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दिलवाड़ा के जैन मंदिर: पाषाण शिल्प और आध्यात्म का अप्रतिम केन्द्र

 दिलवाड़ा के जैन मंदिर: पाषाण शिल्प और आध्यात्म का अप्रतिम केन्द्र

शिल्प-सौंदर्य का बेजोड़ खजाना
समुद्र तल से लगभग साढ़े पांच हजार फुट ऊंचाई पर स्थित राजस्थान की मरूधरा के एक मात्र हिल स्टेशन माउंट आबू पर जाने वाले पर्यटकों, विशेषकर स्थापत्य शिल्पकला में रुचि रखने वाले सैलानियों के लिए इस पर्वतीय पर्यटन स्थल पर सर्वाधिक आकर्षण का केंद्र वहां मौजूद देलवाड़ा के प्राचीन जैन मंदिर है।11वीं से 13वीं सदी के बीच बने संगमरमर के ये नक्काशीदार जैन मंदिर स्थापत्य कला के उत्कृष्ट नमूने है। पांच मंदिरों के इस समूह में विमल वासाही टेंपल सबसे पुराना है। इन मंदिरों की अद्भुत कारीगरी देखने योग्य है। अपने ऐतिहासिक महत्व और संगमरमर पत्थर पर बारीक नक्काशी की जादूगरी के लिए पहचाने जाने वाले राज्य के सिरोही जिले के इन विश्वविख्यात मंदिरों में शिल्प-सौंदर्य का ऐसा बेजोड़ खजाना है, जिसे दुनिया में अन्यत्र और कहीं नहीं देखा जा सकता। दिल्ली-अहमदाबाद बड़ी लाइन पर आबू रेलवे स्टेशन से लगभग 20 मील दूर स्थित देलवाड़ा के इन मंदिरों की भव्यता और उनके वास्तुकारों के भवन-निर्माण में निपुणता, उनकी सूक्ष्म पैठ और छेनी पर उनके असाधारण अधिकार का परिचय देती है।
मंदिरों का समूह
दिलवाड़ा मंदिर वस्तुत: पांच मंदिरों का एक समूह है। इन मंदिरों का निर्माण ग्यारहवीं और तेरहवीं शताब्दी के बीच हुआ था। जैन धर्म के तीर्थकरों को समर्पित इन शानदार मंदिरों में सर्वाधिक प्राचीन व प्रमुख है ‘विमल वासाही मंदिर’। प्रथम जैन तीर्थकर आदिनाथ को समर्पित यह मंदिर 1031 ई. में बना था. 22वें तीर्थकर नेमीनाथ को समर्पित यहां का ‘लुन वासाही मंदिर’ भी काफी लोकप्रिय है। यह मंदिर 1231 ई. में वास्तुपाल और तेजपाल नामक दो भाइयों द्वारा बनवाया गया था। अद्वितीय स्थापत्य की मिसाल सफेद संगमरमर से निर्मित दिलवाड़ा के इन मंदिरों का स्थापत्य अद्वितीय है।
दिलवाड़ा के पांच अनोखे मंदिर :
मंदिर परिसर में कुल पांच मंदिर है, जिनमे से प्रत्येक की अपनी अनूठी पहचान है। प्रत्येक मंदिर का नाम उस छोटे से गांव पर है जिनमे में स्थित है। वे मंदिर है :
विमल वासाही मंदिर :
इस पुरे मंदिर का निर्माण सफ़ेद संगमरमर से किया गया है। मंदिर का निर्माण सं 1031 में विमल शाह ने करवाया था जो भीमदेव I के मंत्री थे। भीमदेव I गुजरात के चालुक्य राजा (सोलंकी महाराजा) थे। ये मंदिर भगवान ऋषभ को समर्पित है। ये मंदिर के खुले आँगन में स्थित है जिसके चारो ओर एक गलियारा बना हुआ है, जिसके छोटे छोटे हिस्सों में तीर्थकारियो की छोटी मुर्तिया बनी हुई है। मंदिर में नक्काशीदार गलियारे, स्तंभ, मेहराबे और मंडप है जो मंदिर को आकर्षक रूप प्रदान करते है। इस मंदिर की छतों पर कमल की कलियां, पंखुड़िया, फूल और जैन पौराणिक कथाओ के दृश्यों को बनाया गया है।
रंग मंडप एक विशाल कक्ष है जिसे 12 सजावटी स्तंभो ने सहारा प्रदान किया हुआ है। मंडप में मेहराबे है और साथ ही आकर्षक केंद्रीय गुबंद भी है। स्तम्भों पर वाद्ययंत्र बजाती हुई महिलाओं, 16 विद्यादेवियो की मुर्तिया खुदी हुई है जो अपने अपने हाथो में अपने प्रतीक धारण किये हुए है।
नवचौकी, नौ आयातकार छतों का संग्रह है, जिनमे से प्रत्येक को विभिन्न डिजाइनों से जड़ा गया है और प्रत्येक को अलंकृत स्तम्भों ने सहारा दिया हुआ है। गूढ़ मंडप एक सामान्य कक्ष है जिसके अंदर कदम रखते ही एक सजाया हुआ प्रवेश द्वार है। यहाँ पर आदि नाथ की मूर्ति स्थापित की गयी है जिन्हे भगवान ऋषभ देव के नाम से भी जाना जाता है। ये मंडप देवताओं की आरती करने के लिए बनाया गया है। हस्तिशाला (Elephant Cell) का निर्माण पृथ्वीपाल (1147-49) ने करवाया था, जो विमल शाह के वंशज थे। इस मूर्तिकला की विशेषता हाथियों की पंक्ति है।
लूना वासाही मंदिर :
लूना वासाही मंदिर भगवान नेमिनाथ को समर्पित है। इस भव्य मंदिर का निर्माण सं 1230 में दो पोरवाल भाइयो – वस्तुपाल और तेजपाल – ने करवाया था। ये दोनों भाई वीरधवल, गुजरात के वाघेला शासक के मंत्री थे। इस मंदिर का निर्माण उनके स्वर्गीय भाई लूना की याद ने करवाया गया था, इसको विमल वशी मंदिर के बाद डिजाइन किया गया था। मुख्य कक्ष और रंग मंडप में एक केंद्रीय गुबंद है जिसपर एक पेंडेंट लटकाया गया है, उस पेंडेंट पर नक्काशी की गयी है। गुबन्द में व्यवस्थित एक वृतीय गिरोह में 72 तीर्थयात्रियों की बैठी हुई अवस्था में मूर्तियां है और इनके ठीक जैन सन्यासियों की 360 मूर्तियां है जिनको दूसरे वृतीय गिरोह में बनाया गया है। हथिशला में 10 संगमरमर से बनाए हाथी है जिनको बड़े करीने से पोलिश किया गया है जिससे वे दिखने में बिलकुल असली हाथी जैसे लगे।
नवचौकी में मंदिर में प्रयोग की गयी सबसे शानदार और नाजुक संगमरमर पत्थर के कटिंग वर्क का इस्तेमाल किया गया है। इन नौ छतों में से प्रत्येक एक दूसरे की सुंदरता और आकर्षक आकृति को बढाती हुई दिखाई पड़ती है। गूढ़ मंडप में काले संगमरमर से बनी 22 वे तीर्थकार नेमिनाथ की मूर्ति स्थापित है। कीर्ति स्तंभ काले पत्थर से बना एक बड़ा स्तंभ है जो मंदिर के बायीं तरफ स्थित है। इस स्तंभ का निर्माण मेवाड़ के महाराणा कुंभा ने करवाया था। दिलवाड़ा के शेष तीन मंदिर छोटे जरूर है परन्तु उनकी खूबसूरती देखने योग्य है।
पित्तलहार मंदिर :
इस मंदिर का निर्माण राजस्थान के भामाशाह कावड़िया ने करवाया था। मंदिर में पहले जैन तीर्थकार ऋषभ देव (आदिनाथ) की धातु से बनी मूर्ति, जिसमे पांच धातुओ को मिलाया गया है को स्थापित किया गया है। मुख्य तौर पर प्रयोग की जाने वाली धातु “पीतल” है जिसके कारण इस मंदिर का नाम “पित्तलहार” पड़ा। इस मंदिर में मुख्य गर्भ गृह, गूढ़ मंडप और नवचौकी भी समिल्लित है। मंदिर में की गयी शिलालेखो के मुताबिक पुरानी विकृत हो चुकी मूर्ति को सं 1468-69 AD के दौरान बदल दिया गया था जिसका वजन 108 maunds (लगभग 40 quintals) था। यहाँ वास्तुकार “Deta” की एक मूर्ति है जिसकी ऊँचाई 8 ft (2.4 m), चौड़ाई 5.5 ft (1.7 m) और हाइट 41 inches (1,000 mm) है। गूढ़ मंडप की एक साइड में, आदिनाथ की विशाल पंच-तीर्थ मूर्ति स्थापित है।
पार्श्वनाथ मंदिर :
ये मंदिर भगवान पार्श्वनाथ को समर्पित है। इस मंदिर का निर्माण सं 1458-59 के दौरान मांडलिक और उसके परिवार वालो ने करवाया था। ये एक तीन मंजिला ईमारत है, जो दिलवाड़ा में स्थित सभी मंदिरों से सबसे ऊंचा है। निचली मंजिल के गर्भगृह की चार मुखो पर चार विशाल मंडप है। गर्भगृह की बाहरी दीवार पर ग्रे बलुआ पत्थर से बनी सुन्दर मूर्तियां, चित्रित दिक्पाल, विद्यादेवी, यक्षिणी, Shalabhanjikas और अन्य सजावटी मूर्तियां है।
महावीर स्वामी मंदिर :
ये मंदिर एक छोटी संरचना है जिसका निर्माण 1582 में किया गया था जो भगवान महावीर को समर्पित है। छोटे होने के कारण इस मंदिर की दीवारों पर अद्भुत नक्काशी की गयी है। इन चित्रों को ऊपरी दीवार पर सिरोही के वास्तुकारों द्वारा सं 1764 में बनवाया गया था।
शिल्प भी है भिन्न
इन मंदिरों की भव्यता उनके वास्तुकारों की भवन-निर्माण में निपुणता, उनकी सूक्ष्म पैठ और छेनी पर उनके असाधारण अधिकार का परिचय देती है। इन मंदिर की प्रमुख विशेषता यह है की सभी की छतों, द्वारों, तोरण, सभा-मंडपों का उत्कृष्ट शिल्प एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न है। पांच मंदिरों के इस समूह में दो विशाल मंदिर हैं और तीन उनके अनुपूरक। मंदिरों के प्रकोष्ठों की छतों के गुंबद व स्थान-स्थान पर उकेरी गयीं सरस्वती, अम्बिका, लक्ष्मी, सव्रेरी, पद्मावती, शीतला आदि देवियों की दर्शनीय प्रतिमाएं इनके शिल्पकारों की छेनी की निपुणता के साक्ष्य खुद-ब-खुद प्रस्तुत कर देती हैं।
यहां उत्कीर्ण मूर्तियों और कलाकृतियों में शायद ही कोई ऐसा अंश हो जहां कलात्मक पूर्णता के दर्शन न होते हों। शिलालेखों और ऐतिहासिक अभिलेखों के अनुसार प्राचीन काल में यह स्थल अबू नागा जनजाति का प्रमुख केंद्र था। महाभारत में अबू पर्वत में महर्षि वशिष्ठ के आगमन का उल्लेख मिलता है। शिलालेखों के अनुसार भगवान महावीर ने भी यहां के निवासियों को उपदेश दिया था।
संकलित।

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