समणसुत्तं ग्रंथ” `समणसुत्तं' नामक इस ग्रन्थ की संरचना या संकलना आचार्य विनोबाजी की प्रेरणा से हुई है। उसी प्रेरणा के फलस्वरूप संगीति या वाचना हुई और उसमें इसके प्रारूप को स्वीकृति प्रदान की गयी। यह एक विशिष्ट ऐतिहासिक घटना है। विश्व के समस्त धर्मों का मूल आधार है--आत्मा और परमात्मा। इन्हीं दो तत्त्वरूप स्तम्भों पर धर्म का भव्य भवन खड़ा हुआ है। विश्व की कुछ धर्म-परम्पराएँ आत्मवादी होने के साथ-साथ ईश्वरवादी हैं और कुछ अनीश्वरवादी। ईश्वरवादी परम्परा वह है जिसमें सृष्टि का कर्ता-धर्ता या नियामक एक सर्वशक्तिमान् ईश्वर या परमात्मा माना जाता है। सृष्टि का सब-कुछ उसी पर निर्भर है। उसे ब्रह्मा, विधाता, परमपिता आदि कहा जाता है। इस परम्परा की मान्यता के अनुसार भूमण्डल पर जब-जब अधर्म बढ़ता है, धर्म का ह्रास होता है, तब-तब भगवान् अवतार लेते हैं और दुष्टों का दमन करके सृष्टि की रक्षा करते हैं, उसमें सदाचार का बीज-वपन करते हैं। ग्रन्थ-परिचय `समणसुत्तं' ग्रन्थ में जैन धर्म-दर्शन की सारभूत बातों का, संक्षेप में, क्रमपूर्वक संकलन किया गया है। ग्रन्थ में चार खण्ड हैं और ४४ प्रकरण हैं। कुल मिलाकर ...