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षटखंडागम महाग्रंथ और कषाय पाहुड

*षटखंडागम महाग्रंथ* 
         और
    *कषाय पाहुड*
           की
*धवला, जयधवला और महाधवला*
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*टीकाओं के संदर्भ में विशेष विमर्श*
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*जीवस्थान खंड,खुद्दाबंध खंड ,बंधस्वामित्व विचय खंड, वेदना खंड,वर्गणा खंड और महाबंध खंड - ये षटखंड हैं, इनसे रचित ग्रंथ को षटखंडागम कहते हैं।*
*यह ग्रंथ आचार्य पुष्पदंत और आचार्य भूतबली की रचना है।इसकी टीकाओं को धवला,महाधवला कहा जाता है।*
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*षटखंडागम महाग्रंथ पर 12000 श्लोक प्रमाण टीका -परिकर्म* 
*नाम से आचार्य कुंदकुंद के द्वारा सर्वप्रथम लिखी गई थी, जो अनुपलब्ध है।*
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*32 अक्षरों का एक श्लोक माना जाता है।*
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*8वीं शती में आचार्य वीरसेन स्वामी ने इस पर पांच खंडों पर 72 हजार श्लोक प्रमाण धवला नामक टीका लिखी गई।*
*जो सोलह पुस्तकें हैं।*
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*कषायपाहुड अपरनाम पेज्जदोसपाहुड आचार्य गुणधर रचित है। 16000 पद प्रमाण कसायपाहुड के विषय को संक्षेप में 180 गाथासूत्रों में लिपिबद्ध किया गया।*
*पेज्ज शब्द का अर्थ राग है और दोस का अर्थ द्वेष है। यह ग्रंथ राग और द्वेष का निरूपण करता है।क्रोधादि कषायों की परिणति और उनकी प्रकृति,स्थिति,अनुभाग एवं प्रदेशबंध संबधि विशेषताओं का विवेचन इस महान ग्रंथ का वर्ण्य विषय है। यह सूत्र शैली में लिखा गया प्रथम ग्रंथ है। षटखंडागम के पहले इस ग्रंथ की रचना हो गई थी।*
 *कषायपाहुड ग्रंथ पर जयधवला नामक टीका 60,000 श्लोक प्रमाण लिखी गई।20,000 श्लोक प्रमाण टीका आचार्य वीरसेनस्वामी के द्वारा हुई,वे स्वर्गवासी हुए,शेष 40,000 श्लोक प्रमाण टीका उनके शिष्य आचार्य जिनसेन के द्वारा की गई।*
*यतिवृषभाचार्य ने इस पर  चूर्णिसूत्रों की रचना की।*
*कषायपाहुड ग्रंथ पर  17 पुस्तकें हैं।*
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*महाबंध, जो आचार्य भूतबलि रचित है उस पर बृहत टीका 30,000 श्लोक प्रमाण स्वयं भूतबलि के द्वारा की गई है। जिसे महाधवल कहा जाता है।*
*जो सात पुस्तकें हैं।* 
*इस प्रकार 16+17+7= 40 पुस्तकें हैं।*
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*जिनपालित मुनिराज आचार्य पुष्पदंत से दीक्षित हुए, जो उनके भानजे थे। उन्होंने पुष्पदंत रचित सत् प्ररुपणा के मूल सूत्रों  को तथा षटखंडागम महाग्रंथ की संक्षिप्त रूपरेखा तैयार की  थी ,उसे पुष्पदंत आचार्य की आज्ञा से  उन सूत्रों को भूतबलि आचार्य के पास लेकर गये ,फिर भूतबलि आचार्य ने षटखंडागम ग्रंथ पूर्ण किया। पांच खंडों की  रचना भूतबलि आचार्य श्री ने की है।*
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*इन महान ग्रंथों के स्वाध्याय करने की प्रबल भावना हमें होना चाहिए। महापंडित टोडरमल जी ने दक्षिण भारत से इन ग्रंथों को लाने का प्रयास किया पर उन्हें ये ग्रंथ स्वाध्याय के लिए उपलब्ध नहीं हुए।हमारा सौभाग्य है वे ग्रंथ प्रकाशित और उपलब्ध हैं।*
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*शास्त्री विद्वानों और श्रुतसेवियों को इन ग्रंथों का अध्ययन इस जीवन के अस्त होने के पहले अवश्य करना चाहिए। आचार्य श्रुतसागर सूरि ने षटपाहुड़ की टीका में स्पष्ट लिखा है -जो दिन -रात  श्रुत का पठन-पाठन करते हैं वे जिनमुद्रा को प्राप्त होते हैं।*
*श्रुतसाधना का अचिंत्य महाफल है।*
🙏🙏🙏
प्रस्तुति
*डॉ अशोक जैन गोयल दिल्ली*

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