आचारांग सूत्र
वर्तमान उपलब्ध ११ अंग सूत्र में से प्रथम अंग सूत्र है- आचारांग सूत्र । महापुरुषों के द्वारा सेवन की गई ज्ञान, दर्शन और चारित्र के आराधन करने की विधि को आचार कहते है।आचार को प्रतिपादन करने वाला सूत्र आचारांग कहा जाता है। इस सूत्र के दो श्रुत स्कंध है- प्रथम श्रुत स्कंध में ९ अध्ययन है, जिसमें से सातवाँ अध्ययन उपलब्ध नहीं है
और दूसरे श्रुत स्कंध के १६ अध्ययन है।
तत्व दर्शन की द्रष्टि से आचारांग एक महत्वपूर्ण आगम है। आचार्य सिद्धसेन ने जैन दर्शन के मूलभूत छह सत्य गिनाए है—
१) आत्मा है
२) आत्मा अविनाशी है
३) आत्मा कर्ता है
४) भोक्ता है
५) आत्मा का निर्वाण है
६) निर्वाण के उपाय है
इनका आचारांग में पूर्ण विस्तार मिलता है।’आत्मा’ है, यह पहला सत्य है। आचारांग का प्रारंभ इसी सत्य की व्याख्या से हुआ। इसी व्याख्या के साथ आत्मा के अविनाशित्व का उल्लेख हुआ है।”तू ही तेरा मित्र है”,
यह शल्य तू ने ही किया है”- ये वाक्य आत्मा के कर्तुत्व के उदबोधक है। यह क्रिया की प्रतिक्रिया, भोक्तृत्व का सूचक है।आचारांग में निर्वाण को अनन्य-परम कहा गया है।वहाँ सब उपाधियाँ समाप्त हो जाती है, इसलिए उससे अन्य कोई परम नहीं है और निर्वाण के उपायभूत सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र का स्थान-स्थान पर प्रतिपादन हुआ है। इन द्रष्टिओ से आचारांग को जैन दर्शन का आधारभूत ग्रंथ कहा जा सकता है।
व्याख्या ग्रंथ :—
• आचारांग के उपलब्ध व्याख्या ग्रंथो में सर्वाधिक प्राचीन निर्युक्ति है। इसके कर्ता भद्रबाहु स्वामी है और रचना काल विक्रम की पाँचवीं-छठी शताब्दी है।निर्युक्ति पद्यमय है।
• व्याख्या ग्रंथो में दूसरा स्थान चुर्णी का है, जो गद्यमय है, इसके कर्ता जिनदास महत्तर माने जाते है।
• आचारांग का तीसरा व्याख्या ग्रंथ ‘टीका’ है। चूर्णि और वृति दोनो निर्युक्ति के आधार पर चलते है।चूर्णि टीका की अपेक्षा संक्षिप्त है किंतु अर्थाभिव्यक्ति और एतिहासिक द्रष्टि से महत्वपूर्ण है। टिका के कर्ता शिलांगसूरि है।
इसके अतिरिक्त दीपिका, अवचूरी, बालावबोध, पद्यानुवाद और वार्तिक भी व्याख्या ग्रंथो में महत्वपूर्ण है।
• आचारांग भाष्य का स्थान भी व्याख्या स्थानो में महत्वपूर्ण है।आचार्य महाप्रज्ञ जी ने अपनी महाप्रज्ञा से सरल भाषा मे आचारांग भाष्य का प्रणयन कर इस शताब्दी को अमूल्य रत्न दिया है।आचारांग के गहन ज्ञान का मंथन कर नवनीत प्रस्तुत किया है, जिसका सेवन कर स्वाध्याय प्रेमी अपने चित्त को आहलादित कर सकते है।
“आचार” का अर्थ:—
जैन परम्परा मे ‘आचार’ शब्द व्यापक अर्थ में व्यवहत होता है। ‘राग-द्वेष रहित कर्म को आचार कहा जाता है’।
प्राकृत में इसे ‘आयारो’ कहा गया है। अभिधान राजेंद्र कोश में-‘ मर्यादापूर्वक आचरण को आचार कहा गया है।’
आचार का अर्थ- अनुषठान-आचरण, चाल-चलन, रीति-भांत कहा गया है।निर्युक्तिकार भद्रबाहु ने आचारांग को ‘भगवान’ और ‘वेद’ कहा है। निर्युक्ति में इसे-‘ नवब्रह्मचर्याद्यययनात्मक’ कहा गया है।इसके १० पर्यायवाची नाम
बताए गए है— आयार, आचाल, आगाल, आगार,आसास,आयरिस, अंग,आइणण,आजाइ और आमोक्ख ।
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