Skip to main content

औरंगजेब से कैसे बचा दिल्ली का जैन लाल मंदिर ?

दिल्ली जैन लाल मंदिर का इतिहास

ये समय मुगल शासन का, सन 1656 की बात है जब भारत में शाहजहाँ का शासन हुआ करता था, उस समय किसी भी मंदिर को बनवाने की कल्पना तो दूर, किसी जैन प्रतिमा या मुनि के दर्शन भी दुर्लभ थे।

उस समय शाहजहाँ लाल किले में रहकर देश पर शासन करते थे और उनके सैनिकों की छावनी खूनी दरवाजे तक खुले मैदान में थी। एक दिन सेना के एक जैन सैनिक रामचन्द्र को कहीं से भगवान पार्श्वनाथ की एक दुर्लभ प्रतिमा प्राप्त हो गयी, उसने श्रद्धा पूर्वक उस प्रतिमा को अपने घर मे ही विराजमान कर लिया और नियमित पूजा अर्चना शुरू कर दी। सेना के अन्य जैन सैनिक भी वहाँ आते और दर्शन करते थे। धीरे धीरे यह खबर आसपास के जैन श्रावकों को भी लग गयी तो वे भी वहाँ आने लगे और भगवान की आराधना करने लगे। कुछ ही समय में वह जगह लश्करी मंदिर के नाम से प्रसिद्ध हो गयी।

शाहजहाँ एक क्रूर राजा था, उसने अनेक मंदिर ध्वस्त करवाये थे, ऐसा नही है कि उसे इस बात का पता न था, लेकिन उसने अपने सैनिक के इस कार्य को नजरअंदाज कर दिया।

सन 1658, शाहजहां को कैद करके उसी का बेटा औरंजेब राजा बन गया, वह अत्यंत निर्दयी था, उसने अनेकानेक जैन मंदिर तुड़वाये, प्रतिमाओं को मस्जिद की सीढ़ियों पर फिकवाया, अनेक हिन्दूओं को मुसलमान बनाया था।

भला ऐसे निर्दयी, जैन धर्म विरोधी औरंजेब को लाल किले के लाहौर दरवाजे से स्पष्ट दिखाई देने वाला मंदिर कैसे सहन होता,?, लेकिन ये भी एक आश्चर्य था कि उसे इस बात की खबर न लगी।

लश्करी मंदिर में प्रतिदिन शाम को अर्चना के समय कुछ देर के किये नगाड़ा बजाया जाता था, ये प्रथा काफी समय से चली आ रही थी, अब तक इस नगाड़े की आवाज औरंगजेब के कानों तक नही पहुची थी, लेकिन एक दिन उसे इसका शोर सुनाई दिया।

औरंगजेब ने साथ ही में बैठे अपने वजीर से पूछा- कि ये शोर कैसा है? वजीर को मालूम था कि ये एक जैन सैनिक के ही घर मे बने मंदिर में बजने वाले नगाड़े का शोर आ रहा है, वह भी अचंभित था कि आज तक इसका शोर नही सुनाई देता था तो आज कैसे?, तब उसने बादशाह को उत्तर दिया -" शहंशाह। आपके एक इशारे पर मर मिटने वाले सैनिकों के घर में शाम के समय थोड़ी देर के लिए एक नगाड़ा बजता है!

औरंज़ेब का क्रोध शांत हुआ और उसने आदेश दिया कि कल से यह शोर हमें सुनाई न दे, यह आदेश को सुन सभी जैन भाई सहम गए और अगले दिन किसी मे भी अर्चना के समय नगाड़ा बजाने की हिम्मत न हुई, क्योंकि कोई भी औरंजेब के गुस्से का शिकार नही होना चाहता था, तभी एक आश्चर्य हुआ, वह नगाड़ा स्वयमेव बजने लगा, और उसके शोर से लाल किले की दीवारें गूंज उठी, औरंजेब अपने फैसले का अपमान होते हुए देख लाल-पीला होने लगा वह कुछ आदेश देता की, तभी उसका वजीर भागता-भागता हुआ आया और बोला- " शंहशाह करिश्मा हो गया! लश्करी मंदिर का नगाड़ा खुद पे खुद बज रहा है। ये चमत्कार मैं अपनी आंखों से देख कर आया हूँ।

कुछ समय के लिये औरंगजेब भी स्तभ्ध रह गया, उसे पता था कि ये उसका वफादार वजीर उसके सामने झूठ बोलने का साहस नही करेगा, फिर भी उसने वजीर को डाटा -क्या बकते हो , ऐसा कैसे हो सकता है?

वजीर ने समझाया कि यदि आपको यकीन न हो कल खुद आओ चलकर देखें।

खुद चलने के किये बादशाह मान गए।
अगले दिन अर्चना के समय से पहले ही औरंजेब मंदिर पहुच गया सबको मंदिर से निकलवा कर बाहर ताला लगवा दिया। और आज भी बिल्कुल वैसा ही हुआ, अर्चना के नियत समय पर वे नगाड़े खुद बजने लगे, औरंगजेब अचंभित रह गया, उसी क्षण उसने ताला खुलवाया और अपनी आंखों से उसने स्वयमेव वे नगाड़े बजते हुए देखे। यह देख वह दंग रह गया, उसने उसी समय शाही फरमान जारी किया- इस बुतखाने में नौबत बदस्तूर बजने दो, फैजाने इलाही पर बंदिश नही लगाई जा सकती।

शाहजहानाबाद के इस प्राचीनतम जैन जिनालय की प्रसिद्धि दूर दूर तक फैल गई। इसका स्वरूप विकसित होता गया, यह दिल्ली का पहला मंदिर था जो किसी सैनिक के घर मे बनाया गया था, इसलिए इसे लश्करी मंदिर भी कहा जाने लगा। उसके बाद इसे उर्दू मंदिर भी कहा जाता रहा क्योंकि इसके समीप उर्दू बाजार लगाया जाता था। सन 1878 में हुए नवीनीकरण में यहां लाल पत्थरों का प्रयोग किया, अतः यह लाल मंदिर के नाम से प्रसिद्ध हुआ, तब से अब तक अर्थात 141 साल से यही नाम प्रचलित है।

 ये जिनशासन का ही प्रभाव था कि जिसके आगे देश के एक निर्दयी मुगल राजा को भी झुकना पड़ा।

 इस घटना की चर्चा अंग्रेज़ी इतिहासकारों ने भी अपनी किताबो में भी की है ।
  

Comments

Popular posts from this blog

जैन ग्रंथों का अनुयोग विभाग

जैन धर्म में शास्त्रो की कथन पद्धति को अनुयोग कहते हैं।  जैनागम चार भागों में विभक्त है, जिन्हें चार अनुयोग कहते हैं - प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग।  इन चारों में क्रम से कथाएँ व पुराण, कर्म सिद्धान्त व लोक विभाग, जीव का आचार-विचार और चेतनाचेतन द्रव्यों का स्वरूप व तत्त्वों का निर्देश है।  इसके अतिरिक्त वस्तु का कथन करने में जिन अधिकारों की आवश्यकता होती है उन्हें अनुयोगद्वार कहते हैं। प्रथमानुयोग : इसमें संयोगाधीन कथन की मुख्यता होती है। इसमें ६३ शलाका पुरूषों का चरित्र, उनकी जीवनी तथा महापुरुषों की कथाएं होती हैं इसको पढ़ने से समता आती है |  इस अनुयोग के अंतर्गत पद्म पुराण,आदिपुराण आदि कथा ग्रंथ आते हैं ।पद्मपुराण में वीतरागी भगवान राम की कथा के माध्यम से धर्म की प्रेरणा दी गयी है । आदि पुराण में तीर्थंकर आदिनाथ के चरित्र के माध्यम से धर्म सिखलाया गया है । करणानुयोग: इसमें गणितीय तथा सूक्ष्म कथन की मुख्यता होती है। इसकी विषय वस्तु ३ लोक तथा कर्म व्यवस्था है। इसको पढ़ने से संवेग और वैराग्य  प्रकट होता है। आचार्य यति वृषभ द्वारा रचित तिलोयपन...

णमोकार महामंत्र के 9 रोचक तथ्य

9 अप्रैल 2025 विश्व नवकार सामूहिक मंत्रोच्चार पर विशेष – *णमोकार महामंत्र के 9 रोचक तथ्य* डॉ.रूचि अनेकांत जैन प्राकृत विद्या भवन ,नई दिल्ली १.   यह अनादि और अनिधन शाश्वत महामन्त्र है  ।यह सनातन है तथा श्रुति परंपरा में यह हमेशा से रहा है । २.    यह महामंत्र प्राकृत भाषा में रचित है। इसमें कुल पांच पद,पैतीस अक्षर,अन्ठावन मात्राएँ,तीस व्यंजन और चौतीस स्वर हैं । ३.   लिखित रूप में इसका सर्वप्रथम उल्लेख सम्राट खारवेल के भुवनेश्वर (उड़ीसा)स्थित सबसे बड़े शिलालेख में मिलता है ।   ४.   लिखित आगम रूप से सर्वप्रथम इसका उल्लेख  षटखंडागम,भगवती,कल्पसूत्र एवं प्रतिक्रमण पाठ में मिलता है ५.   यह निष्काम मन्त्र है  ।  इसमें किसी चीज की कामना या याचना नहीं है  । अन्य सभी मन्त्रों का यह जनक मन्त्र है  । इसका जाप  9 बार ,108 बार या बिना गिने अनगिनत बार किया जा सकता है । ६.   इस मन्त्र में व्यक्ति पूजा नहीं है  । इसमें गुणों और उसके आधार पर उस पद पर आसीन शुद्धात्माओं को नमन किया गया है...

सम्यक ज्ञान का स्वरूप

*सम्यक ज्ञान का स्वरूप*  मोक्ष मार्ग में सम्यक ज्ञान का बहुत महत्व है । अज्ञान एक बहुत बड़ा दोष है तथा कर्म बंधन का कारण है । अतः अज्ञान को दूर करके सम्यक ज्ञान प्राप्त करने का पूर्ण प्रयास करना चाहिए । परिभाषा -  जो पदार्थ जैसा है, उसे वैसे को वैसा ही जानना, न कम जानना,न अधिक जानना और न विपरीत जानना - जो ऍसा बोध कराता है,वह सम्यक ज्ञान है । ज्ञान जीव का एक विशेष गुण है जो स्‍व व पर दोनों को जानने में समर्थ है। वह पा̐च प्रकार का है–मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय व केवलज्ञान। अनादि काल से मोहमिश्रित होने के कारण यह स्‍व व पर में भेद नहीं देख पाता। शरीर आदि पर पदार्थों को ही निजस्‍वरूप मानता है, इसी से मिथ्‍याज्ञान या अज्ञान नाम पाता है। जब सम्‍यक्‍त्व के प्रभाव से परपदार्थों से भिन्न निज स्‍वरूप को जानने लगता है तब भेदज्ञान नाम पाता है। वही सम्‍यग्‍ज्ञान है। ज्ञान वास्‍तव में सम्‍यक् मिथ्‍या नहीं होता, परन्‍तु सम्‍यक्‍त्‍व या मिथ्‍यात्‍व के सहकारीपने से सम्‍यक् मिथ्‍या नाम पाता है। सम्‍यग्‍ज्ञान ही श्रेयोमार्ग की सिद्धि करने में समर्थ होने के कारण जीव को इष्ट है। जीव का अपना प्रतिभ...