प्राकृत 45 आगमों का संक्षिप्त परिचय
इन आगमों को छह भागों में
बांटा गया है -
(1) 11 अंग (2) 12 उपांग (3) 6 छेद सूत्र (4) चार
मूल (5) 10 पयन्ना (6) दो चूलिका l
ग्यारह अंग 1) आचारांग सूत्र : इस आगम में साधु के आचार मार्ग का विस्तार
से वर्णन किया गया है l साधु के
आहार-विहार-निहार-भाषा-शय्या-वस्त्र, सुखदुःख आदि का वर्णन
है l इसके साथ ही भगवान महावीर की घोरातिघोर साधना का वर्णन
है l प्राचीन समय में इस आगम में 18,000 पद थे l वर्तमान समय में आचारांग सूत्र में 25
अध्ययन 2554 श्लोक प्रमाण हैं l इस सूत्र पर 12,000 श्लोक प्रमाण शीलांकाचार्य की
टीका भी है।
2) सूत्र कृतांग : इस आगम में 180
क्रियावादी, 84 अक्रियावादी, 67 अज्ञानवादी, 32 विनयवादी इत्यादि कुल 363 पाखंडियों का वर्णन है। प्राचीन सूत्रकृतांग में 36000 पद थे l वर्तमान में 2100 श्लोक
प्रमाण है l इस आगम पर 12850 श्लोक
प्रमाण शीलांकाचार्य विरचित टीका है l
3) स्थानांग सूत्र : इस आगम में 1
से 10 तक की संख्यावाले पदार्थों का वर्णन है l
इस आगम के 10 अध्ययन हैं lप्राचीन समय में इस आगम में 72000 पद थे, वर्तमान में यह आगम 3700 श्लोक प्रमाण है, इसमें 31 अध्ययन हैं | 14,250 श्लोक
प्रमाण टीका है।
4) समवायांग सूत्र : इस आगम में 1
से 100 की संख्या वाले विविध पदार्थों के
वर्णन के बाद 150 , 250, 300, 400, 500, 600, 700, 800, 900, 1000 , 1100,
2000 से 10,000 तक की संख्या वाले पदार्थ,
उसके बाद 1 लाख से 10 लाख,
फिर करोड आदि की संख्या वाले पदार्थों का विस्तृत वर्णन है l
इस आगम के दो अध्ययन हैं l यह आगम 1660
श्लोक प्रमाण है l इस सूत्र पर 3574 श्लोक प्रमाण टीका उपलब्ध है l
5. व्याख्या प्रज्ञप्ति : इसे भगवती
सूत्र भी कहा जाता है l गौतम स्वामी द्वारा पूछे गए और प्रभु
महावीर द्वारा उत्तर दिए गए 36000 प्रश्नों का संकलन इस आगम
में है l इसमें 41 शतक और 10,000
उद्देश हैं l वर्तमान में यह आगम 1575 श्लोक प्रमाण उपलब्ध है l इस आगम में जीव, कर्म, विज्ञान, खगोल, भूगोल आदि की विस्तृत जानकारी दी गई है l इस आगम पर
वर्तमान में 18,616 श्लोक प्रमाण टीका उपलब्ध है।
6. ज्ञाताधर्म कथा : इस छठे अंग के दो
श्रुतस्कंध हैं 1) ज्ञातश्रुतस्कंध और 2 धर्मकथा श्रुतस्कंध | पहले श्रुत स्कंध में 19
अध्ययन हैं | दूसरे श्रुतस्कंध के 10 वर्ग के 206 अध्ययन हैं l वर्तमान
में इस आगम पर 800 श्लोक प्रमाण टीका उपलब्ध है।
7. उपासक दशांग : इस 7वें अंग में आनंद, कामदेव , चुलनीपिता,
सुरादेव , चुल्लशतक, कुंडकोलिक,
सद्दालपुत्र, महाशतक और नंदिनी आदि 10 मुख्य श्रावकों के विस्तृत चरित्रों का वर्णन है l वर्तमान
में इस आगम पर अभयदेवसूरिजी म. की 800 श्लोक प्रमाण टीका
उपलब्ध है |
8. अंतकृद् दशांग : केवलज्ञानप्राप्ति
के तुरंत बाद जो मोक्ष में जाते हैं, वे अंतकृत् केवली
कहलाते हैं l इसमें आठ वर्ग में 92 अध्ययन
हैं l इसमें अंतकृत् केवली के चरित्र हैं l
9. अनुत्तरोपपातिक : इसके दो द्वार के 10
अध्ययनों में अनुत्तर देव विमान में उत्पन्न होनेवाले मुनिवरों का
वर्णन है l इस आगम पर 5100 श्लोक
प्रमाण टीका उपलब्ध है l
10. प्रश्नव्याकरण : इसके 1 श्रुतस्कंध के 10 अध्ययन हैंl प्रथम
5 अध्ययन में हिंसा आदि 5 आस्रव
द्वारों का तथा शेष 5 अध्ययनों में अहिंसा आदि 5 संवरों का वर्णन है l इस आगम पर 5330 श्लोक प्रमाण टीका उपलब्ध है।
11. विपाक सूत्र : इस आगम में
पुण्य-पाप के विपाकों का वर्णन है l इसके दो श्रुत स्कंध हैं
lपहले श्रुत स्कंध में 10 अध्ययन हैं l
जिसमें दुःख विपाक का वर्णन है l दूसरे श्रुत
स्कंध में सुख विपाक का वर्णन है l
उपांग-12 .
1. औपपातिक सूत्र : जिस प्रकार शरीर
में हाथ आदि अंग तथा अंगुली आदि उपांग कहलाते हैं, उसी
प्रकार आगम पुरुष के आचारांग आदि 11 अंग व औपपातिक सूत्र आदि
12 उपांग कहलाते हैं l इस उपांग में
कुल 1167 श्लोक हैं तथा 3125 श्लोक
प्रमाण टीका है l राजा कोणिक की देवलोक-प्राप्ति का इतिहास
है l
2. राजप्रश्नीय सूत्र : इस उपांग में
कुल 2120 श्लोक हैं, इस आगम पर
मलयगिरिजी की 3700 श्लोक प्रमाण टीका है l इसमें 1 श्रुतस्कंध व 12 अध्ययन
हैं l इस आगम में सूर्याभदेव का विस्तृत वर्णन है l
3. जीवाभिगम सूत्र : यह उपांग 4700
श्लोक प्रमाण है, इस पर श्री हरिभद्रसूरिजी की
14000 श्लोक प्रमाण टीका है l इसमें
जीव तत्व का विस्तृत वर्णन है।
4. प्रज्ञापना सूत्र : यह उपांग 7787
श्लोक प्रमाण है इस पर हरिभद्रसूरिजी की 3728 श्लोकप्रमाण
टीका है l इस आगम के रचयिता श्यामाचार्य हैं l इसमें द्रव्यानुयोग के पदार्थों का वर्णन है |
5. सूर्य प्रज्ञप्ति : इस उपांग में 2496
श्लोक हैं, इस पर भद्रबाहुस्वामीजी की 9500
श्लोक प्रमाण टीका है l इस उपांग में सूर्य
ग्रह आदि की गति का सूक्ष्म वर्णन है l
6. जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति : यह उपांग 4454
श्लोक प्रमाण है, इस पर श्री शांतिचंद्र गणि
की 18000 श्लोक प्रमाण टीका है lइस
उपांग में जंबूद्वीप के भरत आदि क्षेत्रों का तथा वर्षधर आदि पर्वतों का विस्तृत
वर्णन है।
7. चंद्र प्रज्ञप्ति : यह उपांग 2200
श्लोकं प्रमाण है l इस पर श्री मलयगिरि की 9500
श्लोक प्रमाण टीका है | इस उपांग में चंद्र की
गति आदि का विस्तृत वर्णन है।
8 से 12 निरयावलिका,
कल्पावतंसिका, पुष्षिता, पुष्प चूलिका, वृष्णिदशा : पाँच उपांगों का संयुक्त
नाम निरयावलिका श्रुतस्कंध है l पहले विभाग में श्रेणिक
पुत्र कालकुमार आदि 10 पुत्रों की नरकगति का वर्णन है l
दूसरे कल्पावतंसिका विभाग में श्रेणिक के पौत्र पद्म, महापद्म आदि के स्वर्गगमन आदि का वर्णन है lपुष्पिता
नामक तीसरे विभाग में चंद्र आदि 10 अध्ययन हैं, जिनमें चंद्र आदि का विस्तृत वर्णन है lपुष्पचूलिका
नामक चौथे विभाग में श्रीदेवी आदि की उत्पत्ति व उसकी नाट्यविधि आदि का वर्णन है l
वृष्णिदशा नामक पाँचवें विभाग में 12 अध्ययन
है lइनमें कृष्ण के बड़े भाई बलदेव के निषध आदि 12 पुत्रों का वर्णन है l
10 पयन्ना : श्री तीर्थंकर परमात्मा
द्वारा निर्दिष्ट अर्थ की देशना के अनुसार महाबुद्धिशाली मुनिवर जिसकी रचना करते
हैं, उसे पयन्ना (प्रकीर्णक) कहते हैं l अथवा तीर्थंकर परमात्मा के औत्पातिकी आदि बुद्धिवाले शिष्य जिस सूत्र की
रचना करते हैं, वे प्रकीर्णक कहलाते हैं | महावीर प्रभु के 14,000 शिष्य थे तो उनके द्वारा
विरचित कुल प्रकीर्णक भी 14000 थे l वर्तमान
में 22 पयन्ना मिलते हैं, किंतु 45
आगम में 10 पयन्ना ही गिने जाते हैं l
1) चतुः शरण प्रकीर्णक : इसका दूसरा
नाम कुशलानुबंधी अध्ययन भी है l इसके रचयिता श्री वीरभद्रगणि
हैं | इसमें चतुःशरण, दुष्कृत गर्हा और
सुकृतानुमोदन का विस्तृत वर्णन है l
2) आतुर पच्चक्खाण : रोग से पीडित
व्यक्ति को समाधि हेतु परभव की आराधना के लिए जो प्रत्याख्यान कराए जाते हैं,
उसे आतुर प्रत्याख्यान कहते हैं l इसके रचयिता
वीरभद्र गणि हैं l इसमें बाल मरण, बाल-पंडित
मरण व पंडित मरण का स्वरूप समझाया गया है।
3) महा प्रत्याख्यान : उसमें साधु की
अंत समय की स्थिति का वर्णन है l 'नरक की पीड़ा के सामने यह
पीड़ा कुछ नहीं है l ' इस सहनशीलता हेतु सुंदर प्रेरणाएँ की
गई हैं।
4) भक्त परिज्ञा : अंतिम समय में आहार
त्याग के पच्चक्खाण का वर्णन है l इसके भी रचयिता श्री
वीरभद्रगणि हैं l इसमें अंतिम अनशन के तीन भेद भक्त परिज्ञा,
इंगिनी मरण और पादपोपगमन अनशन का वर्णन
हैं l
5) तंदुल वैचारिक : इसमें तंदुल (चावल)
की 460 करोड 80 लाख संख्या बताई है l
इसमें मुख्यतया अशुचि भावना का चिंतन है l गर्भस्थ
जीव के स्वरूप का भी वर्णन है l
6) संस्तारक : इसमें अंतिम समय की
आराधना का वर्णन है l आत्मा को अच्छी तरह से तारे, उसे संस्तारक कहते हैं l
7) गच्छाचार : इसमें सुविहित गच्छ के
आचारों का वर्णन है l श्री महानिशीथ, बृहत्कल्प
तथा व्यवहार सूत्र के आधार पर इसकी रचना हुई है l
गणि विद्या : इसमें 82 गाथाएँ हैं l आचार्य
भगवंत को उपयोगी ज्योतिष विद्या का इसमें निर्देश है l
9) देवेन्द्रस्तव : इसमें कुल 307
गाथाएँ हैं l इसके रचयिता श्री वीरभद्रगणि हैं
l इसमें इन्द्र आदि के स्वरूप का विस्तृत वर्णन है l
10) मरण समाधि : इसमें 663 गाथाएँ हैं l मृत्यु समय की आराधना का विस्तृत वर्णन
है l इसके भी रचयिता श्री वीरभद्र गणि हैं l
चार मूल सूत्र : वृक्ष की
दृढ़ता उसके मूल की आभारी है l उसी
प्रकार दीक्षा अंगीकार करने के बाद इन चार मूलसूत्रों का अध्ययन खूब जरूरी है l
इन्ही के आधार पर संयम की साधना रही हुई है l इन
सूत्रों के बोध से नूतन मुनि परम उल्लासपूर्वक निर्दोष संयम धर्म की आराधना कर
सकते हैं l नींव मजबूत हो तो इमारत लंबे समय तक टिक सकती है l
इसी प्रकार मोक्षमार्ग की साधना के महल को खड़ा करने के लिए उस
साधना का मूल , मजबूत होना जरूरी है l इसी
के लिए ये चार मूल सूत्र हैं l
1) आवश्यक सूत्र : साधु जीवन में
प्रतिदिन सामायिक, चउविसत्थो, वंदन,
प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और पच्चक्खाण रूप छह
क्रियाएँ अवश्य करने योग्य हैं, इसीलिए इन्हें 'आवश्यक' कहते हैं l इस आवश्यक
सूत्र पर नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और
टीकाएँ उपलब्ध हैं l इनमें सामायिक आदि के स्वरूप का खूब
विस्तार से वर्णन किया गया है l
2) दश वैकालिक सूत्र : भगवान महावीर की
5 वीं पाट परंपरा में हुए 14 पूर्वधर
महर्षि श्री शय्यंभवसूरिजी म. ने अपने पुत्र मनक मुनि के आत्मकल्याण के लिए पूर्वो
में से उद्धृत कर दशवैकालिक की रचना की है l इसमें कुल 10
अध्ययन व 2 चूलिकाएँ हैं l असज्झाय या कालवेला को छोड़कर काल को 'विकाल'
कहते हैं l यह सूत्र विकाल समय में पढ़ा जाता
है, अतः वैकालिक कहते है l इसकी रचना
भगवान महावीर के निर्वाण के 72 वर्ष बाद हुई
थी l वर्तमान काल में दीक्षा के बाद इस सूत्र के पांच अध्ययन के
योगोद्वहन होने के बाद ही बड़ी दीक्षा की जाती है l इस सूत्र
में साधु के आचारों का विस्तृत वर्णन है।
3) उत्तराध्ययन सूत्र : भगवान महावीर
परमात्मा ने अपने निर्वाण के पूर्व , किसी के द्वारा नहीं
पूछे गए प्रश्नों के जो उत्तर दिए थे, उन उत्तरों के संग्रह
रूप यह उत्तराध्ययन सूत्र है l इस सूत्र में कुल 36 अध्ययन हैं l इस सूत्र में कुल 1643 श्लोक व कुछ गद्य भाग भी है। दशवैकालिक की रचना के पूर्व आचारांग सूत्र के
छह जीव निकाय (शस्त्र परिज्ञा अध्ययन) के योगोद्वहन के बाद बड़ी दीक्षा होती थी
अतः नूतन मुनि को पहले आचारांग सूत्र सिखाया जाता और उसके बाद यह उत्तराध्ययन
सिखाया जाता था l इसलिए भी इस सूत्र को उत्तराध्ययन कहा जाता
है | इस सूत्र में आत्म-गुण रमणता के उपाय बतलाए हैं |
उन उपायों के सेवन से आत्मा पुद्गल रमणता से मुक्त हो सकती है l
इस सूत्र पर अनेक टीकाएँ उपलब्ध हैं।
4. ओघ नियुक्ति : इस आगम में मुनि जीवन
में उपयोगी प्रतिलेखना आदि 7 द्वारों का वर्णन है l इसके रचयिता श्री भद्रबाहु स्वामीजी हैं। इसमें चरणसित्तरी व करण सित्तरी
का वर्णन है | चारित्र का स्वरूप, चारित्र
के टिकाने के उपाय व उसकी निर्मलता के उपायों का सुंदर वर्णन है l मोक्षमार्ग की साधना में चरण करणानुयोग की मुख्यता है, अतः नूतन मुनि आदि को इस सूत्र का सर्व प्रथम अध्ययन करना चाहिए l
छह छेद सूत्र : जिस प्रकार
शरीर का कोई भाग सड़ गया हो तो ऑपरेशन आदि द्वारा उस भाग को छेद दिया जाता है और
दूसरे भाग को बचाया जाता है, बस,
उसी प्रकार चारित्र रूपी शरीर के किसी भाग में दूषण लगा हो तो उस
भाग को छेद कर शेष चारित्र को बचाया जाता है, उसके लिए
उपयोगी सूत्र छेद सूत्र कहलाते हैं। जिस प्रकार राज्य व्यवस्था को चलाने के लिए
मुख्य नियम बनाए जाते हैं...उन नियमों का दृढ़ता से पालन हो इसके लिए छोटे 2
नियम बनाए जाते हैं l जो व्यक्ति उन नियमों का
भंग करता है, उसे कानून (नियम) के अनुसार दंडित किया जाता है
l इसी प्रकार जैनेन्द्र शासन में तीर्थंकर परमात्मा राजा
तुल्य है, गणधर आदि प्रधान मंडल हैं l साधु-साध्वी-श्रावक
श्राविका प्रजा तुल्य है l व्यवस्था संचालन हेतु मूलगुण तथा
उत्तरगुण की आराधनाएँ हैं | उन आराधनाओं का जो भंग करता है,
उसे दंड स्वरूप प्रायश्चित्त दिया जाता है। इन छेद सूत्रों में
मुख्यतया प्रायश्चित्त का अधिकार है l छद्मस्थतावश आत्मा भूल
कर बैठती हैं, परंतु भवभीरु आत्मा उस भूल के सुधार के लिए
सद्गुरु से प्रायश्चित्त ग्रहण कर अपनी आत्मशुद्धि करती है l
1. निशीथ सूत्र : विशाख गणि द्वारा
रचित इस सूत्र में ज्ञानाचार आदि पाँच आचारों में लगे प्रायश्चित्त का विधान है l
निशीथ अर्थात् रात्रि का मध्य भाग l उस समय
योग्य परिणत शिष्य को जो सूत्र पढ़ाया जाता है वह निशीथ सूत्र है।
2. महानिशीथ सूत्र : इस सूत्र में 8
अध्ययन हैं l निशीथ के साथ यह सूत्र पढाया
जाता है l वि. सं. 510 में वल्लभीपुर
में देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण की निश्रा में सभी आगमों को पुस्तकारूढ़ करने का
कार्य प्रारंभ हुआ l वि.सं. 510 में
देवर्द्धिगणि का स्वर्गवास हो गया l उसके बाद कालक्रम से
श्री हरिभद्रसूरिजी, सिद्धसेनसूरि, वृद्धवादी,
यक्षसेन गणि, देवगुप्त, जिनदास
गणि आदि ने मिलकर महानिशीथ का पुनरुद्धार किया l इस सूत्र
में प्रायश्चित्त का विधान है l विधि-अविधि से लिये गये
प्रायश्चित्त के लाभ अलाभ का सुंदर वर्णन है।
3) श्री दशाश्रुतस्कंध : इस पर
भद्रबाहु स्वामी विरचित 2106 श्लोक प्रमाण नियुक्ति है l
साधु व श्रावक के धर्म का वर्णन है l
4) बृहत्कल्प : कल्प अर्थात्
साधु-साध्वी का आचार ! उन आचारों में प्रायश्चित्त के कारण, प्रायश्चित्त
का स्वरूप तथा प्रायश्चित्त की विधि का विस्तृत वर्णन है। मूल सूत्र का प्रमाण 473
श्लोक है l श्री भद्रबाहुस्वामीजी ने
प्रत्याख्यानप्रवाद नामक पूर्व के तीसरे 'आचार' वस्तुरूप विभाग के 20वें प्राभृत में से उद्धार कर
श्री बृहत्कल्प सूत्र की रचना की है l इसी पर स्वोपज्ञ
नियुक्ति भी
5) व्यवहार सूत्र : इसमें साधु-साध्वी
के व्यवहार का विस्तृत वर्णन है l इसके भी रचयिता भद्रबाहु
स्वामीजी
हैं l इसका प्रमाण 373 श्लोक का है l श्री मलयगिरि म. ने 33625 श्लोक प्रमाण टीका रची है l
इस सूत्र के 10 उद्देश हैं | 10 वें उद्देश में आगम, श्रुत, आज्ञा,
धारणा व जीत व्यवहार का वर्णन किया गया है।
6) जीत कल्प : आगम व्यवहार का विच्छेद
हो जाने से जीत व्यवहार के अनुसार प्रायश्चित्त प्रदान किया जाता है, जो भविष्य में भी चालू रहेगा l जीतकल्प में जीत
व्यवहार का विस्तार से वर्णन किया गया है l इसके रचयिता श्री
जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण हैं | इसमें 103 गाथाएँ हैं, उन पर 2606 गाथा
प्रमाण स्वोपज्ञ भाष्य है l
नंदिसूत्र : जिसके अध्ययन, श्रवण व निदिध्यासन से आत्मा समृद्ध बनती है अर्थात् निर्मल
ज्ञानादि गुणों की आराधना कर शाश्वत सिद्ध पद प्राप्त कर निजानंद प्राप्त करती है,
इस कारण इसे नंदिसूत्र कहते हैं l इस सूत्र
में मंगल रूप पाँच ज्ञान का वर्णन है l वर्तमान समय में
आचार्यपद-प्रदान के समय मंगल हेतु संपूर्ण नंदिसूत्र पढ़ा जाता है l अन्य योगोद्वहन में लघु नंदिसूत्र पढ़ा जाता है l इस
नंदिसूत्र पर अनेक टीकाएँ उपलब्ध हैं |
अनुयोग द्वार : सूत्रार्थ
के व्याख्यान को अनुयोग कहा जाता है | आचारांग सूत्र आदि रत्नों की पेटी को खोलने के लिए अनुयोग द्वार चाबी
तुल्य है। इसमें उपक्रम, निक्षेप, अनुगम
और नय का सुंदर व यथार्थ वर्णन किया गया है।
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