Living Will
प्रो. डॉ. लोपा मेहता, मुंबई के जी.एस. मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर थीं, और उन्होंने वहाँ एनाटॉमी विभाग की प्रमुख के रूप में कार्य किया।
७८ वर्ष की उम्र में उन्होंने लिविंग विल (Living Will) बनाई। उसमें उन्होंने स्पष्ट लिखा —
जब शरीर साथ देना बंद कर देगा, और सुधार की कोई संभावना नहीं रहेगी, तब मुझ पर इलाज न किया जाए।
ना वेंटिलेटर, ना ट्यूब, ना अस्पताल की व्यर्थ भागदौड़।
मेरे अंतिम समय में शांति हो — जहाँ इलाज के ज़ोर से ज़्यादा समझदारी को प्राथमिकता दी जाए।
डॉ. लोपा ने सिर्फ यह दस्तावेज़ ही नहीं लिखा, बल्कि मृत्यु पर एक शोध-पत्र भी प्रकाशित किया। उसमें उन्होंने मृत्यु को एक प्राकृतिक, निश्चित और जैविक प्रक्रिया के रूप में स्पष्ट किया।
उनका तर्क था कि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने मृत्यु को कभी एक स्वतंत्र अवधारणा के रूप में देखा ही नहीं। चिकित्सा का आग्रह यह रहा कि मृत्यु हमेशा किसी रोग के कारण ही होती है, और यदि रोग का इलाज हो जाए, तो मृत्यु को टाला जा सकता है।
लेकिन शरीर का विज्ञान इससे कहीं गहरा है।
उनका तर्क है — शरीर कोई हमेशा चलने वाली मशीन नहीं है। यह एक सीमित प्रणाली है, जिसमें एक निश्चित जीवन-ऊर्जा होती है। यह ऊर्जा किसी टंकी से नहीं आती, बल्कि सूक्ष्म शरीर के माध्यम से आती है।
वही सूक्ष्म शरीर, जिसे हर कोई महसूस करता है, पर देख नहीं सकता। मन, बुद्धि, स्मृति और चेतना — इन सबका सम्मिलन ही यह प्रणाली बनाता है।
यह सूक्ष्म शरीर जीवन-ऊर्जा का प्रवेशद्वार है। यह ऊर्जा पूरे शरीर में फैलती है और शरीर को जीवित रखती है। हृदय की धड़कन, पाचन क्रिया, सोचने की क्षमता — ये सब उसी के आधार पर चलते हैं।
पर यह ऊर्जा असीमित नहीं है। हर शरीर में इसका एक निश्चित स्तर होता है। जैसे किसी यंत्र में लगी हुई फिक्स्ड बैटरी — न बढ़ाई जा सकती है, न घटाई जा सकती है।
"जितनी चाबी भरी राम ने, उतना चले खिलौना" — कुछ वैसा ही।
डॉ. लोपा लिखती हैं, कि जब शरीर की यह ऊर्जा समाप्त हो जाती है, तब सूक्ष्म शरीर देह से अलग हो जाता है। वही क्षण होता है जब शरीर स्थिर हो जाता है, और हम कहते हैं, "प्राण चले गए"।
यह प्रक्रिया न किसी रोग से जुड़ी होती है, न किसी गलती से। यह शरीर की आंतरिक लय है — जो गर्भ में शुरू होती है, और पूरी होकर मृत्यु तक पहुँचती है।
इस ऊर्जा का खर्च हर पल होता है — हर कोशिका, हर अंग अपना जीवनकाल पूरा करता है। और जब पूरे शरीर का "कोटा" समाप्त हो जाता है, तब शरीर शांत हो जाता है।
मृत्यु का क्षण घड़ी से नहीं मापा जा सकता। वह एक जैविक समय होता है — जो हर किसी के लिए अलग होता है।
किसी का जीवन ३५ साल में पूरा होता है, तो किसी का ९० साल में। पर दोनों ही अपनी संपूर्ण यात्रा करते हैं।
अगर हम उसे पराजय या ज़बरदस्ती न मानें, तो कोई भी अधूरा नहीं मरता।
डॉ. लोपा के अनुसार, जब आधुनिक चिकित्सा मृत्यु को टालने का हठ करती है, तब न सिर्फ मरीज़ का शरीर थकता है, बल्कि पूरा परिवार टूट जाता है।
ICU में महीने भर की साँसों की कीमत कभी-कभी जीवन भर की जमा-पूँजी को खत्म कर देती है।
रिश्तेदार कहते रहते हैं — "अभी आशा है", पर मरीज़ का शरीर पहले ही कह चुका होता है — "अब बस"।
इसलिए वे लिखती हैं — "जब मेरी बारी आए, तो बस मुझे KEM अस्पताल ले जाइए। जहाँ मुझे यक़ीन है कि अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं होगा। इलाज के नाम पर कोई दीर्घकालिक कष्ट नहीं दिया जाएगा। मेरे शरीर को रोका नहीं जाएगा — उसे जाने दीजिए।"
पर सवाल यह है — क्या हमने अपने लिए ऐसा कुछ तय किया है?
क्या हमारा परिवार उस इच्छा का सम्मान करेगा? और जो करेंगे, क्या उन्हें समाज में सम्मान मिलेगा?
क्या हमारे अस्पतालों में ऐसी इच्छाओं का सम्मान होता है, या अब भी हर साँस पर बिल बनेगा और हर मृत्यु पर दोष?
यह इतना आसान नहीं है। तर्क और भावना का संतुलन साधना शायद सबसे कठिन कार्य है।
अगर हम मृत्यु को शांत, नियत और शरीर की आंतरिक गति से आई प्रक्रिया मानना सीख जाएँ, तो शायद मृत्यु का भय कम होगा, और डॉक्टरों से हमारी अपेक्षाएँ अधिक यथार्थवादी होंगी।
मेरे अनुसार, मृत्यु से लड़ना बंद करना चाहिए और उससे पहले जीवन के लिए तैयारी करनी चाहिए।
और जब वह क्षण आए — तो शांति से, सम्मान के साथ उसका सामना करना चाहिए।
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