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Showing posts from November, 2022

खाद्य पदार्थों के नाम संस्कृत में | Food Names in Sanskrit

खाद्य पदार्थों के नाम संस्कृत में | Food Names in Sanskrit सुबह का नाश्ता (Breakfast) – प्रातराशः दोपहर का भोजन (Lunch) – अहराशः रात का खाना (Dinner) – नक्ताशःरोटी (Bread) – मृदुरोटिका अन्न (Grain) – अन्नम् आटा (Flour) – चूर्णम् पुरी (Puri) – पूरिका बाजरा (Millet) – प्रियंगुः गेहूँ (Wheat) – गोधूमः धान (Grain) – धान्यम् जौ (Barley) – यवः मूँगफली (Peanuts) – मुद्गफली मूँग (Coral) – मुद्गः उड़द (Urad) – माषः गेहूं की रोटी (Wheet Roti) – गोधूमरोटिका तली हुई रोटी (Fried Roti) – अङ्गाररोटिका तेल वाली रोटी (Oiled Roti) – तैलरोटिका ज्वार की रोटी (Jowari Roti) – जूर्णरोटिका रागी रोटी (Ragi Roti) – कोद्रवरोटिका गेहूं उपमा (Wheet Upama) – गोधूमपिष्टिका परौंठा (Protha) परौंट: चितरना (Chitranna) – चित्रान्नम् तिल – तिलः मसूर (Lentil) – मसूरः दाल (Dal) – सूपः, द्धिदलम् करी (Curry) – व्यञ्जनम् दाल करी (Dal Curry) – शाकसूपः अचार (Pickle) – उपदंशः चटनी (Chutuney) – उपसेचनम् सब्जी (Sabji) व्यंजनम् सब्जी का सूप (Vegetable Soup) – शाकतरला तली हुई सब्जी (Fried Curry) – भर्जितशाकम् भरवां करी (Stuffed Curry)

जिन फाउंडेशन की सहसचिव डॉ. इन्दु जैन राष्ट्र गौरव : एक परिचय

जिन फाउंडेशन की सह-सचिव  डॉ. इन्दु जैन राष्ट्र गौरव : एक परिचय सामाजिक, मीडिया एवं अकादमिक गतिविधियों से जुड़ीं डॉ. इन्दु जैन एक ऐसी शख्सियत हैं  जिन्होंने कला,साहित्य और लेखन के क्षेत्र में बहुत कम उम्र में ही वो मुक़ाम हासिल कर लिया है कि उन्हें जैन रत्न, जैन युवा सम्मान, राष्ट्र गौरव ,विदुषी रत्न, Faith Leader जैसी उपाधियों तथा "महावीर पुरस्कार" जैसे अकादमिक पुरस्कारों से नवाजा गया है ।  आप वर्तमान में समाज में गिरते नैतिक और चारित्रिक मूल्यों की त्रासदी के मध्य अपनी ओजस्वी वाणी, प्रेरक वक्तव्य, मधुर कंठ और मनमोहक संचालन द्वारा  समाज को मूल्यों के संरक्षण के लिए निरंतर प्रेरित कर रहीं हैं और प्राचीन भाषा प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत की शास्त्रीय प्रस्तुति के माध्यम से प्राचीन भारतीय संस्कृति को पुनर्जीवित करने का भगीरथ यत्न कर रहीं हैं ।   आज के युवा पीढ़ी के लिए रोल मॉडल बन चुकीं डॉ इंदु जैन समाज में मूल्यों की स्थापना के लिए अहर्निश समर्पित रहती हैं।  *संक्षिप्त परिचय* पिता - प्रो. फूलचन्द जैन 'प्रेमी', वाराणसी ( राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त)  माता - डॉ. मुन्नी पुष्पा ज

जैन धर्म की प्राचीनता

जैन धर्म की प्राचीनता ‘‘श्रमण संस्कृति का प्रवर्तक जैन धर्म प्रागैतिहासिक धर्म है |.... मोहनजोदड़ो से उपलब्ध ध्यानस्थ योगियों की मूर्तियों की प्राप्ति से जैन धर्म की प्राचीनता निर्विवाद सिद्ध होती है | वैदिक युग में व्रात्यों और श्रमण ज्ञानियों की परम्परा का प्रतिनिधित्व भी जैन धर्म ने ही किया | धर्म, दर्शन, संस्कृति और कला की दृष्टि से भारतीय इतिहास में जैन धर्म का विशेष योगदान रहा है |’’                       –वाचस्पति गैरोला, भारतीय दर्शन, पृष्ठ 93

ऋषभदेव वेदपूर्व परम्परा के प्रतिनिधि हैं

*ऋषभदेव वेदपूर्व परम्परा के प्रतिनिधि हैं*  ‘‘वेद और पुराण चाहे जो भी कहें, किन्तु ऋषभदेव की कृच्छ्र साधना का मेल ऋग्वेद की प्रवृत्तिमार्गी धारा से नहीं बैठता | वेदोल्लिखित होने पर भी ऋषभदेव वेदपूर्व परम्परा के प्रतिनिधि हैं |’’                       –रामधारीसिंह दिनकर,  संस्कृति के चार अध्याय, पृष्ठ 147 जैन धर्म की प्राचीनता ‘‘श्रमण संस्कृति का प्रवर्तक जैन धर्म प्रागैतिहासिक धर्म है |.... मोहनजोदड़ो से उपलब्ध ध्यानस्थ योगियों की मूर्तियों की प्राप्ति से जैन धर्म की प्राचीनता निर्विवाद सिद्ध होती है | वैदिक युग में व्रात्यों और श्रमण ज्ञानियों की परम्परा का प्रतिनिधित्व भी जैन धर्म ने ही किया | धर्म, दर्शन, संस्कृति और कला की दृष्टि से भारतीय इतिहास में जैन धर्म का विशेष योगदान रहा है |’’                       –वाचस्पति गैरोला, भारतीय दर्शन, पृष्ठ 93

आत्मजयी महावीर -आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी,

*आत्मजयी महावीर*  -आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी,  “जिन तपःपुनीत महात्माओं पर भारतवर्ष उचित गर्व कर सकता है, जिनके महान् उपदेश हजारों वर्ष की कालावधि को चीरकर आज भी जीवन्त प्रेरणा का स्रोत बने हुये हैं, उनमें महावीर अग्रगण्य हैं । उनके पुण्य स्मरण से हम निश्चित रूप से गौरवान्वित होते हैं।...भगवान महावीर जैसा चरित्रसम्पन्न, जितेन्द्रिय, आत्मवशी महात्मा मिलना मुश्किल है। सारा जीवन उन्होंने आत्मसंयम और तपस्या में बिताया। उनके समान दृढ़ संकल्प के आत्मजयी महात्मा बहुत थोड़े हुये हैं। उनका मन, वचन और कर्म एक दूसरे के साथ पूर्ण सामंजस्य में थे। इस देश का नेता उन्हीं जैसा तपोमय महात्मा ही हो सकता था।"     -'आत्मजयी महावीर’ शीर्षक निबन्ध में

कविवर संतलाल जी और सिद्धचक्र विधान

*कविवर संतलालजी और श्री सिद्धचक्र विधान का संक्षिप्त परिचय* *जन्म एवं जन्म स्थान :*       कविवर संतलालजी का जन्म सन् 1834 में नकुड (सहारनपुर, उ.प्र.) निवासी लाला शीलचंद जी के परिवार में हुआ। *देह-परिवर्तन* :               कविवर संतलालजी का देहपरिवर्तन सन् 1886 में 52 वर्ष की आयु में समाधि-भावनापूर्वक हुआ। *शिक्षा*         आरंभिक शिक्षा नकुड (सहारनपुर) में की, बाद में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए रूड़की (उत्तराखंड) के थामसन कालेज में अध्ययन किया। स्वत: स्वाध्याय के बल से शास्त्र अभ्यास में विशेष दक्ष थे, वे अल्प आयु में ही जिनागम के मर्मज्ञ बन गये थे। जिनागम के गहन अध्ययन से वे अध्यात्मविद्या में विशेष पारंगत हो गये थे। *कृतित्व*        उन्होंने अनेकों बार अन्य मतावलंबियों के साथ शास्त्रार्थ किया और जिनधर्म की सत्यता /महत्ता को उत्तर भारत में सब जगह प्रचारित किया। उनके सत्य संभाषण से सभी जगह जिनधर्म का प्रचार-प्रसार हुआ। उन्होंने जैन धर्मावलंबियों में प्रचलित अनेकों कुरीतियों को समाप्त किया। उस समय उत्तर भारत में प्राय: हिंदू रीति-रिवाज से विवाह आदि संस्कार किए जाते थे, उन्होंने जैन

आचार्य कुन्दकुन्द का समय

*"मेरा दिल इनको विक्रम की पहली शताब्दि से भी बहुत पहले का कबूल करता है" विद्वान् पाठक, इसका समुचित विचार कर स्वामीजी (आचार्य कुन्दकुन्द) के समय-निर्णय को गहरी गवेषणा में उतर कर समाज की एक खास त्रुटि को पूरा करेंगे।*        - स्व. पण्डित श्री रामप्रसाद जैन       (अष्टपाहुड वचनिका की भूमिका से साभार) *जास के मुखारविन्द तें, प्रकाश भासवृन्द;* *स्याद्वाद जैन-वैन, इन्दु कुन्दकुन्द से ।* *तास के अभ्यास तें, विकास भेदज्ञान होत,* *मूढ़ सो लखे नहीं, कुबुद्धि कुन्दकुन्द से ।*  *देत हैं अशीस, शीस नाय इंदु चंद जाहि,* *मोह-मार-खंड मारतंड कुन्दकुन्द से ।*  *विशुद्धि-बुद्धि-वृद्धि-दा प्रसिद्धि-ऋद्धि-सिद्धि-दा;* *हुए न हैं, न होंहिंगे, मुनिन्द कुन्दकुन्द से ॥*      - कविवर वृन्दावनदासजी        स्वामी कुन्दकुन्दाचार्य का आसन (स्थान) इस दिगम्बर जैन समाज में कितना ऊँचा है कि *ये आचार्य, मूलसंघ के बड़े ही प्राभाविक (प्रभावशाली) आचार्य माने गये हैं ।*        अतएव हमारे प्रधान लोग, मूलसंघ के साथ-साथ कुन्दकुन्दाम्नाय में आज भी अपने को प्रगट कर धन्य मानते हैं, वास्तव में देखा जाय तो जो कुन्दकुन्दाम्

जैन संस्कृति प्रतिष्ठापक आचार्य कुन्दकुन्द : प्राग्वैदिक पुरुष व्रात्य ( द्रविड 'श्रमण )

*जैन संस्कृति प्रतिष्ठापक आचार्य कुन्दकुन्द : प्राग्वैदिक पुरुष व्रात्य ( द्रविड 'श्रमण )* - गोरावाला खुशालचंद्र काशी         आधुनिक इतिहास पद्धति पश्चिम की है । पाश्चात्य इतिहासज्ञों की पहुँच आर्यों के आव्रजन तक ही रहती, यदि भारत में प्राग्वैदिक या द्रविड़-संस्कृति का अस्तित्व मोहनजोदड़ो और हड़प्पा ने मूर्तिमान न किया होता । इस उत्खनन ने विश्व की मान्यता बदल दी है, क्योंकि इन अवशेषों ने यह सिद्ध कर दिया है कि प्राग्वैदिक-संस्कृति 'सुविकसित-नागरिकता' थी तथा आर्य-लोग द्रविड़-संघ से कम सभ्य तथा दक्ष थे।  वेद भी अपने इन विरोधियों को दास, व्रात्य आदि नामों से याद करते हैं। व्रात्यों का स्वरूप संक्षेप में यह है कि वे यज्ञ, ब्राह्मण और बलि को नहीं मानते । ऋग्वेद सूक्तों में व्रात्य का उल्लेख है, किन्तु यजुर्वेद और तैत्तिरीय ब्राह्मण उसे नरमेघ के बलि-प्राणी रूप से कहता है। तथा अथर्ववेद कहता है कि 'पर्यटक व्रात्य ने प्रजापति को शिक्षा और प्रेरणा दी' (१५-१)।  वैदिक और ब्राह्मण साहित्य का अनुशीलन एक ही स्पष्ट निष्कर्ष की घोषणा करता है कि 'दास या व्रात्य वे 'जन' थे