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Showing posts from 2023

मुल्तान, पाकिस्तान में एक शानदार 150 साल पुराना जैन मंदिर...

मुल्तान, पाकिस्तान में एक शानदार 150 साल पुराना जैन मंदिर...    *जैन मंदिर की दीवारों पर जैन धर्म के सभी तीर्थंकरों के चित्र आज भी मौजूद हैं।  मंदिर की दीवार पर नवकार मंत्र अंकित है।  यह जैन मंदिर 150 साल पुराना था।*   *लेकिन आज इस जैन मंदिर में और इस मंदिर से सटे धर्मशाला में एक जामिया हमीदिया तमिल कुरान मदरसा चल रहा है।*   *एक समय इस भव्य जैन मंदिर के प्रांगण में सभी को दो वक्त का भोजन मिलता था।* *जब 1947 में भारत और पाकिस्तान का बंटवारा हुआ।  चारों ओर दंगे हुए थे।  भारत से पाकिस्तान या पाकिस्तान से भारत जाने वाली ट्रेनें और बसें टर्मिनस पर पहुंचते ही कब्रिस्तान में तब्दील हो गईं।*  *पंजाब के मुल्तान में एक जैन मंदिर था जो बंटवारे के बाद अब पाकिस्तान में है।  जैन समुदाय मुल्तान से भारत में मूर्तियों के हस्तांतरण के बारे में चिंतित था।  दंगों के कारण वे बस या ट्रेन से भारत नहीं जा सकते थे और न ही पाकिस्तान में रह सकते थे।*  *समुदाय के कुछ लोग चार्टर्ड विमान लेने के लिए दिल्ली गए थे।  लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली तो वे बंबई चले गए।  अंत में उन्हें एक निजी कंपनी से प्रति व्य

सम्राट अशोक और जैन धर्म

सम्राट अशोक ने उसकी बौद्ध रानी तिष्यरक्षिता के कारण जैन धर्म को त्यागकर बौद्ध धर्म अपना लिया था। लेकिन तिष्यरक्षिता ने ही अशोक के पुत्र कुणाल को कपट से अंधा बनवा दिया था, वास्तव में जब अशोक ने अपने प्रिय पुत्र कुणाल को उज्जैन अध्ययन के लिए भेजा तो उसने आदेश लिखा- "अधियतु कुमार(राजकुमार को पढाओ" , लेकिन रानी तिष्यरक्षिता ने मात्र एक बिंदु जोड़ दिया जिससे अर्थ हो गया- "अंधियतु कुमार (राजकुमार को अंधा करो)"। जिसके कारण कुणाल पिता के आदेश का पालन करते हुए स्वयं अंधे हो गये। जिसके कारण राज्य दूसरे पुत्र दशरथ ( दूसरा नाम पूण्यरथ)को मिला।   तिष्यरक्षिता की यह हकीकत जानने पर अशोक ने फिर से अपनें जीवन के अंतिम चार वर्षों में, बौद्ध धर्म को त्यागकर जैन धर्म अपना लिया था।सम्राट अशोक जीवन के अंतिम चार वर्षों में बौद्ध धर्म छोड़कर जैन धर्मी बन गए थे इसका प्रमाण कवि बिल्हण की रचना राजतरंगिणी में भी मिलता है।अशोक ने सभी बौद्ध भिक्षुओं को आधा नींबू भेजकर यह कहा था कि तुम्हारे पास आधा ही ज्ञान है, पूर्णज्ञान तो जैन धर्म में है।  फिर अशोक ने अपने पुत्र कुणाल के पुत्र संप्रति(संपदी) क

कलिंग जिन का इतिहास और ऋषभ देव

प्राचीन कलिंग देश जैन धर्म का केन्द्र था। तीर्थंकर, ऋषभदेव, अजितनाथ, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, अरहनाथ, अरिष्टनेमि, पाश्र्वनाथ और महावीर तीर्थंकरों का संबंध कलिंग देश से रहा। जैन धर्म प्राचीनकाल में कलिंग का राष्ट्रीय धर्म था। यहाँ के निवासियों के बीच में जैन धर्म, राजा नन्द अर्थात् ई. पू. चौथी शताब्दी में प्रचलित धर्म नहीं बल्कि उसकी जड़ें बहुत गहराई तक पहुँची हुई थीं। चीनी पर्यटक ह्यू एनत्सांग ने ई. ६२९-६४५ में उड़ीसा का भ्रमण करने के पश्चात् कहा था कि उड़ीसा जैन धर्म का गढ़ था। ई. पू. दूसरी शताब्दी के सम्राट खारवेल के ‘हाथी गुम्फा’ नामक शिलालेख में ‘कंलिग जिन’ का उल्लेख मिलना उड़ीसा में जैन धर्म की प्राचीनता का द्योतक है। कलिंग वासी अपने आराध्य देव की ‘कलिंग जिन’ के रूप में अर्चना और आराधना करते थे। ‘जिन’ शब्द हमारी धर्म और संस्कृति का सूचक है। इसलिये ‘कलिंग जिन’ से अभिप्राय जैन तीर्थंकर है। प्रताप नगरी, बालेश्वर, कोरोपुर, खंडगिरि आदि का सर्वेक्षण करने से ज्ञात होता है वहाँ से प्राप्त तीर्थंकरों की मूर्तियों को आज भी अजैन—जन बड़ी श्रद्धा और भक्ति से अपनी प्रथा के अनुसार पूजते हैं। उदयगिर

रत्नकरण्ड-श्रावकाचारस्य वैशिष्ट्यम्

  (First proof )  (नवदेहलीस्थश्रीलालबहादुरशास्त्रिराष्ट्रीयसंस्कृतविश्वविद्यालयस्य जैनदर्शनविभागेन प्रदत्तं पाठ्यसामग्री - प्रो अनेकान्त  ) रत्नकरण्ड - श्रावकाचारस्य वैशिष्ट्यम् 1.0 प्रस्तावना जैनन्यायशास्त्रस्य जनकः , आद्य - स्तुतिकारः आचार्यः समन्तभद्रः जैनाचार्यपरंपरायां रवीव   तेजस्वी , यशस्वी आचार्यः अभवत् | अनेन कृतकार्याय समाजमिदम् सदैव ऋणी भवति | जैनशास्त्रपरंपरा - संवर्धनार्थं अस्य महत्वपूर्णं योगदानं अस्ति | अयं विक्रमस्य प्रथम - द्वितीयशताब्देः एव जैनन्यायस्य बीजं रोपयति स्मः | अद्यापि आचार्यसमन्तभद्रस्य नाम जैनपरंपरायां स्वर्ण - अक्षरेषु लिखितं भवति | आचार्येण समन्तभद्रेण रचितेषु विविधग्रन्थेषु मध्ये आचारशास्त्रस्य निरुपकः एकः ग्रन्थः रत्नकरण्ड - श्रावकाचारः अस्ति | श्रमणानां कृते तत्समयतः शास्त्रम् उपलब्धं वर्तते परन्तु श्रावकानां कृते न दृश्यते खलु , तत्समये रत्नकरण्डश्रवकाचारस्य रचना श्रावकस्य आचारशुद्ध्यर्थं एकं महत्वपूर्णः कार्यं अस्ति | 1.1 ग्रन्थकारस्य परिचयः - जैनाचार्याणां विशेषता अस्ति यत् ते स्वविषये एकमपि अक्षरं न लिखितं , य : परिचय : उपलब्ध