिक कष्ट और दुःख न केवल समाप्त होते हैं वरन् सदैव के लिए इनसे मुक्ति या मोक्ष प्राप्त हो जाता है और प्राणियों की आत्मा में विद्यमान अनन्त सुख अनन्त काल के लिए प्रकट हो जाता है । 
भारतवर्ष की पवित्रभूमि पर इस अवसर्पिणी काल में चौबीस तीर्थंकरों ने जन्म ग्रहण किया है । जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव और अन्तिम चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी हैं । भगवान् महावीर स्वामी के पाँच नाम विख्यात हैं - वर्धमान,सन्मति,वीर,अतिवीर एवं महावीर । भगवान् महावीर के तीर्थंकर बनने की यात्रा आत्मा की अनन्त शक्ति की द्योतक है । इस यात्रा का आधार यह अटल आत्मश्रद्धा है कि अनादिकाल से दुःखसंतप्त आत्मा  जन्म, जरा और मृत्यु के अनादि दुःखों से मुक्त होकर अनन्त सुख को प्रकट करने में सक्षम है और इस सुख को प्रकट करने का साधन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है । दुर्लभ तीर्थंकर पद अनेक जन्मों के संचित अतिशय पुण्य के फल से किसी विशिष्ट भव्य आत्मा को ही प्राप्त होता  है । तीर्थंकर वर्धमान भी अनेक जन्मों से आत्मकल्याण के पथ पर अविराम गति से गतिमान थे । उनकी यह यात्रा स्वयं के आत्मकल्याण की परिधि तक सीमित नहीं थी ,उनका विराट् हृदय असंख्य दुःखी जीवों के प्रति करुणाभाव से आप्लावित भी था । निजोपकार उनका साध्य था तो उनकी प्रभावक आत्मा सभी संसारी प्राणियों के परोपकार के लिए परम पवित्र साधन थी । भगवान् महावीर की दिव्य आत्मा ने अपने अतिशय पुण्यकर्मों के कारण अनेक बार स्वर्ग के कल्पनातीत इन्द्रिय सुखों को प्राप्त किया था , परन्तु वे सभी नश्वर थे और आत्मा को पराधीन बनाने वाले थे ।
वर्धमान तो आत्मा को पूर्ण स्वाधीन बनाने के लिए दृढ़ संकल्पित थे । उन्हें तो अपनी आत्मा के अक्षय स्वाभाविक सुख को प्रकट करना था । 
अनन्त आत्मिक सुख को प्रकट करने हेतु पूर्ण पुरुषार्थ करने की सामर्थ्य केवल मनुष्य पर्याय में ही संभव है । अतः भगवान् महावीर की दिव्य आत्मा स्वर्ग से च्युत होकर भारतदेश की पवित्रभूमि पर वैशाली गणतन्त्र के कुण्डपुर के  राजा सिद्धार्थ की रानी प्रियकारिणी त्रिशला के गर्भ में आषाढ़ शुक्ला षष्ठी तिथि को अवतरित हुए । आपकी दिव्य आत्मा अच्युत स्वर्ग के अहमिन्द्र पद से च्युत होकर माता त्रिशला के गर्भ में अवतरित हुई थी । इस आनन्दपूर्ण गर्भकल्याणक की मङ्गल वेला का उत्सव देवों ने अपार रत्नवृष्टि करके मनाया था । नौ माह की गर्भावधि पूर्ण होने पर चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को तीर्थंकर महावीर का कुण्डपुर में जन्म हुआ था । सभी ने तीर्थंकर महावीर के इस जन्मकल्याणक को हर्षोल्लास पूर्वक मनाया था । देवों ने दुन्दुभि घोष के द्वारा जयजयकार किया और देवराज इन्द्र ने ऐरावत हाथी पर तीर्थंकर बालक को सुमेरु पर्वत पर ले जाकर पाण्डुक शिला के ऊपर सिंहासन पर विराजमान करके तीर्थंकर बालक का क्षीरसागर के पवित्र जल से जन्माभिषेक किया था । इस अवसर पर सौधर्म इन्द्र ने तीर्थंकर बालक के दाहिने पैर के अंगुष्ठ पर सिंह का चिह्न देखकर तीर्थंकर वर्धमान महावीर का चिह्न सिंह घोषित किया था । इसलिए तीर्थंकर महावीर स्वामी की मूर्तियों में  चिह्न के रूप में सिंह की आकृति अंकित की जाती है । इतिहासकारों ने तीर्थंकर महावीर का जन्म समय ईसा पूर्व 599 में स्वीकार किया है । 
तीर्थंकर बालक की कान्ति और शोभा अनुपम थी । तीर्थंकर बालक का प्रथम नामकरण वर्धमान किया गया था । इसका कारण उनके गर्भावतरण काल के छह माह पूर्व से ही चारों ओर सुख,शान्ति और समृद्धि में निरन्तर वृद्धि हो रही थी । एकदिन आकाश गमन ऋद्धि प्राप्त संजय और विजय नामक दो मुनिराजों ने जब आकाश से शिशु वर्धमान को देखा तो देखने मात्र से ही उनके मनोमष्तिष्क में चल रहे किसी गूढ़ प्रश्न का स्वतः समाधान हो गया । उन्होंने आनन्दपूर्वक तीर्थंकर वर्धमान का सन्मति नामकरण किया था । इसके बाद तीर्थंकर बालक धीरे - धीरे कुमार हो गये । उनकी बाल क्रीडाओं में भी उनका अद्भुत पराक्रम झलकता था । महा विकराल सर्प रूपधारी संगम नामक देव और मदोन्मत्त हाथी भी उनके अतुलित बल के समक्ष नतमस्तक हो गये थे । बाल्यकाल में उनके इस अकल्पनीय पराक्रम के कारण ही उन्हें वीर,अतिवीर और महावीर नाम प्राप्त हो गये थे । तीर्थंकर बालक वर्धमान धीरे-धीरे युवावस्था को प्राप्त हो रहे थे । उनके माता पिता उनका विवाह करके उनके गृहस्थजीवन को व्यवस्थित करना चाहते थे । पिता राजा सिद्धार्थ युवराज वर्धमान को राजा बनाकर अपने उत्तरदायित्व को पूर्ण करना चाहते थे । तीर्थंकर वर्धमान को इन्द्रियों के भोग अरुचिकर लग रहे थे ।धन,सम्पदा आदि सांसारिक जड़ वस्तुएं उन्हें किसी बन्धन की तरह प्रतीत हो रही थीं । वे अन्तरोन्मुखी होकर पूर्ण आत्मिक सुख की उपलब्धि के लिए दत्तचित्त थे । आत्मा की स्वाधीनता की साधना के लिए उन्होंने विवाह के बन्धन को स्वीकार नहीं किया । आत्मिक आनन्द की प्राप्ति के लिए वे ब्रह्मचर्य में लीन थे । वे स्वयं सम्बुद्ध थे । अवधिज्ञानी थे । उन्हें किसी से ज्ञान या प्रेरणा प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं थी ।  तीर्थंकर वर्धमान ने तीस वर्ष की आयु पूर्ण होने पर आत्मसाधना के पथ पर अग्रसर होते हुए पूर्णरूप से गृहत्याग करके मार्गशीर्ष कृष्ण दशमी तिथि को निर्ग्रन्थ दिगम्बर दीक्षा धारण कर ली थी । दीक्षा धारण करते ही उन्हें मनःपर्यय ज्ञान प्रकट हो गया था । दीक्षा के उपरान्त वे आत्मा को पूर्व उपार्जित कर्मों से मुक्त करने के लिए तपश्चरण में लीन हो गये । प्रव्रज्या ग्रहण करने के बाद आपने प्रथम आहार राजा कूल के भक्तिपूर्वक प्रतिग्रहण करने के बाद उनके राजगृह में ग्रहण किया था। एक बार तीर्थंकर श्रमण महावीर ने राजा चेटक की विपदाग्रस्त पुत्री चन्दना से कौशाम्बी नगरी में आहार ग्रहण किया तो चन्दना बन्धनमुक्त हो गयी । उसके नीरस कोदों के दाने सरस हो गये । सामान्य मिट्टी का पात्र स्वर्णपात्र में परिवर्तित हो गया था । तीर्थंकर श्रमण महावीर ने बारह वर्षों तक आत्मजयी बनने की कठिन साधना की थी । इस साधनाकाल में उन्होंने अपनी इन्द्रियों पर जय प्राप्त की थी । अन्तरङ्ग के क्रोध,मान,माया एवं लोभ आदि कषायों को जीतकर अन्तरङ्ग के राग द्वेष आदि विभाव परिणामों को जीत लिया था । उनकी साधना के मूल में समत्वभाव था । उन्होंने समता और क्षमा आदि स्वाभाविक परिणामों से भीषण उपसर्गों और क्षुधा आदि परीषहों पर जय प्राप्त की थी । अपने अन्तरङ्ग कर्मशत्रुओं को जीतकर तीर्थंकर वर्धमान महावीर ने परम केवलज्ञान प्राप्त करके सर्वज्ञता प्राप्त कर ली थी । आपको जृम्भिक ग्राम के निकट ऋजुकूला नदी के तट पर साल वृक्ष के नीचे वैशाख शुक्ला दशमी तिथि को केवलज्ञान प्रकट हुआ था । केवलज्ञान प्रकट होने के बाद तीर्थंकर महावीर स्वामी को 'जिन' संज्ञा प्राप्त हो गयी थी । वे सभी चेतन अचेतन पदार्थों के भूत भविष्य और वर्तमान को एक ही समय में प्रत्यक्ष जान रहे थे । सब कुछ जानते हुए भी उन्हें किसी के प्रति कोई राग-द्वेष नहीं था । वे पूर्ण वीतरागी होकर आत्मस्थ थे । भगवान् को केवलज्ञान प्रकट होने पर सौधर्म इन्द्र ने आनन्दित होकर कुवेर को दिव्य समवसरण  निर्मित करने की आज्ञा प्रदान की । कुवेर ने हर्षित होकर स्वर्ण और मणि आदि दिव्य सम्पदा से भगवान् का समवसरण निर्मित किया था । समवसरण में भगवान् के उपदेशों का श्रवण करने के लिए मनुष्य और देवों के साथ- साथ पशु-पक्षी गण भी एकत्रित हो गये थे। गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति गौतम नामक ब्राह्मण ने अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ भगवान् वर्धमान महावीर स्वामी का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया था और भगवान् के समवसरण में निर्ग्रन्थ दिगम्बर दीक्षा स्वीकार कर ली थी । दीक्षा ग्रहण करके इन्द्रभूति गौतम भगवान् महावीर स्वामी के प्रमुख गणधर बन गये थे । उनके माध्यम से ही सभी प्राणियों ने भगवान् महावीर स्वामी की दिव्यदेशना प्राप्त की थी । भगवान् महावीर स्वामी की दिव्यदेशना का श्रवण करने के लिए प्रमुख श्रोता के रूप में राजगृही के सम्राट् राजा श्रेणिक समवसरण में उपस्थित थे । राजा श्रेणिक को इतिहासकार राजा बिम्बिसार के नाम से जानते हैं । भगवान् महावीर स्वामी ने अपना प्रथम उपदेश राजगृही के विपुलाचल पर्वत पर  निर्मित समवसरण में श्रावण कृष्ण प्रतिपदा तिथि को प्रदान किया था । इसी कारण जैन परम्परा में प्रतिवर्ष इस तिथि को वीरशासन जयन्ती के रूप में मनाया जाता है ।भगवान् की दिव्यदेशना मनुष्यों के साथ-साथ अन्य सभी प्राणियों के लिए भी कल्याणकारी है । भगवान् महावीर स्वामी ने अपनी देशना के द्वारा निम्न सिद्धान्तों और शिक्षाओं का उपदेश जन-जन को प्रदान किया था ।
*रत्नत्रय --* भगवान् महावीर ने मोक्षप्राप्ति के लिए सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र की प्राप्ति को अनिवार्य माना है । उनका यह स्पष्ट कथन है कि मनुष्य को जन्म-मरण के अनादि चक्र से मुक्त होने के लिए जीव,अजीव,आस्रव,बंध,संवर,निर्जरा एवं मोक्ष नामक सात तत्त्वों का सही ज्ञान होना और उस ज्ञान पर श्रद्धा होना अपरिहार्य है । इसके साथ ही उस सही श्रद्धा और ज्ञान के अनुरूप ही जीव को सही आचरण स्वीकार करना भी अनिवार्य है ।
*पञ्च व्रत --* भगवान् महावीर ने हिंसा,असत्य,चोरी,कुशील एवं परिग्रह को त्यागकर अहिंसा,सत्य,अचौर्य,ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह व्रतों के पालन का उपदेश दिया है । जहाँ घर में रहने वाले गृहस्थ श्रावक-श्राविकाओं को पाँचों पापों को यथासंभव स्थूलरूप से छोड़कर अहिंसा आदि पाँच अणुव्रतों के परिपालन का उपदेश दिया है । वहीं साधुओं के लिए पाँच पापों को पूर्णरूप से त्यागकर अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों का दृढ़ता से पालन करना चाहिए । भगवान् महावीर स्वामी द्वारा उपदिष्ट अहिंसा और अपरिग्रह का अतिशय महत्त्व है ।
*अहिंसा --*  तीर्थंकर महावीर स्वामी का कथन है कि  हिंसा का मूल कारण जीव के राग-द्वेष आदि परिणाम हैं । इसलिए भगवान् ने कहा है कि - *"प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा "* अर्थात् प्रमत्त योग से प्राणों का व्यपरोपण हिंसा है ।  राग-द्वेष और क्रोध आदि कषायों से सञ्चालित मन,वाणी और शरीर की चेष्टाओं को प्रमत्त योग कहा जाता है । प्रमत्त योग से अन्य प्राणियों को कष्ट या दुःख देना तो हिंसा है ही,परन्तु प्रमत्तयोग के समय यदि अन्य प्राणियों की हिंसा न भी हो तो स्वयं की आत्मा के पवित्र स्वभाव की क्षति तो होती ही है । तीर्थंकर महावीर स्वामी की दृष्टि में पर की आत्मा के घात के साथ-साथ स्वयं की आत्मा का घात भी हिंसा ही है । आत्मघात और आत्महत्या महापाप है । इसलिए भगवान् ने कहा है कि राग-द्वेष और क्रोध आदि कषाय को छोड़ना ही वास्तविक अहिंसा है । सभी जीवों के प्रति दया और करुणा का भाव रखना भी अहिंसा है । भगवान् महावीर स्वामी का कथन है कि पृथ्वी,जल,अग्नि,वायु एवं वनस्पति में भी जीवन हैं । ये भी चेतन प्राणधारी हैं । इनकी एकमात्र स्पर्शन इन्द्रिय होती है और इस स्पर्शन इन्द्रिय के माध्यम से ही वे सुख-दुःख का अनुभव करते हैं । हमें इनकी भी व्यर्थ हिंसा नहीं करनी चाहिए । सभी जीवों को परस्पर में एक दूसरे का उपकार करना चाहिए । भगवान् महावीर स्वामी ने विश्वमैत्री के लिए *'परस्परोपग्रहो जीवानाम्'* का सूत्र प्रदान किया है । तीर्थंकर महावीर स्वामी के अनुसार अहिंसक जीवनशैली में मांसाहार,मदिरापान, मधु का सेवन , अनछना पानी पीना ,अभक्ष्य पदार्थों का सेवन एवं व्यसन पूर्णतः वर्जित हैं । भगवान् महावीर स्वामी के अनुसार जब तक विचारों के साथ-साथ हमारे आचार और व्यवहार में अहिंसा का परिपालन नहीं होगा तब तक हमारा कल्याण संभव नहीं है ।
*अपरिग्रह --* तीर्थंकर महावीर प्रभु कहते हैं परिग्रह का त्याग करना ही अपरिग्रह है । भगवान् कहते हैं *"मूर्च्छा परिग्रहः"* अर्थात् पर पदार्थों में ममत्व या मेरा होने की इच्छा या भाव ही परिग्रह है । इसलिए बाह्य धन,सम्पत्ति न होने पर भी लोभ कषाय के कारण उसकी इच्छा मात्र रखने से भी जीव परिग्रही ही है । बाह्य परिग्रह और उसकी इच्छा दोनों ही दुःख के कारण हैं । संसारी प्राणियों की अनादि तृष्णा के कारण उनकी इच्छाएं अनन्त हैं । गृहस्थों को अपने आत्मकल्याण के लिए अपनी इच्छाओं को अपनी अनिवार्य आवश्यकताओं तक सीमित रखना चाहिए । नियम लेकर अपने धन-सम्पत्ति आदि परिग्रह की सीमा निर्धारित कर उसका परिमाण करना चाहिए । गृहस्थों के लिए यह परिग्रह परिमाण अणुव्रत है । साधुओं को अपरिग्रह महाव्रत का पालन करना चाहिए । इसके पालन के लिए उन्हें परिग्रह का पूर्णतः त्याग करना चाहिए । अहिंसा व्रत की रक्षा अपरिग्रह के पालन से ही संभव है । अहिंसा और अपरिग्रह के अनुपालन से ही युद्ध और आतंकवाद जैसी विश्वव्यापी समस्याओं का निदान संभव है ।
*संयम-तप --* भगवान् महावीर स्वामी का उपदेश है कि तृष्णा के कारण प्राणियों में स्पर्शन आदि पाँच इन्द्रियों के विषय भोगों की अनन्त इच्छा है । हमारा मन इनसे कभी तृप्त नहीं हो सकता है । इसलिए इन्द्रियों और मन को संयमित करके ही आत्मसाधना के पथ पर आगे बढ़ा जा सकता है । मुक्ति के लिए संयम के साथ तप की आराधना भी आवश्यक है । भगवान् ने अपनी इच्छाओं के निरोध को ही तप कहा है । उपवास आदि बारह प्रकार के तपों से अनादिकाल से आत्मा में बद्ध कर्मों की निर्जरा होती है ।
*समत्व की साधना --* भगवान् महावीर स्वामी ने समता भाव को समस्त साधना का मूल माना है । वे कहते हैं कि समस्त बाह्य क्रियाचरण और तपश्चरण का लक्ष्य राग-द्वेष से निवृत्त होकर समता और वीतरागता को प्राप्त करना है
 *स्वभाव ही धर्म है --* भगवान् महावीर स्वामी ने धर्म का स्वरूप प्रकाशित करते हुए कहा है कि- *वत्थु सहाओ धम्मो* अर्थात् वस्तु या आत्मा का स्वभाव ही उसका धर्म है । क्रोध,मान,माया और लोभ आत्मा के ऐसे भाव हैं जो आत्मा को उसके स्वभाव से दूर ले जाते हैं । ये विभाव परिणाम हैं । ये अधर्म हैं । इसलिए इन्हें छोड़कर क्षमा आदि धर्मों को धारण करना ही धर्म है । क्षमा,मृदुता,सरलता एवं शुचिता आदि आत्मा के स्वाभाविक गुण हैं । इन्हीं स्वाभाविक गुणों की अनुभूति से ही आत्मा में आनन्द प्रकट होता है ।
*कर्मसिद्धान्त --* भगवान् महावीर स्वामी कहते हैं कि सभी जीवों की आत्मा में अनन्त दर्शन,ज्ञान,सुख एवं शक्ति आदि गुण समान रूप से विद्यमान हैं । अनादि काल से कृत शुभ-अशुभ भावों से बद्ध कर्मों के फल के कारण ही आत्मा के गुण समानरूप से प्रकट नहीं हो पाते हैं और सभी संसारी जीवों में विविधता या अन्तर दिखाई देता है। संसारी प्राणियों में जो सुखी-दुःखी,रोगी - नीरोगी,धनी-निर्धन,ज्ञानी-अज्ञानी, संपन्नता और विपन्नता का भेद अपने-अपने कृत कर्मों के फल के कारण ही दिखाई देता है । शुभकर्म या पुण्यकर्म करने से जीव को सुख या साता प्राप्त होती है । अशुभ या पाप कर्मों के फल से प्राणियों को भयंकर दुःख प्राप्त होता है । इन्हीं शुभ-अशुभ कर्मों के फलस्वरूप ही जीवों को स्वर्ग,नरक,मनुष्य एवं तिर्यञ्च आदि में जन्म प्राप्त होता है ।
*पुनर्जन्म --* भगवान् महावीर स्वामी ने बतलाया है कि संसारी प्राणियों का उनके कृत कर्मों के फल के अनुसार पुनर्जन्म होता है । उन्होंने कहा है कि आत्मा शाश्वत है,नित्य है,परन्तु पुनर्जन्म के लिए उसकी वर्तमान पर्याय नष्ट होती है और नवीन पर्याय का जन्म होता है । इस दृष्टि से आत्मा मरणधर्मा भी है । प्राणियों का यह जन्म-मरण का चक्र मोक्ष प्राप्त होने पर पूर्णतः समाप्त हो जाता है । एक बार मोक्ष प्राप्त होने के बाद न तो आत्मा का पुनर्जन्म होता है और न ही वह कोई अवतार ग्रहण करती है ।
*अप्पा सो परमप्पा --* तीर्थंकर महावीर स्वामी की देशना है कि प्रत्येक आत्मा में परमात्मा बनने की अनन्त शक्ति विद्यमान है । कोई अनादि ईश्वर नहीं है । मनुष्य ही अपने राग-द्वेष और विकारों को जीतकर ईश्वर बनता है । ईश्वर या सिद्धत्व की प्राप्ति के लिए मनुष्य को अपने पूर्वबद्ध कर्मों का संयम और तप के द्वारा क्षय करना अनिवार्य है । साथ ही क्रोध,मान,माया एवं लोभ आदि कषाय परिणामों को छोड़कर नवीन कर्मबन्ध की प्रक्रिया पर पूर्ण विराम लगाना पड़ता है । प्रत्येक आत्मा अपने अनेक जन्मों के पुण्य पुरुषार्थ से योग्य द्रव्य,क्षेत्र,काल एवं भाव का निमित्त प्राप्त होने पर आत्मसाधना के परिपूर्णता पर परमात्म अवस्था या सिद्धत्व को प्रकट कर लेती है । सिद्धत्व की उपलब्धि के पूर्व आत्मा में विद्यमान अनन्त ज्ञानशक्ति प्रकट हो जाती है । जिसे केवलज्ञान कहा जाता है । इस परम ज्ञान के प्रकट होने पर आत्मा सर्वज्ञ हो जाती है । उसे लोक के सभी चेतन-अचेतन पदार्थों के वर्तमान,भूत और भविष्य के सभी रूपों का एक साथ प्रत्यक्षीकरण होने लगता है । पदार्थों का यह ज्ञान नेत्र आदि इन्द्रियों से न होकर इन्द्रियातीत होता है । आत्मा की इस अवस्था को अर्हत् या अरिहन्त अवस्था कहा जाता है । मनुष्य इस अर्हत् अवस्था को सशरीर उपलब्ध कर सकता है । इस कारण इस उत्कृष्ट अवस्था में आत्मा को सकल परमात्मा कहा जाता है । इसके बाद आयु कर्म का अन्त होने पर आत्मा देहातीत होकर समस्त कर्मों से मुक्त हो जाती है । मुक्त आत्मा  को सिद्ध परमात्मा,निकल परमात्मा,भगवान्, ईश्वर , विभु या प्रभु आदि संज्ञाओं से जाना जाता है । मुक्त आत्माएं लोक में सर्वोपरि सिद्धशिला नामक स्थान पर अनन्तकाल के लिए स्थित हो जाती हैं । वे अपने स्वाभाविक अनन्त ज्ञान एवं अनन्त सुख आदि गुणों में लीन रहती हैं । इन मुक्त आत्माओं का संसार में कभी पुनर्जन्म नहीं होता है । वे कभी कोई अवतार भी ग्रहण नहीं करती हैं । तीर्थंकर महावीर स्वामी की देशना है कि सिद्धात्मा या परमात्मा सृष्टि का निर्माता,संचालक या विध्वंसक नहीं है सृष्टि में यह प्रक्रिया स्वाभाविकरूप से चलती रहती है । ईश्वर किसी भी जीव को सुखी या दुःखी नहीं बनाता है । प्रत्येक आत्मा स्वयं कृत कर्मों का फल स्वयमेव ही प्राप्त करती है । 
*अनेकान्तवाद --* भगवान् महावीर स्वामी ने अपने केवलज्ञान से जो वस्तु व्यवस्था प्रकाशित की है उसके अनुसार प्रत्येक वस्तु या पदार्थ अनन्तधर्मात्मक है । प्रत्येक वस्तु में अनेक धर्म या गुण एक साथ विद्यमान रहते हैं । इनमें से अनेक गुण या धर्म तो परस्पर में विपरीत होते हैं, जैसे- वस्तु या पदार्थ में उसके नित्य या स्थायित्व और अनित्य या नष्ट होने का गुण एक समय में एक साथ ही विद्यमान रहता है । वस्तु में विद्यमान इन सभी गुणों या धर्मों को ज्ञान प्रमाण के माध्यम से एक साथ जाना जा सकता है । वस्तु के इस यथार्थ ज्ञान को ही प्रमाण से होने वाली प्रमा कहा गया है । वस्तु में विद्यमान सभी गुणों को एक साथ जाना तो जा सकता है ,परन्तु इनका कथन या वर्णन एक साथ नहीं किया जा सकता है । एक समय में वस्तु के एक ही धर्म या गुण को कहा जा सकता है,क्योंकि वचन या वाक्शक्ति की एक सीमा है ।
इस लिए भगवान् महावीर ने वस्तु का कथन करने या वक्ता के आशय को समझने के लिए 'नय' का सिद्धान्त प्रतिपादित किया था । 'नय' का अर्थ है किसी वस्तु के किसी एक धर्म को किसी न किसी अपेक्षा से कहा जाता है । पदार्थ के जिस गुणधर्म का कथन नय के द्वारा किया जाता है उस गुणधर्म को मुख्यता प्रदान की जाती है और वस्तु में विद्यमान अन्य गुणधर्मों को गौण कर दिया जाता है । वस्तु में विद्यमान अन्य धर्मों को गौण तो किया जा सकता है , परन्तु अन्य गुणधर्मों का कभी निषेध नहीं किया जा सकता है । अनन्तधर्मात्मक वस्तु के इस प्रकार कथन करने के लिए ही भगवान् महावीर ने स्याद्वाद सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है ।
*स्याद्वाद --* भगवान् महावीर स्वामी का उपदेश है कि स्याद्वाद सिद्धान्त से ही पदार्थ के सभी गुणधर्मों की सम्यक् व्याख्या की जा सकती है । 'स्याद्वाद' शब्द दो शब्दों के योग से निर्मित हुआ है- स्यात् और वाद । 'स्यात्' का अर्थ है कथञ्चित् या कोई अपेक्षा या दृष्टि । 'वाद' का अर्थ है कहना । वस्तु के गुणधर्म को किसी न किसी अपेक्षा या दृष्टि से ही कहा जा सकता है । इसके लिए भगवान् ने सात दृष्टिकोण से सम्पन्न सप्तभंगी सिद्धान्त का उपदेश दिया है । अनेकान्तवाद और स्याद्वाद सिद्धान्त एक दूसरे के परिपूरक हैं । इन सिद्धान्तों के द्वारा ही हम एक दूसरे के कथन का अभिप्राय या अपेक्षा को समझ सकते हैं और परस्पर में संवाद के द्वारा समन्वय स्थापित कर सकते हैं । केवल एक दृष्टि से कथन करना और मात्र उसे ही सही मानना और मात्र उसे ही स्वीकार करना एकान्तवाद है । एकान्तवाद अनेक विवादों और समस्याओं को जन्म देता है । भगवान् महावीर स्वामी के अनुसार एकान्तवाद मिथ्या है और स्याद्वाद सम्यक् है । स्याद्वाद दृष्टि से ही यथार्थ आत्मज्ञान प्रकट हो सकता है ।
*तीर्थंकर महावीर स्वामी का निर्वाण --* तीर्थंकर भगवान् महावीर ने तीस वर्षों तक प्राणिमात्र के कल्याण के लिए काशी, कौशल, कौशल्य, कुबंध्य, अस्वष्ट, साल्व, त्रिगतं, पंचाल, भद्रकार, पटच्चर, मौक, मत्स्य, कनीय, सूरसेन और वृकार्थक, समुद्रतटवर्ती कलिंग, कुरुजांगल, कैकेय, आत्रेय, कंबोज, बाह्लीक, यवन, सिंध, गांधार, सौवीर, सूर, भीरू, दशेरुक, वाडवान, भरद्वाज और क्वाथतोय तथा उत्तर दिशा के तार्ण, कार्ण और प्रच्छाल आदि भिन्न - भिन्न प्रदेशों में भव्य जीवों के लिए देशना प्रदान की थी ।अन्त में तीर्थंकर महावीर प्रभु ने बहत्तर वर्ष आयु पूर्ण होने पर पावापुर स्थित सरोवर के मध्य से परम शुक्लध्यान के द्वारा निर्वाण प्राप्त किया था । वे सदा के लिए देह से देहातीत होकर अनन्त काल के लिए आत्मा के अनन्त सुख में लीन रहने वाले सिद्ध भगवान् बन गये हैं । भगवान् महावीर ने कार्तिक माह की अमावस्या तिथि की प्रत्यूष बेला में मोक्ष प्राप्त किया था । देवों और मनुष्यों ने इस मोक्ष महोत्सव को आनन्दपूर्वक दीप प्रज्वलित करके दीपावली पर्व मनाया था । भगवान् महावीर के निर्वाण के दिन ही उनके प्रमुख गणधर श्री गौतम स्वामी को केवलज्ञान प्रकट हुआ था । उन्होंने भी प्राणिमात्र के कल्याण के लिए उपदेश प्रदान किया था । परम्परा से भगवान् महावीर स्वामी के शिष्यों ने उनकी देशना से उपदिष्ट सिद्धान्तों और शिक्षाओं को तत्कालीन जनभाषा प्राकृत में *आगम* के रूप में निबद्ध किया था । परवर्ती आचार्यों ने संस्कृत भाषा में शास्त्रलेखन करके भगवान् की देशना को विद्वानों के मध्य भी प्रतिष्ठित किया है । इतिहासकारों ने भगवान् महावीर स्वामी का निर्वाणकाल ई.पू. 527 स्वीकार किया है । तीर्थंकर महावीर स्वामी के निर्वाण दिवस के उपलक्ष्य में वीर निर्वाण संवत् प्रारम्भ हुआ था । कालगणना के लिए प्रचलित सभी संवत्सरों में वीर निर्वाण संवत् सर्वाधिक प्राचीन है । तीर्थंकर महावीर स्वामी ने प्राणिमात्र के कल्याण के लिए जो मूल्य और सिद्धान्त प्रतिपादित किये हैं वे सभी शाश्वत सत्य हैं । इनके अनुपालन से ही विश्व के सभी प्राणियों का कल्याण संभव है । इसलिए तीर्थंकर  महावीर स्वामी की जन्मजयन्ती के अवसर पर भगवान् के सिद्धान्तों और शिक्षाओं का व्यापक प्रचार-प्रसार करना चाहिए और व्यावहारिक जीवन में सतत उनका अनुपालन करना चाहिए ।

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जैन धर्म में शास्त्रो की कथन पद्धति को अनुयोग कहते हैं।  जैनागम चार भागों में विभक्त है, जिन्हें चार अनुयोग कहते हैं - प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग।  इन चारों में क्रम से कथाएँ व पुराण, कर्म सिद्धान्त व लोक विभाग, जीव का आचार-विचार और चेतनाचेतन द्रव्यों का स्वरूप व तत्त्वों का निर्देश है।  इसके अतिरिक्त वस्तु का कथन करने में जिन अधिकारों की आवश्यकता होती है उन्हें अनुयोगद्वार कहते हैं। प्रथमानुयोग : इसमें संयोगाधीन कथन की मुख्यता होती है। इसमें ६३ शलाका पुरूषों का चरित्र, उनकी जीवनी तथा महापुरुषों की कथाएं होती हैं इसको पढ़ने से समता आती है |  इस अनुयोग के अंतर्गत पद्म पुराण,आदिपुराण आदि कथा ग्रंथ आते हैं ।पद्मपुराण में वीतरागी भगवान राम की कथा के माध्यम से धर्म की प्रेरणा दी गयी है । आदि पुराण में तीर्थंकर आदिनाथ के चरित्र के माध्यम से धर्म सिखलाया गया है । करणानुयोग: इसमें गणितीय तथा सूक्ष्म कथन की मुख्यता होती है। इसकी विषय वस्तु ३ लोक तथा कर्म व्यवस्था है। इसको पढ़ने से संवेग और वैराग्य  प्रकट होता है। आचार्य यति वृषभ द्वारा रचित तिलोयपन्नत्ति में तीन लोक तथा उ

सम्यक ज्ञान का स्वरूप

*सम्यक ज्ञान का स्वरूप*  मोक्ष मार्ग में सम्यक ज्ञान का बहुत महत्व है । अज्ञान एक बहुत बड़ा दोष है तथा कर्म बंधन का कारण है । अतः अज्ञान को दूर करके सम्यक ज्ञान प्राप्त करने का पूर्ण प्रयास करना चाहिए । परिभाषा -  जो पदार्थ जैसा है, उसे वैसे को वैसा ही जानना, न कम जानना,न अधिक जानना और न विपरीत जानना - जो ऍसा बोध कराता है,वह सम्यक ज्ञान है । ज्ञान जीव का एक विशेष गुण है जो स्‍व व पर दोनों को जानने में समर्थ है। वह पा̐च प्रकार का है–मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय व केवलज्ञान। अनादि काल से मोहमिश्रित होने के कारण यह स्‍व व पर में भेद नहीं देख पाता। शरीर आदि पर पदार्थों को ही निजस्‍वरूप मानता है, इसी से मिथ्‍याज्ञान या अज्ञान नाम पाता है। जब सम्‍यक्‍त्व के प्रभाव से परपदार्थों से भिन्न निज स्‍वरूप को जानने लगता है तब भेदज्ञान नाम पाता है। वही सम्‍यग्‍ज्ञान है। ज्ञान वास्‍तव में सम्‍यक् मिथ्‍या नहीं होता, परन्‍तु सम्‍यक्‍त्‍व या मिथ्‍यात्‍व के सहकारीपने से सम्‍यक् मिथ्‍या नाम पाता है। सम्‍यग्‍ज्ञान ही श्रेयोमार्ग की सिद्धि करने में समर्थ होने के कारण जीव को इष्ट है। जीव का अपना प्रतिभास तो निश

जैन चित्रकला

जैन चित्र कला की विशेषता  कला जीवन का अभिन्न अंग है। कला मानव में अथाह और अनन्त मन की सौन्दर्यात्मक अभिव्यक्ति है। कला का उद्भव एवं विकास मानव जीवन के उद्भव व विकास के साथ ही हुआ है। जिसके प्रमाण हमें चित्रकला की प्राचीन परम्परा में प्रागैतिहासिक काल से ही प्राप्त होते हैं। जिनका विकास निरन्तर जारी रहा है। चित्र, अभिव्यक्ति की ऐसी भाषा है जिसे आसानी से समझा जा सकता है। प्राचीन काल से अब तक चित्रकला की अनेक शैलियां विकसित हुईं जिनमें से जैन शैली चित्र इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। जैन चित्रकला के सबसे प्राचीन चित्रित प्रत्यक्ष उदाहरण मध्यप्रदेश के सरगुजा राज्य में जोगीमारा गुफा में मिलते है। जिसका समय दूसरी शताब्दी ईसापूर्व है।१ ग्यारहवीं शताब्दी तक जैन भित्ति चित्र कला का पर्याप्त विकास हुआ जिनके उदाहरण सित्तनवासल एलोरा आदि गुफाओं में मिलते है। इसके बाद जैन चित्रों की परम्परा पोथी चित्रों में प्रारंभ होती है और ताड़पत्रों, कागजों, एवं वस्त्रों पर इस कला शैली का क्रमिक विकास होता चला गया। जिसका समय ११वीं से १५वी शताब्दी के मध्य माना गया। २ जैन धर्म अति प्राचीन एवं अहिंसा प्रधान