भारतभूषण आचार्य समन्तभद्र स्वामी का अपराजित व्यक्तित्व एवं अनुपम कृतित्व–
प्रोफेसर फूलचंद जैन प्रेमी, वाराणसी
संपूर्ण भारतीय मनीषा के विकास में तीसरी शताब्दी के महान् मनीषी जैनन्याय के प्रतिष्ठापक आचार्य समन्तभद्र स्वामी का बहुमूल्य योगदान है। आचार्य शुभचंद्र तो आपकी कृतियों और आपके अजेय व्यक्त्तित्व से इतने प्रभावित हुए कि आपको‘समंतभद्रो भद्रार्थो भातु भारतभूषण:’ कहकर ‘भारतभूषण’ जैसी गौरवपूर्ण उपाधि तक से विभूषित किये बिना नहीं रह सके।
आपका विस्तृत जीवन परिचय नहीं मिलता। क्योंकि इन्होंने अपनी कृतियों में कहीं कहीं प्रकारान्तर से स्वयं अपने विषय में थोड़े -बहुत ही संकेत दिए हैं। फिर भी परवर्ती साहित्यिक और शिलालेखीय उल्लेखों के आधार पर श्रेष्ठ विद्वानों ने आपके जीवन के विषय में काफी अनुसंधान किया है, तदनुसार आप दक्षिण भारत के चोलराजवंशीय क्षत्रिय महाराजा उरगपुर के सुपुत्र थे। इनके बचपन का नाम शांतिवर्मा था। इसके अलावा इनके मुनिदीक्षा ग्रहण करने के पूर्व के जीवन का अन्य वृत्तान्त उपलब्ध नहीं होता।
पवित्र मुनि वेष में साधनारत जब आप दक्षिण भारत के मणुवकहल्ली नामक स्थान में विहार कर रहे थे, उसी समय आपको ‘भस्मकव्याधि’ नामक में बाधाकारी असाथ्य रोग हो गया। इसके बाद भी मुनि दीक्षा के समय धारण किये मूलगुणों आदि व्रतों में शिथिलता का किंचित् विचार तक आपको सहन नहीं था क्योंकि मुक्ति का साक्षात् साधनभूत पवित्र मुनिमुद्रा को धारण कर आगमानुसार श्रमणाचार का पालन करते हुए संयम साधना में आप निरन्तर संलग्न रहे।
इसी दौरान आपने सम्पूर्ण आगमों तथा अन्यान्य मतों की विविध विधाओं के अनेक शास्त्रों का गहन पारायण कर चुके थे और आपका लक्ष्य अक्षय आगम की ज्ञाननिधि का सार दार्शनिक साहित्य के माध्यम से यथार्थ धर्म और सम्यक् परम्पराओं की अपूर्व प्रभावना करके संसार में फैल रहे मिथ्यात्व और पाखंडवादी मान्यताओँ,धारणाओं और परम्पराओं को दूर करने का था।
आपके अन्तःकरण में सम्यग्दर्शन का प्रखर तेज होते हुए भी अचानक अन्तहीन भूख के रूप में आई भस्मक व्याधि नामक इस शारीरिक रोग ने महान् लक्ष्यसिद्धी में बाधा डालना शुरु कर दिया। अतः आपने अपने पूज्य आचार्य गुरुवर्य से सल्लेखना-समाधिमरण ग्रहण करने का अनुरोध किया। किन्तु आपके दीक्षा प्रदाता गुरु भगवन्त इनकी आन्तरिक, प्रतिभा, प्रभावकता और क्षमता से सुपरिचित थे, अतः उन्हें इसकी आज्ञा नहीं दी, अपितु दिगम्बर मु छोड़कर अन्य साधारण साधुवेश में रहकर जिस किसी उपाय से इस पेट की अन्तहीन भूख के रोग-शमन का निर्देश दिया।
भस्मक-व्याधि की प्रबलता उनकी विवशता थी, अतः उन्होंने यत्र-तत्र विहार करते हुए वैसा ही किया। जैनेतर अन्य परम्परा के साधारण साधु के वेष में कुछ समय रहने का आपका प्रमुख उद्देश्य मात्र व्याधिशमन था। आपने बाह्य रूप में भले ही दूसरा वेष धारण कर लिया किन्तु आपके अन्तः में समीचीन जैनधर्म के प्रति जो दृढ़ आस्था के कारण रत्नत्रय का अद्भुत प्रकाश पुंज पूरी जागरूकता के साथ विद्यमान रहा।
वाराणसी के तत्कालीन नरेश शिवकोटि द्वारा आपसे पूछे जाने पर आपने अपना परिचय इस प्रकार दिया –
काञ्च्यां नग्नाटकोऽहं मलमलिनतनुर्लाम्बुसे पाण्डुपिण्डः, पुण्ड्रोण्डे शाक्यभिक्षुर्दशपुरनगरे मिष्टभोजी परिव्राट्। वाराणस्यामभूवं शशधरधवलः पाण्डुरङ्गस्तपस्वी, राजन् ! यस्यास्ति शक्तिः स वदतु पुरतो जैननैर्ग्रन्थवादी ॥
अर्थात् मैं कांची में मलिन भेषधारी दिगम्बर रहा, लाम्बुसनगर में भस्म रमाकर शरीर को श्वेत किया, पुण्ड्रोण्ड में जाकर बौद्धभिक्षु बना, दशपुर नगर में मिष्ट भोजन करने वाला सन्न्यासी बना, वाराणसी में श्वेत वस्त्रधारी तपस्वी बना। राजन् ! आपके सामने यह दिगम्बर जैनवादी खड़ा है, जिसकी शक्ति हो, मुझसे शास्त्रार्थ कर ले।आपने जिन देशों,नगरों ललकारते हुए शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त की, उन स्थानों का उल्लेख इस प्रकार मिलता है–
पूर्वं पाटलिपुत्रमध्यनगरे भेरी मया ताडिता, पश्चान्मालवसिन्धुढक्कविषये काञ्चीपुरे वैदिशे। प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं संकटं, वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितम्।।
अर्थात् राजन् ! सबसे पहले मैंने पाटलिपुत्र नगर में शास्त्रार्थ के लिए भेरी बजाई, फिर मालवा, सिन्धु, ढक्क, काञ्ची, विदिशा आदि स्थानों में जाकर भेरी ताडित की। अब बड़े-बड़े दिग्गज विद्वानों से परिपूर्ण इस करहाटक नगर में आया हूँ। मैं तो शास्त्रार्थ की इच्छा रखता हुआ सिंह के समान घूमता-फिरता हूँ।
इस तरह आचार्य समन्तभद्र भस्मकव्याधि के शमनार्थ वे विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग भेषधारी बनकर रहे।आपने सम्पूर्ण भारत के पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण सर्वत्र भ्रमण करके जिनधर्म की महिमा स्थापित की थी।
इनके अन्दर जो रत्नत्रय धर्म के प्रति अखण्ड और अगाध श्रद्धा का तेज अखंड बना हुआ था, अतः उसी के उत्कृष्ट प्रताप से इस महाव्याधि रूपी महाबाधा को अन्ततः काशी में आकर उन्होंने किस तरह दूर किया ? इस घटना से प्रायः सभी सुपरिचित ही हैं। भस्मकव्याधि शमन के बाद अपने गुरु आचार्यश्री की आज्ञा से प्रायश्चित्तादि पूर्वक उन्होंने पुनः दिगम्बर मुनि-मुद्रा धारण कर संयम एवं साहित्य साधना में अपने को समर्पित कर दिया।
आचार्य समन्तभद्र के वाद-कौशल की धाक उस समय सम्पूर्ण देश में थी। उनके असाधारण व्यक्तित्व की प्रशंसा परवर्ती आचार्यों में सर्वश्री अकलंकदेव, विद्यानन्द स्वामी, जिनसेन, वादिराज, वादीभसिंहसूरि, वसुनन्दी आदि आचार्यों ने मुक्तकण्ठ से की है तथा उन्हें भव्यैकलोकनयन, सुतर्कशास्त्रामृत, सारसागर, वरगुणालय, महाकवीश्वर, सम्यग्ज्ञानमूर्ति आदि महनीय विशेषणों से अलंकृत किया है।
आचार्य नरेन्द्रसेन ने तो अपने ग्रन्थ ‘सिद्धान्तसार संग्रह’ में यहाँ तक लिखा है कि आचार्य गुणधर तुल्य समन्तभद्र के निर्दोष वचन प्राणियों के लिए ऐसा ही दुर्लभ है, जैसा कि मनुष्यत्व का पाना।यथा–
श्रीमत्समन्तभद्रस्यदेवस्यापिवचोऽनघम्। प्राणिनांदुर्लभंयद्वन्मानुषत्वंतथापुनः।1.11।
इस प्रकार आचार्य समन्तभद्र ने जहाँ अपने समय के अनेक दार्शनिक एकान्तवादों की मीमांसा और समन्वय कर उन्हें यथार्थ स्थिति का बोध कराया, वहीं अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, सप्तभंगी नय, प्रमाण इन सिद्धान्तों के विकास हेतु अपने मौलिक चिन्तन द्वारा अनेक नई उद्भावनायें प्रस्तुत कीं।
आचार्य समंतभद्र भारतीय ज्ञान परंपरा के उत्कृष्ट आचार्य थे । आप प्रत्येक विषय के ज्ञाता थे। चाहे व्याकरण हो, साहित्य, ज्योतिष ,आयुर्वेद, मंत्रशास्त्र, न्याय, दर्शन एवं धर्म सभी विधाओं में निपुण थे। जब आप भस्मक व्याधि दूर करने के लिए काशी आये, तब काशी नरेश के समक्ष आपने जो अपना परिचय दिया, वह कोई अतिशयोक्ति नहीं थी, अपितु वह तथ्यपूर्ण कथन था।उन्होंने अपना परिचय देते हुए कहा–
आचार्योऽहं कविरहमहं वादिराट् पण्डितोऽहं, दैवज्ञोऽहं भिषगमहं मान्त्रिकस्तान्त्रिकोऽहम्। राजन्नस्यां जलधिवलयामेखलायामिलाया- माज्ञासिद्धः,किमितिबहुना सिद्धसारस्वतोऽहम्।।
अर्थात् मैं आचार्य हूँ, कवि हूँ, शास्त्रार्थियों में श्रेष्ठ हूँ, पण्डित हूँ, ज्योतिषी हूँ, वैद्य हूँ, मान्त्रिक हूँ, तान्त्रिक हूँ। हे राजन्!इस संपूर्ण पृथ्वी पर मैं आज्ञासिद्ध हूँ।अधिक क्या कहूँ ? मैं सिद्धसारस्वत हूँ।
इसीलिए अपने ज्ञानार्णव शास्त्र में आचार्य शुभचन्द्र आपके बारे में लिखते हैं-
समन्तभद्रादिकवीन्द्रभास्वतां स्फुरन्ति यत्रामलसूक्तिरश्मयः। व्रजन्ति खद्योतवदेव हास्यतां न तत्र किं ज्ञानलवोद्धतो जनाः ।
अर्थात् जहाँ समन्तभद्रादि कवीन्द्र रूपी सूयों की निर्दोष सूक्ति रूपी किरणें स्फुरायमान हो रही हैं, वहाँ अल्पज्ञान से अहंकार को प्राप्त हुए मनुष्य जुगनू के समान क्या हास्य को ही प्राप्त नहीं होगें ?
महाबाधाकारी भस्मकव्याधि के बीच भी आपने अपनी विलक्षण प्रतिभा का अच्छा उपयोग किया और विभिन्न धर्मों और दर्शनों का निकटता से साक्षात्कार किया और उन परम्पराओं के मूलग्रंथों का उनके अधिकारी विद्वानों के साथ गहन अध्ययन किया। और इस तुलनात्मक अध्ययन का उपयोग उन्होंने अपनी कृतियों में किया। उन्होंने अपने द्वारा सृजित साहित्य में विविध रूपों में उन एकान्तिक दार्शनिक मतों का पूर्वपक्ष के माध्यम से बड़ी ही प्रबलता और तार्किक ढंग से खण्डन करते हुए अनेकान्तवाद के द्वारा जैनदर्शन के अखण्ड सिद्धान्तों की दृढ़ता के साथ स्थापना की। उनके द्वारा लिखित उनकी गहन दार्शनिक चिंतन से भरपूर स्तुतिपरक सभी कृतियाँ ही इस सबके लिए स्पष्ट प्रमाण है।
महान् आचार्य उमास्वामी (प्रथम शताब्दी) द्वारा प्रणीत तत्त्वार्थसूत्र नामक जैनधर्म के प्रतिनिधि ग्रन्थ को जैसे संस्कृत के आद्य जैन सूत्रग्रन्थ और इसके कर्ता के आद्य सूत्रकार होने का गौरव प्राप्त है, वैसे ही स्वामी समन्तभद्र को आद्य स्तुतिकार होने का गौरव प्राप्त है। क्योंकि आपने रत्नकरण्डक श्रावकाचार ग्रन्थ के सिवाय अन्य सभी उच्च दार्शनिक कृतियों को स्तुतियों के माध्यम से बड़ी ही प्रखरता के साथ प्रस्तुत किया है। इसीलिए संस्कृत के जैन स्तोत्र-काव्य का सूत्रपात आपके द्वारा ही हुआ। अतः आपको जैन परंपरा का आद्य स्तुतिकार होने का भी गौरव प्राप्त है.
‘भारतभूषण’उपाधि से अलंकृत–आगमकाल में जिन तत्वों का प्रतिपादन सूत्र रूप में होता था, आपने उन्हें दार्शनिक पद्धति से प्रस्तुत करते हुए स्याद्वाद, अनेकांतवाद, प्रमाण, नय, सप्तभंगी जैसे उत्कृष्ट जैन दार्शनिक अकाट्य सिद्धांतों के आधार से प्रतिपादन किया है. इसीलिए संस्कृत पांडवपुराण के कर्ता आचार्य शुभचंद्र तो आपकी कृतियों और अजेय व्यक्त्तित्व से इतने प्रभावित हुए कि आपके विषय में ‘समंतभद्रो भद्रार्थो भातु भारतभूषण:’ कहकर आपको ‘भारतभूषण’ जैसी गौरवपूर्ण उपाधि तक से विभूषित किया है।
यह भी इतिहास में लिखी जाने योग्य पहली घटना है कि किसी मनीषी को प्रदान की जाने यह सर्वोच्च और सर्वप्राचीन उपाधि है। यह एक आश्चर्यकारी प्रसंग है कि किसी सत्रह सौ वर्ष प्राचीन आचार्य को बृहत्तर भारत की इस सर्वोच्च उपाधि प्रदान की गई हो। वस्तुतः आपकी अगाध ज्ञानगरिमा तथा प्रभावक व्यक्तित्त्व और उत्कृष्ट कृतित्व के आधार से आपको प्रदान की गई यह उपाधि पूर्णतः सार्थक ही है।
वस्तुतः इनके महान् प्रभावक व्यक्तित्व का ज्ञान इससे भी होता है कि इनके द्वारा रचित गागर में सागर की तरह स्तुतिपरक सभी ग्रंथों पर इनके परवर्ती अनेक आचार्यों ने अनेक व्याख्या-ग्रन्थ लिखकर उनके चिन्तन के माध्यम से जैनदर्शन को अधिक विस्तार और विकास की दिशा प्रदान कर अपने जीवन को धन्य माना।इनके परवर्ती सभी आचार्यों ने भी आचार्य समन्तभद्र स्वामी के इस दाय को मात्र स्वीकार ही नहीं किया, अपितु आत्मसात करके उसे विस्तृत करने योगदान भी किया है।
जैनन्याय के प्रसिद्ध विद्वान् और हमारे गुरुवर्य डाॅ. दरबारी लाल जी कोठिया ने आचार्य विद्यानन्द प्रणीत आप्तपरीक्षा की प्रस्तावना में लिखा है कि- वे वीरशासन के प्रभावक, सम्प्रसारक और युगप्रवर्तक आचार्य हैं। आचार्य अकलंकदेव ने इन्हें कलिकाल में स्याद्वाद रूपी पुण्योदधि के तीर्थ का उत्कृष्ट प्रभावक आचार्य (अष्टशती, पृ. 2)बतलाया है। आचार्य जिनसेन ने (हरिवंश पुराण 1/30) इनके वचनों को भगवान महावीर के वचनतुल्य प्रकट किया है। वेल्लूर ताल्लुकेका के शिलालेख (सं. 17) में इन्हें भगवान् महावीर के तीर्थ की हजार गुणी वृद्धि करने वाला कहा है।
इस प्रकार जैनन्याय के विकास में स्वामी समन्तभद्राचार्य का प्रमुख स्थान है। इनके परवर्ती अनेक ग्रन्थकारों ने इनकी विविध रूपों में प्रशंसा लिखकर अपने को गौरवान्वित समझा। इतना ही नहीं, दक्षिण भारत में उपलब्ध अनेक शिलालेखों में इनकी यशोगाथा का उल्लेख मिलता है।
आप्तमीमांसा तत्त्वदीपिका नामक (प्रो उदयचंद जी द्वारा लिखित) पुस्तक पर पण्डित कैलाशचन्द जी शास्त्री ने अपने प्राक्कथन में लिखा है कि मीमांसादर्शन के महान् आचार्य शबरस्वामी ने अपने शाबरभाष्य ग्रन्थ में स्वामी समन्तभद्र के आप्त मीमांसा शास्त्र में सर्वज्ञसिद्धि विषयक कारिका ‘‘सूक्ष्मान्तरित दूरार्थाः’’ का अनुकरण करते हुए वेदों को भी सूक्ष्मादि पदार्थों का ज्ञान कराने में समर्थ बतलाया है। इसका भी आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने अपने आप्त मीमांसा ग्रंथ में खंडन किया है.
विद्वानों (हिन्द तत्त्वज्ञाननो इतिहास, उ. पृ. 112) में ऐसी मान्यता प्रचलित रही कि शबरस्वामी जैनों के भय से वन में शबर अर्थात् भील का वेष धारण करके रहते थे।, इसलिए उन्हें शबर स्वामी कहते थे। शिलालेखों आदि से स्पष्ट है कि आचार्य समन्तभद्र अपने समय के प्रखर तार्किक, वाग्मी और वादी थे। तथा उन्होंने सर्वत्र भ्रमण करके शास्त्रार्थ में अनेक प्रतिवादियों को परास्त किया था। हो सकता है कि आ. समन्तभद्र के भय से ही शबरस्वामी को वन में भील का वेष बनाकर रहना पड़ा हो। इसलिए वे आ. समन्तभद्र के मतों का निराकरण करने का साहस नहीं कर सके। भले ही उनका अनुकरण करके अपने अभीष्ट की सिद्धि करते रहे।
जैसे प्रसिद्ध मीमांसक दार्शनिक आचार्य कुमारिल भट्ट ने आचार्य समन्तभद्र द्वारा स्थापित सर्वज्ञ का खण्डन करने का कथित प्रयास करके अपने पूर्वज शबरस्वामी का बदला चुकाया।(भले ही वे इसमें पूर्णतः सफल नहीं हुए,) वैसे ही आ०अकलंकदेव ने अष्टशती ग्रन्थ में कुमारिलभट्ट का खण्डन करके अपने पूर्वज समन्तभद्र स्वामी का बदला लिया ही, अष्टसहस्री में आचार्य विद्यानन्द ने मीमांसकों का जोरदार खण्डन करके मयब्याज के बदला ले लिया।
इस प्रकार दिगम्बर जैन परम्परा के अनेक आचार्यों में आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य उमास्वामी के बाद स्वामी समन्तभद्र ही एकमात्र ऐसे गरिमा-मण्डित एवं प्रभावक आचार्य हुए हैं, जिन्होंने जैन दार्शनिक सिद्धान्तों की व्यापक प्रतिष्ठा की और जैनधर्म के दार्शनिक चिन्तन को तर्कपूर्ण शैली में प्रमाणशास्त्रीय पद्धति पर प्रतिष्ठापित कियाl आचार्य अकलंकदेव (7 वीं शती), आ.विद्यानन्द (8वीं शती) आ. माणिक्यनंदि (11वीं शती) और आ.प्रभाचन्द्र (11-12वीं शती) जैसे अनेक परवर्ती दार्शनिक आचार्यों ने जैन प्रमाणशास्त्र का जो विशाल प्रासाद निर्मित किया, उसकी बुनियाद(नींव)रखने का श्रेय आचार्य समन्तभद्र स्वामी को ही प्राप्त है। इसीलिए अनेक आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में आपका बहुमान के साथ काफी गुणगान किया है।
आचार्य अकलंकदेव ने आपको भव्य जीवों के लिए अद्वितीय नेत्र एवं ‘स्याद्वादमार्ग का पथिक’ विशेषण दिया है। आपने शास्त्रार्थों में बड़े-बड़े विद्वानों को परास्त किया था। इसलिए आचार्य जिनसेन ने इन्हें कवित्व, गमकत्व, वादित्व और वाग्मित्व आदि गुणों का धनी बताया।
अनेक शिलालेखों और ग्रंथकारों ने अपने ग्रंथों में आपके विभिन्न गुणों और विशेषताओं का उल्लेख कर आपकी उत्कृष्ट महिमा का और जिनशासन के प्रति आपके अनुपम योगदान और समर्पण का उल्लेख करते हुए आपके प्रति अगाध श्रद्धा व्यक्त की है। इसीलिए अनेक शास्त्रीय उल्लेखों में आपको भावी तीर्थंकर तक बतलाया गया है।
तत्कालीन परिस्थितियाँ और दार्शनिक प्रस्थापनायें-
आचार्य समन्तभद्र द्वारा प्रणीत साहित्य के अध्ययन से यह भी स्पष्ट होता है कि इनके समक्ष अनेक दार्शनिकों और उनके विभिन्न मतों की बाढ़ सी आई हुई थी। वस्तुतः विक्रम की दूसरी-तीसरी शती अपने देश में दार्शनिक क्रान्ति का युग रहा है।अन्यान्य भारतीय दार्शनिकों के और आपके द्वारा रचित ग्रंथों के तुलनात्मक अध्ययन से ज्ञात होता है कि आपके युग में अश्वघोष, मातृचेट, नागार्जुन, कणाद, गौतम, जैमिनि जैसे दिग्गज दार्शनिक और इनके अपने- अपने मतों की प्रतिद्वन्दिता चरम पर भी। परस्पर शास्त्रार्थों के माध्यम से परमत खण्डन और स्वमत मण्डन का बाहुल्य था।
उस समय सम्पूर्ण देश में व्यापक इन सब विविध मतों के बीच आचार्य समन्तभद्र ने अपनी अद्भुत् मेधा और तार्किक ढंग से इन विभिन्न एकान्तवादी मतों का सूक्ष्मता से परीक्षण करके प्रबल युक्तियों से उनका खण्डन करके जैन दार्शनिक सिद्धान्तों की शाश्वतता स्थापित की।और अनेकान्तवाद और स्याद्वाद आदि समन्वयवादी सिद्धांतों की जो ध्वजा लहराई, उसका सम्पूर्ण दार्शनिक जगत् में व्यापक प्रभाव हुआ।यही सब तो आपके अपराजित व्यक्तित्व का परिचायक है।
यद्यपि इनसे पूर्व के जैन आगमों में प्रमाणशास्त्र के बीज उपलब्ध होते हैं, किन्तु वास्तविक दार्शनिक मन्तव्यों का प्रमाणशास्त्रीय विकास एवं तार्किक विवेचन मुख्यतः आचार्य समन्तभद्र स्वामी से प्रारम्भ होता है।
वस्तुतः इनके समक्ष जहाँ एक ओर अपने पूर्वाचार्यों की परम्परा के संरक्षण का दायित्व था, वहीं दूसरी ओर प्रमाणशास्त्र के रूप में विकसित हो रही अन्य दार्शनिक परम्परा भी थी,जिसके साथ उनका सामजंस्य बैठाना था। आचार्य समन्तभद्र ने अपने इस दोहरे दायित्व का निर्वाह बड़ी ही कुशलता के साथ किया।
आचार्य समन्तभद्र स्वामी कृतित्व-
आपकी उपलब्ध कृतियों में से रत्नकरण्डक-श्रावकाचार को छोड़कर शेष चारों स्तुतिपरक गहन दार्शनिक कृतियाँ हैं, जिनमें आपने अपने इष्टदेवों की स्तुति के बहाने एकांतवादि दार्शनिकों के मतों का समीक्षापूर्वक खंडन करके अनेकांतवाद की दृढ़ता के साथ स्थापना की है । क्योंकि आपमें सातिशय श्रद्धा गुण के साथ ही गुणग्राहिता अप्रतिम प्रतिभा का गुण भी भरपूर विद्यमान था।
उपलब्ध कृतियाँ– आपके द्वारा प्रणीत उपलब्ध कृतियों में–१.युक्त्यनुशासन-अपरनाम वीरजिनस्तोत्र, २. स्वयम्भूस्तोत्र अपरनाम चतुर्विंशतिजिन स्तोत्र, ३.जिनशतक अपरनाम स्तुतिविद्या ४.रत्नकरण्डक-श्रावकाचार और ५.देवागम अपरनाम आप्तमीमांसा–ये वर्तमान में प्रमुख उपलब्ध कृतियाँ हैं।
अनुपलब्ध कृतियाँ– आपके द्वारा सृजित किन्तु अनुपलब्ध कृतियों में जीवसिद्धि और गन्धहस्तिमहाभाष्य नामक रचनाओं का उल्लेख क्रमशः आचार्य जिनसेन ने अपने हरिवंशपुराण में तथा जैन नाटककार हस्तिमल्ल ने अपने ‘‘विक्रान्तकौरवम्’’ नामक नाटक में किया है। कन्नड़़ भाषा के महाकवि महाराजा चामुण्डराय (वि. सं. 1035) ने अपने ग्रंथ ‘त्रिषष्टि-लक्षण महापुराण’ में भी आपके द्वारा रचित ‘गन्धहस्ति महाभाष्य’ का उल्लेख किया है। इनके साथ ही आपके द्वारा रचित तत्त्वानुशासन,प्राकृतव्याकरण,प्रमाणपदार्थ,कर्मप्राभृतटीका--इन अनुपलब्ध ग्रंथों के भी परवर्ती शास्त्रों में संदर्भ सहित उल्लेख प्राप्त होते हैं।
आपके द्वारा सृजित उपलब्ध साहित्य का परिचय–
१.युक्त्यनुशासन– ‘कीर्त्या महत्या भुवि वर्धमानं’---इस काव्य से आरम्भ वर्धमान-वीर जिनेन्द्र की स्तुति से युक्त यह एक उत्कृष्ट दार्शनिक कृति है। इस ग्रंथ का नाम वीर जिन स्तोत्र भी है, जो युक्ति प्रत्यक्ष और आगम के विरुद्ध नहीं है उसे वस्तु की व्यवस्था करने वाले शास्त्र का नाम युक्त्यानुशासन है। इस रचना का उद्देश्य यही है कि जो लोग न्याय-अन्याय को पहचानना चाहते हैं और प्रकृत पदार्थ के गुण दोष जानने की जिनकी इच्छा है, उनके लिए यह स्तोत्र हितकारी उपाय प्रस्तुत करता है ।
आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने भगवान् महावीर के शासन को सर्वोदयी शासन कहा है।वस्तुतः आप भगवान् महावीर के सर्वोदय तीर्थ के भी आप प्रमुख प्रवक्ता थे।
बीसवीं शताब्दी में महात्मा गाँधी जी एवं विनोबा भावे द्वारा प्रचलित सर्वोदय चिंतन का यह सर्व प्राचीन प्रथम उल्लेख माना जाता है।वह इस प्रकार है-
सर्वान्तवत्तद्गुणमुख्यकल्पं सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम्। सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥ ६७।।
अर्थात् हे जिनेन्द्रदेव! आपका यह सभी धर्मों से युक्त, गौण और मुख्य की कल्पना से सहित, सभी धर्मों से शून्य, परस्पर अपेक्षा से रहित अर्थात् परिपूर्ण, सभी आपदाओं का अन्त करने वाला और अन्तहीन आपका यह सर्वोदय तीर्थ ही सभी कल्याण करने वाला है।
इस कृति में सप्तभंगी, अनेकांत, स्याद्वाद आदि अनेक सिद्धान्तों का अच्छा विवेचन किया गया है। अन्यान्य दार्शनिकों के नित्यत्व, क्षणिकत्व आदि मतों की युक्तिपूर्वक समीक्षा और खण्डन करते हुए तीर्थंकर महावीर स्वामी के शासन का मंडन किया गया है। इसमें दो प्रस्ताव और चौसठ कारिकायें हैं। अंतिम चार कारिकाऐं उपसंहार रूप में दी गयी हैं। जिनमें वीरशासन की विशेषताओं, स्तोत्र का उद्देश्य, वीर और महावीर नाम की सार्थकता बतलाते हुए अन्त में मोक्षमार्ग की कामना की गई है।
इस ग्रंथ पर भी आचार्य विद्यानन्द की ‘‘युक्त्यनुशासनालंकार’’ नाम की व्याख्या उपलब्ध है।
२. स्वयंभूस्तोत्र– यह 143 पद्यों और विभिन्न छंदों से युक्त तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकरों के गुणानुवाद युक्त भावपूर्ण स्तवन है, इसीलिए इसे चतुर्विंशतिस्तोत्र भी कहते हैं, जो अनेक जैन सिद्धान्तों का दर्पण भी माना जाता है। दूसरों के उपदेश के बिना ही जिन्होंने स्वयं मोक्षमार्ग को जानकर और उसका अनुष्ठान कर अनंत चतुष्टय स्वरूप आत्म विकास को प्राप्त किया है, उन्हें स्वयंभू कहते हैं अतः यह स्वयंभू स्तोत्र सार्थक संज्ञा को प्राप्त है।
नित्य पाठ करने योग्य इसके सभी पद्य गंभीर अर्थ से गर्भित हैं। इस पर आचार्य प्रभाचंद्र कृत एक लघु संस्कृत व्याख्या है, जिसमें आपने इसे 'निःशेषजिनोक्तधर्म' कहा है. इसका कुछ परवर्ती विद्वानों ने हिन्दी पद्यानुवाद भी किया है, जो काफी लोकप्रिय हैं।
३.स्तुतिविद्या (जिनशतक)--
इस ग्रन्थ का मूल नाम स्तुतिविद्या है, जैसा कि प्रथम मंगल पद्म में प्रयुक्त हुए 'स्तुतिविद्यां प्रसाधये' प्रतिज्ञा वाक्य से ज्ञात होता है। इसके 116 पद्यों में स्वयंभूस्तोत्र की तरह प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकरों का आलंकारिक भाषा में स्तवन है।
यह शब्दालंकार प्रधान ग्रन्थ है। इसमें चित्रालंकार के अनेक रूपों को देखकर स्वामी समन्तभद्र के अगाध काव्यकौशल का सहज ही पता चल जाता है। इस ग्रन्थ के गत्वेकस्तुतमेव (११६) इस कविनाम गर्भचक्रवाले पद्य के सातवें वलय में 'शान्तिवर्मनकृतं' तथा चौथे वलय में 'जिनस्तुतिशतं’ नाम निकलता है। ग्रन्थ में कई तरह के चक्रवृत्त दिए है। स्वामी समन्तभद्र ने अपने इस ग्रन्थ को ‘समस्तगुणगणोपेता’ और ‘सर्वालंकारभूषिता’ बतलाया है। यह ग्रन्थ इतना गूढ़ है कि बिना संस्कृत और हिन्दी टीका के समझना प्रायः असंभव है। इसी से टीकाकार ने 'योगिनामपि दुष्करा' विशेषण द्वारा योगियों के लिए भी दुर्गम बतलाया है।
इसका शब्दविन्यास अलंकार की विशेषताओं को लिए हुए है। कहीं श्लोक के एक चरण को उल्टा रख देने से दूसरा चरण बना जाता है और पूर्वार्ध को उलटकर रख देने से उत्तरार्द्ध और समूचे श्लोक को उलट कर रख देने से दूसरा श्लोक बन जाता है। ऐसा होने पर भी उनका अर्थ भिन्न-भिन्न है। इस ग्रन्थ के अनेक अनेक पद्य ऐसे हैं, जो एक से अधिक अलंकारों को लिए हुए हैं । कुछ पद्य ऐसे भी हैं कि जो दो-दो अक्षरों से बने हैं । संस्कृत में इस पर एक अज्ञातकर्तृक वृत्ति (विवरण) उपलब्ध है।
४. रत्नकरण्डक-श्रावकाचार- सरलतम 150 पद्यों में निबद्ध एवं समीचीन धर्मशास्त्र और उपासकाध्ययन-इन अपरनामों से अभिहित यह श्रावकों के सम्पूर्ण आचार-विचार विषयक अति महत्त्वपूर्ण श्रेष्ठ ग्रंथ है। समीचीन धर्म की देशना इसमें प्रतिपादित होने के कारण यह एक सुव्यवस्थित समीचीन धर्मशास्त्र भी है । इसकी भाषा प्रांजल, मधुर और अर्थ गौरव को लिए हुए हैं । यह ग्रंथरत्न श्रावकधर्म रूपी रत्नों का छोटा सा पिटारा है, इस कारण इसका रत्नकरण्डक-श्रावकाचार नाम सार्थक है
इस पर आचार्य प्रभाचन्द्र कृत एक अति सुबोध संस्कृत व्याख्या तथा अज्ञातकर्तृक कन्नड़ टीका भी उपलब्ध है।
५.देवागम-आप्तमीमांसा–
जैसे ‘भक्तामर,'एकीभाव’-- ये स्तोत्र इन्ही आद्य पदों से आरम्भ होनेके कारण वे उन नामों से प्रसिद्ध हैं, उसी प्रकार यह भी 'देवागम' पदसे आरम्भ होनेसे 'देवागमस्तव’ नामसे अधिक प्रसिद्ध रहा हो और इसीसे ग्रन्थकारों द्वारा वह इसी नामसे विशेषरूप से लिखित हुआ हो।इसलिए प्राचीन ग्रन्थकारों ने आचार्य समन्तभद्र की प्रस्तुत कृति का 'देवागम' नाम से ही इसका उल्लेख किया है। अकलङ्कदेको इसपर अपना विवरण (अष्टशती-भाष्य) लिखने की प्रतिज्ञा करते हुए उसके आरम्भ में इसका यही नाम दिया है और उसे'भगवत्स्तव' (भगवान् का स्तोत्र) कहा है।'
आचार्य विद्यानन्द ने भी अपने'अष्टसहस्री’ ग्रंथ में आचार्य अकलंकदेव के अष्टशती ग्रंथ में आये 'स्वोक्तपरिच्छेदे' पदकी व्याख्या 'देवागमाख्ये... शास्त्रे' करके इसका 'देवागम' नाम स्वीकार किया है। आचार्य वादिराज, महाकवि हस्तिमल्ल आदि ग्रन्थकारोंने भी अपने ग्रन्थोंमें आ. समन्तभद्र की उल्लेखनीय कृतिके रूपमें इसका देवागम इसी नामसे निर्देश किया है।
आचार्य विद्यानन्द ने अपने ग्रन्थोंमें 'देवागम' नामके अतिरिक्त इसके 'आप्तमीमांसा' नामका भी उपयोग किया है। आचार्य समन्तभद्र ने स्वयं अपने इसी ग्रंथ की ११४ वीं अन्तिम कारिका में इसका 'आप्तमीमांसा' नाम दिया है, जिसे ऊअकलङ्कदेवने' 'सर्वज्ञविशेषपरीक्षा' कहा है।इससे मालूम पड़ता है कि यह कृति जहाँ 'देवागम' नामसे जैन साहित्यमें विश्रुत है, वहाँ वह 'आप्तमीमांसा' नाम से भी प्रसिद्ध रही है ।
विषय परिचय : यह ग्रंथ११४ कारिकाओं से युक्त दस परिच्छेदोंमें विभक्त है । विषय विभाजन की दृष्टि से यह दश-संख्यक परिच्छेदों की परिकल्पना हमें आचार्य उमास्वामी विरचित तत्वार्थसूत्र के दस अध्यायों का स्मरण दिलाती है। अन्तर इतना ही है कि तत्वार्थसूत्र गद्यात्मक तथा सिद्धान्तशैलीमें रचित है और देवागम पद्यात्मक एवं दार्शनिक शैली में रचा गया है। उस समय दार्शनिक रचनाएँ, प्रायः कारिकात्मक स्तुतिरूप में रची जाती थी। अतः आचार्य समन्तभद्र ने भी समय की मांगके अनुरूप अपने तीन (स्वयम्भू, युक्त्यानुशासन और देवागम) स्तोत्र दार्शनिक एवं कारिकात्मक शैलीमें रचे है।
इसमें उन विशेषताओं का उल्लेख करके मीमांसा की गई है, जिनसे आप्त स्वीकार करने की बात कही गयी है, जो निर्दोष हो। उसे उन हेतुओं से सामान्य आप्त (सर्वज्ञ) का संस्थापन (अनुमान) किया है, जो साध्यका अविनाभावी तथा निर्दोष है। ग्रन्थकार ने वीर जिन की परीक्षा कर उन्हें सर्वज्ञ और आप्त बतलाया है तथा जिसके वचन युक्ति और शास्त्र से अविरोधी पाए गए उन्हें ही आप्त बतलाया। यहाँ कहा है कि हे भगवान! जिनशासनामृत से बाह्य जो सर्वथा एकान्तवादी हैं वे आप्त नहीं हैं किन्तु जो आप्त के अभिमान से दग्ध सर्वथा एकान्तवादी है, वे आप्त नहीं हैं, उनके द्वारा प्रतिपादित इष्ट तत्त्व प्रत्यक्ष प्रमाण से बाधित हैं। इस कारण भगवान् आप ही निर्दोष है।
इसके बाद इन एकान्तवादियों की भावैकान्त, अभावैकान्त, उभयैकान्त, अवाच्यतैकान्त, द्वैतैकान्त, अद्वैतैकान्त, भेदैकान्त-अभेदैकान्त, पृथक्त्वैकान्त, नित्यैकान्त, अनित्यैकान्त, क्षणिकैकान्त, दैवैकान्त, हेतुवाद, आगमवाद आदि की समीक्षा की गई है और बतलाया है कि इन एकान्तों के कारण लोक, परलोक, बन्ध, मोक्ष, पुण्य, पाप, धर्म, अधर्म, दैव, पुरुषार्थ आदि की व्यवस्था नहीं बन सकती। इनकी सिद्धि स्याद्वाद से होती है। स्याद्वाद के बिना हेय, उपादेय तत्त्वों की व्यवस्था भी नहीं बनती। क्योंकि स्याद्वाद सप्तभंग और नयों की विवक्षा लिए रहता है।
आचार्य समन्तभद्र ने इन एकान्तवादियों को जो वस्तु को सर्वथा एकरूप मान्यता के आग्रह में अनुरक्त हैं, वे एकान्त के पक्षपाती होने के कारण स्व-पर बैरी हैं। क्योंकि उनके मत में शुभ, अशुभ, कर्म, लोक, परलोक आदि की व्यवस्था नहीं बन सकती। क्योंकि वस्तु अनन्त धमर्मात्मक है। उसमें अनन्त धर्मगुणस्वरूप मौजूद हैं।एकान्तवादी उनमें से एक ही धर्म को मानता है। उसी का उन्हें पक्ष है, इसलिए उन्हें स्व-पर बैरी कहा गया है।
आगे सापेक्ष और निरपेक्ष नयों का संबंध बतलाते हुए कहा है कि निरपेक्ष नय मिथ्या और सापेक्ष नय सम्यक् है, और वस्तु तत्त्व की सिद्धि में सहायक होते हैं। इनसे तत्त्व की महानता का सहज ही बोध हो जाता है।"
इस प्रकार अनेक युक्तियों के बाद वह सामान्य आप्तत्व अर्हत् परमेष्ठी में पर्यवसित किया गया है और कहा गया है कि चूंकि उनका शासन (तत्त्वप्ररूपण) सभी प्रमाणों के अविरुद्ध है, अतः वही आप्त प्रमाणित है।
देवागम-आप्तमीमांसा पर उपलब्ध व्याख्या साहित्य –- आपके पूर्वोक्त वीतरागी तीर्थंकर के स्तुतिपरक ग्रंथों में गहन दार्शनिक सिद्धान्तों का कूट-कूट कर समावेश आपकी असाधारण प्रतिभा का द्योतक है। यही कारण है कि आपकी इन स्तुतिपरक दार्शनिक कृतियों पर आचार्य अकलंकदेव और आचार्य विद्यानन्द जैसे अपने युग के उद्भट आचार्यों ने अति उत्कृष्ट और गहन टीकायें, वे भी मौलिक ग्रंथों की तरह लिखकर अपने को गौरवशाली एवं कृतार्थ समझा।
१.अष्टशती- आप्तमीमांसा पर आचार्य अकलंकदेव (सातवीं शती) ने ‘अष्टशती’ के नाम से प्रसिद्ध देवागम विवृत्ति/ देवागम-भाष्य नामक गहन टीका ग्रंथ की रचना की। यह देवागमकी उपलब्ध व्याख्याओंमें सबसे प्राचीन और अत्यन्त दुरूह व्याख्या है। किन्तु यह इतनी जटिल टीका है कि इस पर आचार्य विद्यानन्द कृत अष्टसहस्री जैसे विशाल टीका ग्रंथ के बिना सहारे इसे समझना प्रायः कठिन है।इसके परिच्छेदोंके अन्त मे जो समाप्ति-पुष्पिकावाक्य पाये जाते हैं उनमें इसका आप्तमीमांसाभाष्य (देवागम भाष्य) के नामसे उल्लेख हुआ है। अष्टशती का मंगलाचरण इस प्रकार है–
वन्दित्वा परमार्हतां समुदयं गां सप्तभंगीविधिं। स्याद्वादामृतगर्भिणीं प्रतिहतैकान्तान्धकारोदयाम्।।१।।
इस ग्रन्थ की आठ सौ श्लोक-प्रमाण रचना होने से इसे "अष्टशती' कहा गया है। इस तरह यह आ० अकलङ्कदेव की व्याख्या देवागम-विवृत्ति,आप्तमीमांसा-भाष्य(देवागम-भाष्य) और अष्टशती इन तीनों नामों से जैन वाङ्मयमें विश्रुत है। इसका प्रायः प्रत्येक स्थल इतना जटिल एवं दुरवगाह है कि साधारण विद्वानों का इसमें प्रवेश सम्भव नहीं है। उसके मर्म एवं रहस्य को आचार्य विद्यानन्द के 'अष्टसहस्री’ ग्रंथ के सहारे ही ज्ञात किया जा सकता है। भारतीय दर्शनशास्त्रों में इसकी जोड़ की रचना दुर्लभ है।
अष्टसहस्री के अध्ययन में जिस प्रकार कष्टसहस्रीका अनुभव होता है, उसी प्रकार इस अष्टशती के अभ्यास में भी कष्टशती का अनुभव उसके अभ्यासी को पद-पद पर होता है।
२.अष्टसहस्री—आचार्य विद्यानन्द (आठवीं शती) द्वारा देवागम पर लिखित ‘‘देवागमालंकृति’’ नामक यह विशाल व्याख्या है।उनकी यह एक अपूर्व एवं महत्त्वपूर्ण रचना है।इसे आप्तमीमांसालंकृति, आप्तमीमांसालङ्कार,देवागमालङ्कार और देवागमालंकृति-इन नामों से भी साहित्य में ‘अष्टसहस्री’को उल्लिखित किया गया है।लगता है कि इस अष्टशती की आठ सौ संख्या को ध्यानमें रखकर ही अपनी 'देवागमालंकृति' व्याख्या को उन्होंने आठ हजार श्लोक-प्रमाण बनाया और 'अष्टसहस्री' नाम रखा।
देवागम की तीनों व्याख्याओं में यह विस्तृत और प्रमेयबहुल व्याख्या है। इसमें मूलग्रंथ देवागम की कारिकाओं के प्रत्येक पद, वाक्य का विस्तृत दार्शनिक विवेचन तो किया ही गया है, साथ ही इसमें आचार्य अकलंकदेव की अष्टशती को भी आत्मसात करते हुए इसका भी विशद् व्याख्यान किया गया है। यह इतनी विशाल और प्रमेयबहुल है कि टीकाकार ने स्वयं इस अष्टसहस्री ग्रंथ को कष्टसहस्री तक कह दिया।
इसमें देवागम की कारिकाओं और उनके प्रत्येक पद-वाक्यादिका विस्तारपूर्वक अर्थोद्घाटन किया है। साथ ही उपर्युक्त अष्टशती के प्रत्येक पद वाक्यादि का भी विशद अर्थ एवं मर्म प्रस्तुत किया है।
अष्टसहस्री में अष्टशती ग्रंथ को इस तरह आत्मसात् कर लिया गया है, कि यदि दोनों को भेद-सूचक पृथक् पृथक् टाइपों में न रखा जाय तो पाठक को यह जानना कठिन है कि कौन सा अष्टशतीका अंश है और कौन सा अष्टसहस्री का। आचार्य विद्यानंद ने अष्टशती के आगे- पीछे और मध्य की आवश्यक एवं अर्थोपयोगी सान्दर्भिक वाक्यरचना करके अष्टशतीको अष्टसहस्री में मणि-प्रवाल-न्याय से अनुस्यूत किया है और अपनी तलस्पर्शिनी अद्भुत प्रतिभाका चमत्कार दिखाया है।
वस्तुतः अष्टशती के अध्ययन से ऐसा लगता है कि यदि आ० विद्यानंद अष्टसहस्री न रचते तो अष्टशती का गूढ़ रहस्य अष्टशती में ही छिपा रहता और मेधावियोंके लिये भी वह रहस्यपूर्ण बनी रहती। देवागम और अष्टशती के व्याख्यानोंके अतिरिक्त इसमें आ०विद्यानंदने अनेकानेक नयी विचारपूर्ण प्रमेयबहुल अपूर्व चर्चाएँ भी प्रस्तुत की हैं। व्याख्याकार ने स्वयं अपनी इस कृति के महत्त्व की उद्घोषणा करते हुए लिखा है–
श्रोतव्याष्टसहस्रीश्रुतैःकिमन्यैःसहस्रसंख्यानैः।
विज्ञायेतययैव स्वसमय-परसमयसद्भावः।।
अर्थात् 'हजार शास्त्रोंका पढ़ना-सुनना एक तरफ है और एकमात्र इस कृतिका अध्ययन एक ओर है, क्योंकि इस एक के अभ्यास से ही स्वसमय और परसमय दोनोंका ज्ञान हो जाता है।'
व्याख्याकार की यह घोषणा न मदोक्ति है। अपितु यह अतिशयोक्ति स्वयं इसकी निर्णायिका है। वस्तुतः यह मात्र इन्होंने अपने अष्टसहस्री ग्रंथ की प्रशंसा मात्र में नहीं लिखा, अपितु यह वास्तविकता है।देवागम में दस परिच्छेद हैं, अतः उसके व्याख्यास्वरूप अष्टसहस्त्री में भी दस परिच्छेद हैं। प्रत्येक परिच्छेदका आरम्भ और समाप्ति --ये दोनों एक-एक गम्भीर पद्य द्वारा किये गये हैं।
इस पर लघुसमन्तभद्र (१३वीं शती) ने ‘अष्टसहस्त्री-विषमपदतात्पर्यटीका' और श्वेताम्बर विद्वान् यशोविजय (१७ वीं शती) ने l l नाम की व्याख्याएँ लिखी हैं, जो अष्टसहस्त्री के विषमपदों, वाक्यों और स्थलों का स्पष्टीकरण करती हैं। यह देवागमालंकृति सन् १९१५ में सेठ नाथारङ्ग जी गांधी सोलापुर द्वारा प्रकाशित हो चुकी है।
३. आप्तमीमांसा वृत्ति– यह आचार्य वसुनन्दि (11-12वीं शती) प्रणीत संस्कृत में रचित सीधी-सादी सरल किन्तु लघु एवं सारभूत अति संक्षिप्त व्याख्या है। इसमें देवागम की कारिकाओं का सरल सुबोध अर्थ प्रस्तुत किया गया है। न तो इसमें विस्तृत ऊहापोह है और न अष्टशती या अष्टसहस्री जैसी दुरूहता या गंभीरता है।
यद्यपि वसुनन्दि नाम के कुछ और आचार्यों के नामोल्लेख मिलते हैं, किन्तु प्राकृत भाषा में रचित श्रावकाचार, प्रतिष्ठासारसंग्रह तथा मूलाचार की आचारवृत्ति के रचयिता आचार्य से ये भिन्न हैं। आप्तमीमांसावृत्तिकार की अन्य रचना ‘जिनशतक टीका’ का उल्लेख मिलता है।
४.आप्तमीमांसा टब्बार्थ (अप्रकाशित) - दिल्ली स्थिति भोगीलाल लहेरचन्द भारतीय विद्या संस्थान में एक समृद्ध भण्डार है, जिसमें पच्चीस हजार से अधिक हस्तलिखित पाण्डुलिपियाँ हैं। इनमें हस्तलिखित क्रमांक 14087 पर बीस पत्रों का महत्त्वपूर्ण ‘‘आप्तमीमांसा टब्बार्थ’’ नामक ग्रन्थ शास्त्र है। जो आचार्य समन्तभद्र के इसी आप्तमीमांसा एवं इसी पर आचार्य वसुनन्दि कृत लघु व्याख्या देवागम वृत्ति पर आधारित प्राचीन गुजराती मिश्रित मारवाड़ी भाषा में अनुवाद जैसा है। यह अभी तक अप्रकाशित है।
इसकी हस्तलिखित प्रति बड़ी ही जीर्ण-शीर्ण है। इसके पत्र आपस में चिपके होने के कारण बीच में मोटे अक्षरों में लिखित मूल कारिकाओं के अक्षर तो पूरी तरह मिटे हुये हैं किन्तु इसके ऊपर-नीचे छोटे-छोटे अक्षरों कारिकाओं का अर्थ आचार्य वसुनन्दि की टीका के आधार पर लिखा गया है, वे अंश कहीं-कहीं पर अस्पष्ट होने पर भी काफी कुछ सुरक्षित हैं। इसके आरम्भ का संस्कृत मंगलाचरण इस प्रकार है -।।अर्हं।।
नत्वाश्रीमज्जिनाधीशंभव्यानां स्वात्मलब्धये।
देवागमस्तवस्येदं स्तबकार्थं करोम्यहम्।।
इसके बाद बड़े अक्षरों में मध्य में सर्वप्रथम ‘‘मोक्षमार्गस्य नेतारं .... इत्यादि तत्त्वार्थसूत्र का आरम्भिक मंगलाचरण देकर इसके अर्थ के बाद आप्तमीमांसा ग्रन्थ का– देवागम नभोयान चामरादि ... यह कारिका देकर ऊपर छोटे अक्षरों में इसके प्रत्येक शब्द का अर्थ प्रस्तुत किया गया है। यथा - देवागम .... देवांरो आगमन स्वर्गसु मनुष्यलोक में तीर्थंकर 1. अवतरण, 2. जन्म, 3. दीक्षा, 4. केवलज्ञानोत्पत्ति, 5. मुक्तिगमन विषैं आवणौ ... इस तरह प्रत्येक शब्द का अर्थ बतलाया है।अन्त में ... अैसो श्रीमत् समंतभद्र आचार्य है, तीन भुवन में लाधी है जयरी पताका, प्रमाणनय रूप है नेत्र जिसमें स्याद्वाद रूप है शरीर जाकै, देवागमनामा शास्त्र रो संक्षेपरूप विवरणयो दराषणनै वसुनदिना माहू जडमति हू ...।
इतिश्री आप्तमीमांसा नाम देवागम रु ... दशम परिच्छेदः। संपूर्णा समाप्तं।। संवत् 1912 ना वर्षे भाद्र रा मासे शुक्ल पक्षे त्रयोदशी।
इस प्रति में टब्बाकार लेखक का नाम निर्देश आदि नहीं मिला अथवा मिट गया लगता है।
इन चार व्याख्याओं के अतिरिक्त अष्टसहस्री पर लघुसमन्तभद्र ने ‘‘अष्टसहस्री विषमपद तात्पर्य टीका’’ का उल्लेख मिलता है।एक अन्य टीका श्वेताम्बर परम्परा के महान् विद्वान् उपाध्याय यशोविजय (17वीं शती) ने ‘‘अष्टसहस्री-तात्पर्य विवरण’’नामक ऐसी अच्छी व्याख्या लिखी है, जो अष्टसहस्री के विषमपदों, वाक्यों और स्थलों का स्पष्टीकरण करती है और जो नव्यन्याय शैली में लिखी गयी है।
इस प्रकार आचार्य समन्तभद्र का श्रमण परम्परा विशेषकर जैन प्रमाणशास्त्र के विकास में अनुपम योगदान को देखते हुए सुप्रसिद्ध इतिहासकार प्रो. एस. एस. आर. आयंगर ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘‘स्टेडीज इन साउथ इण्डियन जैनिज्म’’ में ठीक ही लिखा है कि - ‘‘दक्षिण भारत में आचार्य समन्तभद्र का उदय न केवल जैनों के इतिहास में ही अपितु संस्कृत साहित्य एवं संस्कृति के इतिहास में भी विशेष युग को रेखांकित करता है।
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प्रोफेसर फूलचंद जैन प्रेमी, अनेकांत विद्या भवन B,23/45 शारदानगर कालोनी, खोजवाँ, वाराणसी, 221010, मोबा. 9670863335,/9450179254
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