*पं. फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री*
पं. श्री कैलाशचन्द्रजी का यह कथन कि 'हम तो उन्हीं के अनुवादों को पढ़कर सिद्धान्तग्रन्थों के ज्ञाता बने हैं" तथा पं. जगन्मोहनलालजी के ये शब्द 'उम्र में तो वे हमसे चार माह बड़े हैं परन्तु ज्ञान में तो सैकड़ों वर्ष बड़े हैं' से हमें पं. फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री के जैन सिद्धान्त के मर्मज्ञ व श्रेष्ठ विद्वान् होने का बोध हो जाता है। पं. फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, पं. जगन्मोहनलाल शास्त्री और पं. कैलाशचन्द्र सिद्धान्ताचार्य -ये तीनों रत्नत्रयी के नाम से विख्यात रहे हैं, इन तीनों में ये प्रधान रत्न थे।
११ अप्रैल सन् १९०१ को उत्तरप्रदेश के सिलावन (झांसी) में एक सामान्य परिवार में आपका जन्म हुआ। श्री दरयावलाल जी सिंघई आपके पिता एवं श्रीमती जानकीबाई माता का नाम था । आप परवार जाति में उद्भूत हुए थे।
*शिक्षा -*
आरम्भिक शिक्षा जन्मभूमि के समीपस्थ खजुरिया ग्राम में प्राप्त की। मौसेरे भाई से तत्त्वार्थसूत्र और बहिन से जिनसहस्रनाम तथा भक्तामर वाचन का अभ्यास किया। आगे की शिक्षा के लिये सर सेठ हुकमचन्द दिगम्बर जैन संस्कृत विद्यालय, इन्दौर, श्री दिगम्बर जैन विद्यालय सामल एवं श्री गोपालदास दिगम्बर जैन विद्यालय मुरैना में अध्ययन कर शास्त्री की परीक्षा उत्तीर्ण की।
*गृहस्थजीवन-*
पं. जी ने पुत्रीबाई से परिणय कर गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया। आपके एक पुत्र और तीन पुत्रियों ने जन्म लिया। आपके पुत्र श्री अशोककुमार जैन इंजीनियर हैं।
*कर्मक्षेत्र-*
अध्ययन के उपरान्त आप कर्मक्षेत्र में उतरे तो साढूमल विद्यालय, स्याद्वाद महाविद्यालय बनारस और नाभिनन्दन दिगम्बर जैन विद्यालय बीना में अध्यापन का कार्य किया। तदनन्तर नातेपुते (महाराष्ट्र) में रहकर छह वर्ष तक साहित्यिक प्रवृत्ति में लीन रहे। जब विदिशा के श्रेष्ठि श्री लक्ष्मीचन्द जी जैन ने साहित्योद्धारक फण्ड की स्थापना की और षट्खण्डागम के सम्पादन और प्रकाशन की योजना बनाई तो आप डॉ. हीरालाल जी के सहायक बनकर सन् १९३७ से १९४० तक अमरावती में रहे। तत्पश्चात् बीना आ गये।
*राष्ट्रीय सेवा-*
देश की स्वतन्त्रता हेतु पं. जी ने राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लिया और सन् १९४१ में जेलयात्रा भी संपन्न की। विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार आन्दोलन में भाग लिया और आजीवन खादी पहनी।
*साहित्यसेवा-*
पं. जी की यशस्वी लेखनी ने अनेक ग्रन्थ समाज के लिये समर्पित किये। जिनमें हैं - १. जैनधर्म और जाति व्यवस्था, २. विश्वशान्ति और अपरिग्रह, ३. जैनतत्त्वमीमांसा, ४. वर्ण, जाति और धर्म, ५. जैन तत्त्व समीक्षा का समाधान, ६. अकिंचित्कर एक अनुशीलन, ७. जयपुर खानियां तत्त्वचर्चा : भाग १-२. 8. परवार समाज का इतिहास।
सम्पादित, अनूदित एवं टीका ग्रन्थों में १. प्रमेयरत्नमाला, २, आलापपद्धति, ३. पट्खण्डागम का सह सम्पादन एवं अनुवाद, ४. महाबन्ध का सम्पादन एवं अनुवाद भाग २७, ५. कषायपाहुड भाग १- १६ का सम्पादन एवं अनुवाद, ६. सप्ततिकाप्रकरण, ७. तत्त्वार्थसूत्र सम्पादन एवं विवेचन ८. सर्वार्थसिद्धि, ९. ज्ञानपीठ पूजांजलि, १०. समयसार कलश भावार्थ सहित सम्पादन १२. श्री कानजी स्वामी अभिनन्दन ग्रन्थ, १३. सम्यग्ज्ञान दीपिका, १४. लब्धिसार क्षपणासार, १५. ज्ञानसमुच्चयसार १६. आत्मानुशासन प. टोडरमल की टीका का संपादन एवं प्रस्तावना।
आपकी सभी अनुवादित एवं सम्पादित कृतियां प्रकाशित हैं। इनके अतिरिक्त आपने सन् १९३५-३७ तक 'शान्तिसिन्धु' आचार्य शान्तिसागर सरस्वती भवन नातेपुते सोलापुर तथा सन् १९४९-५२ तक 'ज्ञानोदय' भारतीय ज्ञानपीठ वाराणसी जैसी श्रेष्ठ पत्रिकाओं का सम्पादन किया। इसके अलावा आपके लेख तो यदा-कदा प्रकाशित होते ही रहते थे।
*संस्थापित संस्थाएं-*
१. अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद् के आप अन्यतम संस्थापक तथा कार्यकारी प्रथम संयुक्तमन्त्री हैं। २. श्री सन्मति जैन निकेतन नरिया, वाराणसी के संस्थापक सदस्य एवं मन्त्री, ३. श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला वाराणसी के संस्थापक संयुक्त मन्त्री एवं ग्रन्थमाला सम्पादक, ४. श्री गणेश वर्णी दिगम्बर जैन इंटर कालेज ललितपुर के संस्थापक एवं सदस्य ५. अखिल भारतवर्षीय दिगम्ब जैन विद्वत्परिषद् के द्रोणागिरि अधिवेशन के अध्यक्ष, ६. श्री गणेश वर्णी दिगम्बर जैन शोध संस्थान वाराणसी के संस्थापक आदि। इस तरह से पं. जी ने अपने जीवनकाल में कई संस्थाओं को जन्म देकर उनकी उन्नति की है।
*सामाजिक क्षेत्र-*
श्री शास्त्री जी आरम्भ से ही सामाजिक क्षेत्रों से जुड़े रहे। आपने सामाजिक आन्दोलनों द्वारा जैन समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों तथा विषमताओं का विरोध किया। जिनमें दस्सा मन्दिर प्रवेश, गजरथ के नाम पर अनावश्यक खर्च तथा हरिजन मन्दिर प्रवेश बिल पर व्यापक विरोध किया। तभी पं. जी ने अपनी लेखनी से लिखा कि जैन संस्कृति एवं धर्म को वर्णव्यवस्था स्वीकार ही नहीं है।
वर्णी इन्टर कालेज ललितपुर, दिगम्बर जैन गुरुकुल खुरई और अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन संस्थान शिरपुर तथा अन्य अनेक पारमार्थिक संस्थाओं की कोश वृद्धि में सहयोग प्रदान किया। अनेक विद्यार्थियों को भी आर्थिक सहायता दे या दिलाकर उनके विद्याध्ययन एवं जीवन निर्माण में सक्रिय भूमिका निभायी।
*सम्मान / पुरस्कार-*
सन् १९६२ में जैन सिद्धान्त भवन आरा की हीरक जयन्ती के उपलक्ष्य में बिहार के तत्कालीन राज्यपाल डॉ. अनन्तशयनम् अयंगार द्वारा आप सिद्धान्ताचार्य की उपाधि से विभूषित किये गये। सन् १९७४ में वीर निर्वाण भारती द्वारा तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ. वी. डी. जत्ती के कर कमलों से आपको 'सिद्धान्तरत्न' की उपाधि प्रदान की गयी। सन् १९८५ में आचार्य श्री विद्यानन्द जी महाराज के सानिध्य में इन्दौर में आयोजित समारोह में आपको वृहद् अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया गया। सन् १९८७ में अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासंघ द्वारा श्रीमहावीरजी में चांदी के प्रशस्ति पत्र से सम्मानित किया गया। प्रथम राष्ट्रीय प्राकृत सम्मेलन बैंगलोर में सन् १९९० के अवसर पर प्राकृत ज्ञान भारती पुरस्कार से अलंकृत किये गये। अखिल भारतवर्षीय मुमुक्षु समाज ने जयपुर पंचकल्याणक प्रतिष्ठा १९९० के अवसर पर एक लाख रूपये की राशि से सम्मानित किया।
*और अन्त-*
स्वभाव से सरल, सादगी की प्रतिमूर्ति निरहंकारी उदारप्रकृति, परोपकारी, सहयोग में तत्पर, अनेक संस्थाओं के संस्थापक तथा उन्नयनकर्त्ता, राष्ट्र समाज एवं साहित्य के कर्मठ सेवक एवं श्रेष्ठ वक्ता श्री पं. फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री ने वृद्धावस्था एवं अस्वस्थता के कारण ३१ अगस्त सन् १९९१ में इस जगत् से विदा ले, अपने सजग एवं कर्मठ जीवन को जगत् को प्रेरणास्तम्भ रूप में स्थापित कर दिया।
- 'बीसवीं सदी के दिवंगत जैन मनीषी' से साभार
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