Skip to main content

चंद्रगुप्त सम्राट

*महाप्रतापी चंद्रगुप्त मौर्य "महान सम्राट" की भारतीय अवधारणा का साक्षात उदाहरण थे।* अहर्निश जनकल्याण को समर्पित, अनुशासित, करूणावत्सल, उदार, योग्य प्रशासक, महान सेनानायक थे। *वे जैन धर्म के अनुयायी थे।* ईसापूर्व चौथी शती में जब ग्रीक आक्रमणों से भयभीत, छोटे छोटे टुकड़ों में बंटे देश को जोड़ कर चंद्रगुप्त मौर्य ने महान रणनीतिकार व कूटनीतिज्ञ, सर्वश्रेष्ठ महामंत्री व देशभक्त गुरू चाणक्य के आशीर्वाद, कृपा और सहायता से अखंड भारत की कल्पना को साकार किया। वह भारत का महानतम साम्राज्य था । उसके पौत्र अशोक ने उसमें केवल कलिंग और जोड़ा। यह भ्रम देशी व वामंपथी इतिहासकारों द्वारा फैलाया गया है कि भारतवर्ष को राजनीतिक एकता का पाठ अंग्रेजों ने पढ़ाया। यह गलत है। 
.
जब चंद्रगुप्त मौर्य अपनी प्रांतीय उपराजधानी उज्जैन में ठहरे थे, तब जैनाचार्य भद्रबाहु श्रुतकेवली विशाल संघ सहित वहां पधारे। चंद्रगुप्त को उन्ही दिनों 16 स्वप्न दिखे। उनका फल भद्रबाहुस्वामी ने दुखद बताया और आचार्य भद्रबाहु ने निमित्त ज्ञान से जान लिया कि उत्तर भारत में 12 वर्ष का दुर्भिक्ष पड़ने वाला है। महाराजाधिराज चंद्रगुप्त को वैराग्य हो गया। अपना मुकुट पुत्र बिंदुसार के सिर पर रख कर उन्होंने जिनदीक्षा ले ली, और आचार्य भद्रबाहु स्वामी के साथ वे दक्षिण में श्रवणबेलगोल चले गये, जहां मुनि भद्रबाहु स्वामी ने संल्लेखना ली। एकमात्र शिष्य चंद्रगुप्त जिनका दीक्षा पश्चात् नाम मुनिप्रभाचंद्र था, को छोड़ शेष को दक्षिण में पांड्य प्रदेश की ओर भेज दिया। अपने आपको महान सौभाग्यशाली व धन्य समझ इन्होंने गुरु की वैयावृत्ति आदि करते हुए संल्लेखना सहित समाधि करायी। चंद्रगुप्त मौर्य अंतिम मुकुटधारी सम्राट थे जिन्होंने जिनदीक्षा ली। श्रवणबेलगोल के चंद्रगिरि नामक पर्वत अथवा चिकबैट्ट पर आज भी भद्रबाहु गुफा स्थित है जहां भद्रबाहुस्वामी और मुनि श्री प्रभाचंद ने समाधि प्राप्त की और उनके चरण चिन्ह अंकित हैं।
.
इतिहास की पुस्तकें इस बारे में मौन हैं कि चंद्रगुप्त मौर्य  कठिनता से प्राप्त पाये साम्राज्य को छोड़ 50 वर्ष की उम्र में कहां चले गए थे। चंद्रगिरि पर्वत अथवा चिकबैट्ट पर स्थित 7वीं- 8वीं शती के पाश्र्वनाथ मंदिर अथवा चंद्रगुप्तबसदि के गर्भगृह द्वार के दोंनो ओर जालीदार पाषाण फलकों पर शिल्पांकिंत भद्रबाहुस्वामी और चंद्रगुप्त मौर्य की जीवन कथा से तथा इसी  पर्वत पर प्राप्त 7वीं शताब्दी के अभिलेख से इस बात की पुष्टि होती है। इस अभिलेख के अनुसार ’जो जैनधर्म भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मुनीन्द्र के तेज से भारी समृद्धि को प्राप्त हुआ था, उसके किंचित् क्षीण हो जाने पर शान्तिसेन मुनि ने उसे पुनः स्थापित किया। इन मुनियों ने बेलगोल पर्वत पर अन्न आदि का त्याग कर पुर्नजन्म को जीत लिया।’
.
भद्रबाहुसचन्द्रगुप्तमुनीचन्द्रयुगमदिनोप्पेवल्।
भद्रमागिद धम्र्ममन्दु वलिक्केवन्दिनिसल्कलो।।
विद्रुमाधर शान्तिसेन-मुनीशनाक्किएवेल्गोल
अद्रिमेलशनादि विट्ट पुनर्भवक्केरे आगि...।।
.
यह इतिहास की वह गुमी हुई कड़ी है जो चंद्रगुप्त मौर्य के अंतिम दिनों के बारे में बताती है। अनेक विद्वान अब इस तथ्य को स्वीकार करते हैं। समय है कि देश इस तथ्य को जाने समझे। जैनशास्त्र स्पष्ट संकेत दे रहे थे कि चंद्रगुप्त मौर्य जैनमुनि हो गये थे। किंतु जैसा कि इतिहासवेत्ता राईस डेविड्स का कथन सटीक हैै कि ”चूंकि चन्द्रगुप्त जैन धर्मानुयायी हो गया था इसी कारण जैनेतरों द्वारा वह अगली दस शताब्दियों तक इतिहास में उपेक्षित ही बना रहा (बुद्धिस्ट इण्डिया, पृ 164)। यूनानी राजदूत मेगस्थनीज का साक्ष्य भी पुष्ट करता है कि चंद्रगुप्त मौर्य जैन धर्मपालक थे। अजीब बात है कि अशोक का बौद्धधर्म को अपनाना और धम्मविजय, इतिहास में अनेक तरह से लिखी गई पर भारत के लिखित इतिहास के प्रथम महान सम्राट उनके पितामह चंद्रगुप्त मौर्य का अल्पायु में मोह माया छोड़ जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करने के बारे में इतिहास मौन रहा। विद्वान थाॅमस ने लिखा है - चंद्रगुप्त जैन थे (जर्नल आफ दि रियल सीरीज, लेख 8, जैन धर्म और अशोक का पूर्व धर्म)। प्रसिद्ध इतिहासकार विसेंट स्मिथ ने माना है कि लेविस राईस के द्वारा खोजे गये श्रवणबेलगोल के शिलालेखों को अविश्वसनीय मानना जैनों को समस्त परंपरा और उल्लेखों को अविश्वसनीय मानना है। मैं मानता हूं कि चंद्रगुप्त सिंहासन का त्याग कर जैनमुनि हो गये थे, यह बात मानने की परंपरा सत्य है (भारत का प्राचीन इतिहास, तृतीय संस्करण पृ. 146)
*-Dr. Sudha Malaiya, Damoh*

Comments

Popular posts from this blog

जैन ग्रंथों का अनुयोग विभाग

जैन धर्म में शास्त्रो की कथन पद्धति को अनुयोग कहते हैं।  जैनागम चार भागों में विभक्त है, जिन्हें चार अनुयोग कहते हैं - प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग।  इन चारों में क्रम से कथाएँ व पुराण, कर्म सिद्धान्त व लोक विभाग, जीव का आचार-विचार और चेतनाचेतन द्रव्यों का स्वरूप व तत्त्वों का निर्देश है।  इसके अतिरिक्त वस्तु का कथन करने में जिन अधिकारों की आवश्यकता होती है उन्हें अनुयोगद्वार कहते हैं। प्रथमानुयोग : इसमें संयोगाधीन कथन की मुख्यता होती है। इसमें ६३ शलाका पुरूषों का चरित्र, उनकी जीवनी तथा महापुरुषों की कथाएं होती हैं इसको पढ़ने से समता आती है |  इस अनुयोग के अंतर्गत पद्म पुराण,आदिपुराण आदि कथा ग्रंथ आते हैं ।पद्मपुराण में वीतरागी भगवान राम की कथा के माध्यम से धर्म की प्रेरणा दी गयी है । आदि पुराण में तीर्थंकर आदिनाथ के चरित्र के माध्यम से धर्म सिखलाया गया है । करणानुयोग: इसमें गणितीय तथा सूक्ष्म कथन की मुख्यता होती है। इसकी विषय वस्तु ३ लोक तथा कर्म व्यवस्था है। इसको पढ़ने से संवेग और वैराग्य  प्रकट होता है। आचार्य यति वृषभ द्वारा रचित तिलोयपन्नत्ति में तीन लोक तथा उ

सम्यक ज्ञान का स्वरूप

*सम्यक ज्ञान का स्वरूप*  मोक्ष मार्ग में सम्यक ज्ञान का बहुत महत्व है । अज्ञान एक बहुत बड़ा दोष है तथा कर्म बंधन का कारण है । अतः अज्ञान को दूर करके सम्यक ज्ञान प्राप्त करने का पूर्ण प्रयास करना चाहिए । परिभाषा -  जो पदार्थ जैसा है, उसे वैसे को वैसा ही जानना, न कम जानना,न अधिक जानना और न विपरीत जानना - जो ऍसा बोध कराता है,वह सम्यक ज्ञान है । ज्ञान जीव का एक विशेष गुण है जो स्‍व व पर दोनों को जानने में समर्थ है। वह पा̐च प्रकार का है–मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय व केवलज्ञान। अनादि काल से मोहमिश्रित होने के कारण यह स्‍व व पर में भेद नहीं देख पाता। शरीर आदि पर पदार्थों को ही निजस्‍वरूप मानता है, इसी से मिथ्‍याज्ञान या अज्ञान नाम पाता है। जब सम्‍यक्‍त्व के प्रभाव से परपदार्थों से भिन्न निज स्‍वरूप को जानने लगता है तब भेदज्ञान नाम पाता है। वही सम्‍यग्‍ज्ञान है। ज्ञान वास्‍तव में सम्‍यक् मिथ्‍या नहीं होता, परन्‍तु सम्‍यक्‍त्‍व या मिथ्‍यात्‍व के सहकारीपने से सम्‍यक् मिथ्‍या नाम पाता है। सम्‍यग्‍ज्ञान ही श्रेयोमार्ग की सिद्धि करने में समर्थ होने के कारण जीव को इष्ट है। जीव का अपना प्रतिभास तो निश

जैन चित्रकला

जैन चित्र कला की विशेषता  कला जीवन का अभिन्न अंग है। कला मानव में अथाह और अनन्त मन की सौन्दर्यात्मक अभिव्यक्ति है। कला का उद्भव एवं विकास मानव जीवन के उद्भव व विकास के साथ ही हुआ है। जिसके प्रमाण हमें चित्रकला की प्राचीन परम्परा में प्रागैतिहासिक काल से ही प्राप्त होते हैं। जिनका विकास निरन्तर जारी रहा है। चित्र, अभिव्यक्ति की ऐसी भाषा है जिसे आसानी से समझा जा सकता है। प्राचीन काल से अब तक चित्रकला की अनेक शैलियां विकसित हुईं जिनमें से जैन शैली चित्र इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। जैन चित्रकला के सबसे प्राचीन चित्रित प्रत्यक्ष उदाहरण मध्यप्रदेश के सरगुजा राज्य में जोगीमारा गुफा में मिलते है। जिसका समय दूसरी शताब्दी ईसापूर्व है।१ ग्यारहवीं शताब्दी तक जैन भित्ति चित्र कला का पर्याप्त विकास हुआ जिनके उदाहरण सित्तनवासल एलोरा आदि गुफाओं में मिलते है। इसके बाद जैन चित्रों की परम्परा पोथी चित्रों में प्रारंभ होती है और ताड़पत्रों, कागजों, एवं वस्त्रों पर इस कला शैली का क्रमिक विकास होता चला गया। जिसका समय ११वीं से १५वी शताब्दी के मध्य माना गया। २ जैन धर्म अति प्राचीन एवं अहिंसा प्रधान