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क्या सिंधु सभ्यता जैन श्रमण सभ्यता है ?

*क्या सिंधु सभ्यता जैन श्रमण सभ्यता है ?

इतिहासकार अर्नाल्ड जे टायनबी ने कहा था कि, विश्व के इतिहास में अगर किसी देश के इतिहास के साथ सर्वाधिक छेड़ छाड़ की गयी है, तो वह भारत का इतिहास ही है।

भारतीय इतिहास का प्रारम्भ तथाकथित रूप से सिन्धु घाटी की सभ्यता से होता है, इसे हड़प्पा कालीन सभ्यता या सारस्वत सभ्यता भी कहा जाता है। बताया जाता है, कि वर्तमान सिन्धु नदी के तटों पर 3500 BC (ईसा पूर्व) में एक विशाल नगरीय सभ्यता विद्यमान थी। मोहनजोदारो, हड़प्पा, कालीबंगा, लोथल आदि इस सभ्यता के नगर थे।

पहले इस सभ्यता का विस्तार सिंध, पंजाब, राजस्थान और गुजरात आदि बताया जाता था, किन्तु अब इसका विस्तार समूचा भारत, तमिलनाडु से वैशाली बिहार तक, आज का पूरा पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान तथा (पारस) ईरान का हिस्सा तक पाया जाता है। अब इसका समय 7000 BC  से भी प्राचीन पाया गया है।

इस प्राचीन सभ्यता की सीलों, टेबलेट्स और बर्तनों पर जो लिखावट पाई जाती है उसे सिन्धु घाटी की लिपि कहा जाता है। इतिहासकारों का दावा है, कि यह लिपि अभी तक अज्ञात है, और पढ़ी नहीं जा सकी। जबकि सिन्धु घाटी की लिपि से समकक्ष और तथाकथित प्राचीन सभी लिपियां जैसे इजिप्ट, चीनी, फोनेशियाई, आर्मेनिक, सुमेरियाई, मेसोपोटामियाई आदि सब पढ़ ली गयी हैं।

आजकल कम्प्यूटरों की सहायता से अक्षरों की आवृत्ति का विश्लेषण कर मार्कोव विधि से प्राचीन भाषा को पढना सरल हो गया है।

सिन्धु घाटी की लिपि को जानबूझ कर नहीं पढ़ा गया और न ही इसको पढने के सार्थक प्रयास किये गए। भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद (Indian Council of Historical Research) जिस पर पहले अंग्रेजो और फिर नकारात्मकता से ग्रस्त स्वयं सिद्ध इतिहासकारों  का कब्ज़ा रहा, ने सिन्धु घाटी की लिपि को पढने की कोई भी विशेष योजना नहीं चलायी।

क्या था सिन्धु घाटी की लिपि में? अंग्रेज और स्वयं सिद्ध इतिहासकार क्यों नहीं चाहते थे, कि सिन्धु घाटी की लिपि को पढ़ा जाए?

अंग्रेज और  स्वयं सिद्ध इतिहासकारों की नज़रों में सिन्धु घाटी की लिपि को पढने में निम्नलिखित खतरे थे...

1. सिन्धु घाटी की लिपि को पढने के बाद उसकी प्राचीनता और अधिक पुरानी सिद्ध हो जायेगी। इजिप्ट, चीनी, रोमन, ग्रीक, आर्मेनिक, सुमेरियाई, मेसोपोटामियाई से भी पुरानी. जिससे पता चलेगा, कि यह विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता है। भारत का महत्व बढेगा जो अंग्रेज और उन इतिहासकारों को बर्दाश्त नहीं होगा।

2. सिन्धु घाटी की लिपि को पढने से अगर वह   जैन श्रमण सभ्यता  और  वैदिक आदि साबित हो गयी तो अंग्रेजो और स्वयं सिद्ध द्वारा फैलाये गए आर्य द्रविड़ युद्ध वाले प्रोपगंडा के ध्वस्त हो जाने का डर है।

3. अंग्रेज और स्वयं सिद्ध इतिहासकारों द्वारा दुष्प्रचारित ‘आर्य बाहर से आई हुई आक्रमणकारी जाति है और इसने यहाँ के मूल निवासियों अर्थात सिन्धु घाटी के लोगों को मार डाला व भगा दिया और उनकी महान सभ्यता नष्ट कर दी। वे लोग ही जंगलों में छुप गए, दक्षिण भारतीय (द्रविड़) बन गए, शूद्र व आदिवासी बन गए’, आदि आदि गलत साबित हो जायेगा।

4. अंग्रेजों को यह भय था कि कहीं भारत की यह सभ्यता विश्व की सबसे ज्यादा प्राचीन सभ्यता सिद्ध न हो जाये और वैदिक इतिहासकारों को यह भय था कि कहीं सिंधु सभ्यता जैन सभ्यता सिद्ध न हो जाय ।

कुछ  इतिहासकार सिन्धु घाटी की लिपि को सुमेरियन भाषा से जोड़ कर पढने का प्रयास करते रहे तो कुछ इजिप्शियन भाषा से, कुछ चीनी भाषा से, कुछ इनको मुंडा आदिवासियों की भाषा, और तो और, कुछ इनको ईस्टर द्वीप के आदिवासियों की भाषा से जोड़ कर पढने का प्रयास करते रहे। ये सारे प्रयास असफल साबित हुए।

सिन्धु घाटी की लिपि को पढने में निम्लिखित समस्याए बताई जाती है...
सभी लिपियों में अक्षर कम होते है, जैसे अंग्रेजी में 26, देवनागरी में 52 आदि, मगर सिन्धु घाटी की लिपि में लगभग 400 अक्षर चिन्ह हैं। सिन्धु घाटी की लिपि को पढने में यह कठिनाई आती है, कि इसका काल 7000 BC से 1500 BC तक का है, जिसमे लिपि में अनेक परिवर्तन हुए साथ ही लिपि में स्टाइलिश वेरिएशन बहुत पाया जाता है।  ये निष्कर्ष लोथल और कालीबंगा में सिन्धु घाटी व हड़प्पा कालीन अनेक पुरातात्विक साक्ष्यों का अवलोकन करने के बाद निकला।

भारत की प्राचीनतम लिपियों में से एक लिपि है जिसे ब्राह्मी लिपि कहा जाता है। जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ने सर्वप्रथम अपनी पुत्री ब्राह्मी को  अक्षर लिखना सिखलाया था अतः उस लिपि का नाम ब्राह्मी लिपि पड़ गया । बाद में  इस लिपि से ही भारत की अन्य भाषाओँ की लिपियां विकसित हुईं। यह लिपि वैदिक काल से गुप्त काल तक उत्तर पश्चिमी भारत में उपयोग की जाती थी। संस्कृत, पाली, प्राकृत के अनेक शिलालेख ब्राह्मी लिपि में प्राप्त होते है।

सम्राट अशोक ने अपने धम्म का प्रचार प्रसार करने के लिए ब्राह्मी लिपि को अपनाया। सम्राट अशोक के स्तम्भ और शिलालेख ब्राह्मी लिपि में प्राकृत और संस्कृत आदि भाषाओं में लिखे गए और भारत में लगाये गए।

सिन्धु घाटी की लिपि और ब्राह्मी लिपि में अनेक आश्चर्यजनक समानताएं है। साथ ही ब्राह्मी और तमिल लिपि का भी पारस्परिक सम्बन्ध है। इस आधार पर सिन्धु घाटी की लिपि को पढने का सार्थक प्रयास सुभाष काक और इरावाथम महादेवन ने किया ।

सुभाष काक ने तो एक शोध पत्र तैयार किया एवम सिंधु घाटी की लिपि को लगभग हल कर लिया था, परंतु प्रकाशित करने के एक दिन पहले रहस्यमय मृत्यु हो गई। 

सिन्धु घाटी की लिपि के लगभग 400 अक्षर के बारे में यह माना जाता है, कि इनमे कुछ वर्णमाला (स्वर व्यंजन मात्रा संख्या), कुछ यौगिक अक्षर और शेष चित्रलिपि हैं। अर्थात यह भाषा अक्षर और चित्रलिपि का संकलन समूह है। विश्व में कोई भी भाषा इतनी सशक्त और समृद्ध नहीं जितनी सिन्धु घाटी की भाषा।
बाएं लिखी जाती है, उसी प्रकार ब्राह्मी लिपि भी दाएं से बाएं लिखी जाती है। सिन्धु घाटी की लिपि के लगभग 3000 टेक्स्ट प्राप्त हैं।
इनमे वैसे तो 400 अक्षर चिन्ह हैं, लेकिन 39 अक्षरों का प्रयोग 80 प्रतिशत बार हुआ है। और ब्राह्मी लिपि में 45 अक्षर है। अब हम इन 39 अक्षरों को ब्राह्मी लिपि के 45 अक्षरों के साथ समानता के आधार पर मैपिंग कर सकते हैं और उनकी ध्वनि पता लगा सकते हैं।

ब्राह्मी लिपि के आधार पर सिन्धु घाटी की लिपि पढने पर अधिकांश प्राकृत भाषा के शब्द आते हैं ।

निष्कर्ष यह है कि...

1. सिन्धु घाटी की लिपि ब्राह्मी लिपि की पूर्वज लिपि है।

2. सिन्धु घाटी की लिपि को ब्राह्मी के आधार पर पढ़ा जा सकता है।

3. उस काल में प्राकृत और छांदस भाषा थी जिसे सिन्धु घाटी की लिपि में लिखा गया था।

4. सिन्धु घाटी के लोग जैन धर्म और श्रमण आदि संस्कृति मानते थे।

5. जैन धर्म अत्यंत प्राचीन है।

जैन श्रमण सभ्यता विश्व की सबसे प्राचीन व मूल सभ्यता है, यहां के लोगों  का मूल निवास सप्त सैन्धव प्रदेश (सिन्धु सरस्वती क्षेत्र) था जिसका विस्तार ईरान से सम्पूर्ण भारत देश था। जैन धर्म को मानने वाले कहीं बाहर से नहीं आये थे और न ही वे कभी यहाँ से बाहर गए ।

 वैदिक आर्य वे हैं जो आरंभ में मूल निवासी भारत के ही थे ,किंतु इनका दल भारत से बाहर बहुत समय तक कई द्वीपों का भ्रमण करता रहा और बाद में भारत वापस आया । अंग्रेजों ने इसी वापसी को यह समझा कि 'आर्य बाहर से आये' ।

वास्तव में मूलतः श्रमण जैन ही आर्य कहलाते थे,वे भारत में ही रहे और दक्षिण की तरफ चले गए जिन्हें बाद में बाहर से वापस आये वैदिक आर्यों ने द्रविड़ कह कर पुकारा ।

आरंभ में श्रमण आर्य जैन निर्ग्रन्थ,आर्हत और व्रात्य नाम से भी जाने जाते थे । इनके तपस्वी नग्न रहकर व्रताचरण करते हुए जंगलों में तपस्या करते थे । वैदिक ऋषि भी इनके कठोर तपश्चरण और साधना से प्रभावित थे । उन्होंने इनकी प्रशंसा में वेद में एक पूरा व्रात्य कांड लिखा । बाद में सैद्धांतिक मतभेदों के कारण ब्राह्मण और श्रमण में मतभेद बढ़ता गया । इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि सायणाचार्य जी जिन्होंने वेद के भाष्य लिखे , व्रात्य कांड पर भाष्य नहीं लिखा । उसका कारण ये मतभेद ही था चूंकि व्रात्य कांड में श्रमण जैन मुनियों की प्रशंसा थी अतः उसकी व्याख्या नहीं की गई ।

श्रमण जैन आर्य अहिंसक प्रेमी और मूलतः कृषक थे ,ऋषभदेव के द्वारा प्रवर्तित षट्कर्म का पालन कर रहे थे । वे मूर्तिपूजा करते थे । सिंधु सभ्यता में वृषभ युक्त कायोत्सर्ग युक्त जिन योगी के चित्र सहित सील प्राप्त हुई है ,वह ऋषभदेव की है । वैदिक परंपरा का सिंधु सभ्यता की किसी भी मूर्ति या मुद्रा पर दावा इसलिए भी उचित नहीं बैठता क्यों कि उनके यहाँ मूर्ति पूजा बहुत बाद में शुरू हुई । स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपनी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि वैदिक परंपरा में मूर्ति पूजा की बुराई जैन परंपरा के कारण आई ।

कायोत्सर्ग मुद्रा जैन श्रमण आर्य संस्कृति में ही पाई जाती है । वैदिक आर्य यज्ञादि करते थे ,उसमें पशुबलि देते थे और युद्ध पर विश्वास रखते थे ,वे मूर्ति पूजा नहीं करते थे ।
 वे ईश्वर को सृष्टि कर्ता मानते थे और वेद को उनकी वाणी । उन्हें श्रमण जैन आर्यों की मूर्ति पूजा और ईश्वर को कर्ता न मानना और वेद पर अविश्वास रास नहीं आता था । अतः वे इनसे विवाद करते थे इसे ही अंग्रेज इतिहासकारों ने द्रविड़ और आर्य संघर्ष समझ लिया और आर्यों को बाहर से आया हुआ और द्रविड़ को भारत का मूल निवासी कहा ।

हज़ारों वर्षों से जैन श्रमण आर्य और वैदिक आर्य इसी भारतीय समाज में साथ साथ रह रहे हैं निश्चित रूप से दोनों ने एक दूसरे से बहुत कुछ ग्रहण किया । कालांतर में महात्मा बुद्ध भी श्रमण संस्कृति के ही अंग माने गए क्यों कि उन्होंने प्रव्रज्या ग्रहण करने के बाद राजकुमार सिद्धार्थ ने सबसे पहले तेइसवें  तीर्थंकर पार्श्वनाथ की परंपरा के एक आचार्य पिहितास्रव सेबजैन मुनि की दीक्षा ग्रहण की थी और बुद्धकीर्ति नाम पाया था । जैन धर्म का  कठोर तपश्चरण न हो पाने के कारण उन्होंने संघ छोड़ दिया और मध्यम मार्ग का प्रतिपादन कर के एक स्वतंत्र बुद्ध धर्म खड़ा कर दिया । चूंकि ये भी ईश्वर को और वेद को नहीं मानते थे अतः इन्हें भी श्रमण संस्कृति का अंग स्वीकार कर लिया गया । 

सम्राट खारवेल,सम्राट चंद्रगुप्त और सम्राट संप्रति जैन धर्म के अनुयायी थे ।इन्होंने जैन मुनियों की बहुत सेवा की और जैन धर्म का बहुत प्रचार प्रसार किया ।

कालांतर में जैन श्रमण संस्कृति के ऊपर बहुत अत्याचार भी हुए । इनके मंदिरों पर कब्जे किये गए और जैन मुनियों की हत्याएं की गईं । महीनों तक इनके शास्त्रों की होलियां जलाई गईं । कई सौ वर्षों तक ऐसा चला ,फिर मुगल भी जैन मंदिरों और मूर्तियों के ध्वंसक हुए । इस लंबे समय तक अत्याचार के कारण बहुसंख्यक जैन समाज बिखरता चला गया । लोग भूलते चले गए और वर्तमान में डेढ़ अरब की आबादी वाले उसी भारत देश में जहाँ मुगल काल में भी चार करोड़ जैन थे ,आज महज़ 45 लाख रह गए हैं । 

वास्तविकता यह है कि आज के मूल द्रविड़ पहले श्रमण जैन थे । प्राचीन तमिल साहित्य जैनाचार्यों द्वारा रचित है । संत तिरुवल्लुवर और कोई नहीं जैन आचार्य कुंदकुन्द थे जिनका कुरल काव्य विश्व प्रसिद्ध  है । 
विस्मृति की चादर ऐसी चढ़ी है कि द्रविड और लिंगायत सम्प्रदाय आदि ये भूल चुके हैं कि वे मूलतः क्या थे ? लेकिन उनकी मान्यताएं ,भाषा और साहित्य श्रमण धारा से गहराई से जुड़ा हुआ है । 
अनुसंधान तो इन चीजों का होना चाहिए ।

विडंबना ही है कि वर्तमान में भारत की संस्कृति को सिर्फ वैदिक संस्कृति सिद्ध करने के प्रयास को ही इतिहास का पुनर्लेखन कहा जा रहा है और बहुसंख्यक वैदिक परंपरा वर्तमान की जैन श्रमण संस्कृति को उसकी ही एक शाखा कहकर अपना कहा जा रहा है ।

कहने का तात्पर्य यह है कि निरपेक्ष भाव से आज भी इतिहास पर विचार नहीं किया जा रहा है बल्कि हमेशा की तरह सत्ता अपने तरह का इतिहास गढ़वा रही है ।

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Source - Social Media

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