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Showing posts from January, 2020

जैनदर्शन में काल द्रव्य का स्वरूप

*🍁जैनदर्शन  में काल द्रव्य का स्वरूप 🍁* *काल द्रव्य अस्तिकाय न होकर भी अर्थ/पदार्थ के रूप में उसका अस्तित्व है। *इस जगत में जीवों और पुद्गलों में प्रतिक्षण उत्पाद -व्यय-ध्रौव्य की एकवृत्तिरूप परिणाम वर्तता है।वह परिणाम वास्तव में काल द्रव्य रूप सहकारी कारण के सद्भाव में ही दिखाई देता है। *वह काल द्रव्य जीव व पुद्गल के परिणाम की अन्यथा अनुपपत्ति हेतु के द्वारा सिद्ध होता है। * काल द्रव्य परिणमन कराता नहीं और काल के बिना परिणमन होता है।* *वस्तु नई से पुरानी होती है,इससे कालद्रव्य है -यह सिद्ध होता है। *जिस प्रकार पुद्गल परमाणु इकट्ठे होकर स्कंध होता है वैसे कालाणु इकट्ठे नहीं होते,क्योंकि कालाणु में स्निध-रूक्षता का गुण नहीं है।कालाणु रत्नों की राशि के समान सम्पूर्ण लोक में हैं और वे असंख्य है तथा प्रत्येक कालाणु एक स्वतंत्र द्रव्य है।कालद्रव्य के निमित्त बिना किसी द्रव्य का परिणमन नहीं होता ।नई और पुरानी पर्यायों से कालद्रव्य का माप निकलता है। *कालद्रव्य वर्ण,रस,गंध और स्पर्श से रहित है तथा अगुरूलघु,अमूर्त और वर्तना लक्षणवाला है।लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश में एक एक कालाणु स्थित है...

अनेकांत स्याद्वाद का स्वरूप

 अनेकान्त  स्याद्वाद  स्वयम्भूस्त्रोत्र मे स्वामी समन्तभद्र ने कहा है-"हे भगवन ! 'स्यात' शब्द केवल आपके न्याय शास्त्र मे ही पाया जाता है। अन्य दार्शनिको के न्याय मे 'स्यात' शब्द नहीं है।" इसका कारण यह है की जैन दर्शन ही अनेकान्तवादी है, अन्य सब दर्शन ऐकान्तवादी है।  वस्तु सर्वथा नित्य है या सर्वथा  अनित्य है, सर्वथा सत है या असत है।  इस प्रकार के ऐकान्तवाद का निर्णय करने वाला अनेकान्तवाद है। जो तत है वही अतत है, जो एक है वही अनेक है, जो सत है वही असत है, जो नित्य है वही अनित्य है, इस प्रकार वस्तु मे परस्पर मे विरुद्ध दो शक्तियो का प्रकाशन करना "अनेकान्त" है। इसका खुलासा इस प्रकार है-स्वद्रव्य, स्वकाल, स्वक्षेत्र, स्वस्वभाव से जो सत है वही परद्रव्य, परकाल, परक्षेत्र, परस्वभाव से असत है। जैसे मिट्टी के घट का स्वद्रव्य मिट्टी है, अन्य स्वर्णादि परद्रव्य है। पृथ्वी स्वक्षेत्र है, दिवार परक्षेत्र है, वर्तमान काल स्वकाल है, अतीत परकाल है। "स्व" शब्द सदा 'पर' की अपेक्षा रखता है। इसी प्रकार विधि सदा निषेध की अपेक्षा रखता है। जो अस...

एक बैल ने सिखाया जीने का सलीका

ये कहानी आपके जीने की सोच बदल देगी! एक दिन एक किसान का बैल कुएँ में गिर गया।  वह बैल घंटों ज़ोर -ज़ोर से रोता रहा और किसान सुनता रहा और विचार करता रहा कि उसे क्या करना चाहिऐ और क्या नहीं। अंततः उसने निर्णय लिया कि चूंकि बैल काफी बूढा हो चूका था अतः उसे बचाने से कोई लाभ होने वाला नहीं था और इसलिए उसे कुएँ में ही दफना देना चाहिऐ।।   किसान ने अपने सभी पड़ोसियों को मदद के लिए बुलाया सभी ने एक-एक फावड़ा पकड़ा और कुएँ में मिट्टी डालनी शुरू कर दी। जैसे ही बैल कि समझ में आया कि यह क्या हो रहा है वह और ज़ोर-ज़ोर से चीख़ चीख़ कर रोने लगा और फिर ,अचानक वह आश्चर्यजनक रुप से शांत हो गया।   सब लोग चुपचाप कुएँ में मिट्टी डालते रहे तभी किसान ने कुएँ में झाँका तो वह आश्चर्य से सन्न रह गया.. अपनी पीठ पर पड़ने वाले हर फावड़े की मिट्टी के साथ वह बैल एक आश्चर्यजनक हरकत कर रहा था वह हिल-हिल कर उस मिट्टी को नीचे गिरा देता था और फिर एक कदम बढ़ाकर उस पर चढ़ जाता था।   जैसे-जैसे किसान तथा उसके पड़ोसी उस पर फावड़ों से मिट्टी गिराते वैसे -वैसे वह हिल-हिल कर उस मिट्टी को गिरा देता...

अति प्राचीन प्राकृत भाषा

अतिप्राचीन भाषा प्राकृत -  एक ऐसा माध्यम जिससे हम अपने भावों की अभिव्यक्ति कर सकते हैं वो है भाषा । पूरा विश्व भाषाओं की विविधता से सुशोभित है । एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते ही भाषा एवं उसके लहजे में फर्क परिलक्षित होता है। भारत में भी अनेक भाषाएं और बोलियां हैं किन्तु उन सभी का केन्द्र बिन्दु उद्गम स्थल एक ही है और वो है स्वाभाविक बोलचाल से आई भाषा - प्राकृत । जी हाँ प्राकृत भाषा जो आरम्भ से ही मनुष्य के भावों की अभिव्यक्ति के लिए स्वाभाविक रूप से स्वयं प्रकट हुई ।  अतिप्राचीन काल से जनभाषा के रूप में प्रचलित प्राकृत भाषा के मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री,अपभ्रंश आदि रूपों से होती हुई वर्तमान भारत में जो भाषा और बोलियों की धारा बह रही है उसके मूल रूप में प्राकृत भाषा का वास है।  भाषा वैज्ञानिकों का अभिमत है कि ●महाराष्ट्री अपभ्रंश से मराठी और कोंकणी,●मागधी अपभ्रंश की पूर्वी शाखा से बंगला,उड़िया तथा असमिया, ●मागधी अपभ्रंश से बिहारी, मैथिली, मगही और भोजपुरी,●अर्द्धमागधी अपभ्रंश से पूर्वी हिन्दी-अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी,●शौरसेनी अपभ्रंश से बुन्देली, कन्नौजी, ब्रजभा...

कलिंग जिन , जैन सम्राट खारवेल और उड़ीसा

कलिंग जिन प्राचीन कलिंग देश जैन धर्म का केन्द्र था। तीर्थंकर, ऋषभदेव, अजितनाथ, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, अरहनाथ, अरिष्टनेमि, पाश्र्वनाथ और महावीर तीर्थंकरों का संबंध कलिंग देश से रहा। जैन धर्म प्राचीनकाल में कलिंग का राष्ट्रीय धर्म था। यहाँ के निवासियों के बीच में जैन धर्म, राजा नन्द अर्थात् ई. पू. चौथी शताब्दी में प्रचलित धर्म नहीं बल्कि उसकी जड़ें बहुत गहराई तक पहुँची हुई थीं। चीनी पर्यटक ह्यू एनत्सांग ने ई. ६२९-६४५ में उड़ीसा का भ्रमण करने के पश्चात् कहा था कि उड़ीसा जैन धर्म का गढ़ था। ई. पू. दूसरी शताब्दी के सम्राट खारवेल के ‘हाथी गुम्फा’ नामक शिलालेख में ‘कंलिग जिन’ का उल्लेख मिलना उड़ीसा में जैन धर्म की प्राचीनता का द्योतक है। कलिंग वासी अपने आराध्य देव की ‘कलिंग जिन’ के रूप में अर्चना और आराधना करते थे। ‘जिन’ शब्द हमारी धर्म और संस्कृति का सूचक है। इसलिये ‘कलिंग जिन’ से अभिप्राय जैन तीर्थंकर है। प्रताप नगरी, बालेश्वर, कोरोपुर, खंडगिरि आदि का सर्वेक्षण करने से ज्ञात होता है वहाँ से प्राप्त तीर्थंकरों की मूर्तियों को आज भी अजैन—जन बड़ी श्रद्धा और भक्ति से अपनी प्रथा के अनुसार पूजते ह...

प्राकृत भाषा का महत्व

*प्राकृत भाषा एवं उसका महत्त्व* प्राकृत भाषा भारत की भाषा है। यह जनभाषा के रूप में लोकप्रिय रही है। जनभाषा अथवा लोकभाषा ही प्राकृत भाषा है । इस लोक भाषा ‘प्राकृत’ का समृद्ध साहित्य रहा है, जिसके अध्ययन के बिना भारतीय समाज एवं संस्कृति का अध्ययन अपूर्ण रहता है। प्राकृत में विविध साहित्य है। यह जैन आगमों की भाषा मानी जाती है। भगवान महावीर ने भी इसी प्राकृतभाषा के अर्धमागधी रूप में अपना उपदेश दिया था । यह शिलालेखों की भी भाषा रही है। हाथीगुफा शिलालेख, नासिक शिलालेख, अशोक के शिलालेख प्राकृत भाषा में ही हैं । कथा साहित्य की दृष्टि से सर्वाधिक प्राचीन रचना बड्ढकहा (बृहत्कथा) भी प्राकृत भाषा में ही लिखी गयी थी। पादलिप्तसूरी की तरंगवई, संघदासगणि की वसुदेवहिण्डी, हरिभद्रसूरि विरचित समराइच्चकहा, उद्योतनसूरिकृत कुवलयमाला आदि कृतियाँ उत्कृष्ट कथा—साहित्य की निदर्शन है। विमलसूरि विरचित ‘पउमचरियं’ जैन रामायण का ग्रन्थ है जो प्राकृत में ही लिखा गया है। जंबूचरियं, सुरसुन्दरीचरियं, महावीरचरियं आदि अनेक प्राकृत चरितकाव्य हैं जिनके अध्ययन से तत्कालीन समाज एवं संस्कृति का बोध होता है। हालकवि की गाहासतसई (...

जैन दर्शन के नय का स्वरूप

*प्रश्न1* ( *उत्तर-1) *प्रमाणयैधिगमः* !!6!!-श्रीतत्वार्थसूत्र जी के प्रथम अध्याय का छटवें नंं का सूत्र है! (निश्चय सम्यक्दर्शन प्राप्त करने के उपाय प्रमाणज्ञान,नय हैं!)  *प्रमाण*-सच्चे ज्ञान को प्रमाण ज्ञान कहते  हैं! *मति,अवधि,मनःपर्यय और केवलज्ञान प्रमाण हैं!* *नय*-श्रुतज्ञान मे ही अंश रूप नय होते हैं! ----------  *नयज्ञान की विशेषता*- ******************* *नय सम्यक् श्रुतज्ञान के अंश है* *प्रश्न*-नय श्रुतज्ञान में ही क्यों होते है,अन्य ज्ञानों में क्यों नहीं ? *उत्तर* - *अनंतधर्मात्मक वस्तु में से किसी एक धर्म को मुख्य करके जानने की प्रक्रिया श्रुतज्ञान में ही होती है ,जो ज्ञान वस्तु के एक धर्म को मुख्य करके जानता है,वह श्रुतज्ञानरूप ही होता है;अन्य मतिज्ञान आदिरूप नहीं,इसलिए नय श्रुतज्ञान में ही होते है*! २- *नयों की प्रवृत्ति प्रमाण द्वारा जाने हुए पदार्थ के एक अंश में होती है*! ३- *प्रमाण से नयों की उत्पत्ति होती है*! ४- *एकान्तवाद का नाश करने हेतु नयों की प्रवृत्ति होती है*! ५- *नयों के कथन में विवक्षित धर्म मुख्य और अविवक्षित धर्म गौण रहते है*! ६- *नय ज्ञानात्मक और...

संस्कृत का महत्व

*संस्कृत*: कुछ रोचक तथ्य.... *संस्कृत के बारे में ये 20 तथ्य जान कर आपको भारतीय होने पर गर्व होगा।* आज हम आपको संस्कृत के बारे में कुछ  ऐसे तथ्य बता रहे हैं,जो किसी भी भारतीय  का सर गर्व से ऊंचा कर देंगे;; .1. संस्कृत को भाषाओं की जननी  माना जाता है। 2. संस्कृत उत्तराखंड की आधिकारिक  भाषा है। 3. अरब लोगो की दखलंदाजी से पहले  संस्कृत भारत की राष्ट्रीय भाषा थी। 4. NASA के मुताबिक, संस्कृत धरती  पर बोली जाने वाली सबसे स्पष्ट भाषा है। 5. संस्कृत में दुनिया की किसी भी भाषा से  ज्यादा शब्द है। वर्तमान में संस्कृत के शब्दकोष में 102  अरब 78 करोड़ 50 लाख शब्द है। 6. संस्कृत किसी भी विषय के लिए एक  अद्भुत खजाना है।  जैसे हाथी के लिए ही संस्कृत में 100 से  ज्यादा शब्द है। 7. NASA के पास संस्कृत में ताड़पत्रो  पर लिखी 60,000 पांडुलिपियां है जिन  पर नासा रिसर्च कर रहा है। 8. फ़ोबर्स मैगज़ीन ने जुलाई,1987 में  संस्कृत को Computer Software  के लिए सबसे बेहतर भाषा माना था। 9. किसी और भाषा के मुकाबले संस्कृत  में सबसे कम शब...

आर्हत् अर्थात श्रमणधर्म के उपासक

आर्हत् अर्थात श्रमणधर्म के उपासक  ---------------------------------------- जैनधर्म विश्व के प्राचीन धर्मों में एक है।प्राचीन भारत में जैनधर्म एवं संस्कृति को आर्हत् धर्म अथवा श्रमण संस्कृति के नाम से जाना जाता रहा है।जैन का उदगम जिन शब्द से है।जिन शब्द का अर्थ है विकारों को जीतना अर्थात जिन्होंने विकारों को जीत लिया वे जिन कहलाए।जैनधर्म के प्रवर्तकों ने मनुष्य  को सम्यक् श्रद्धा,सम्यक् बोध और निर्दोष चारित्र के द्वारा परमात्मा बनने का मार्ग प्रशस्त कर आदर्श उपस्थित किया।इस अवसर्पिणी काल की भोग भूमि के अंत में कर्मभूमि के आदि में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से जैनधर्म का प्रारंभ और 24 वें अंतिम तीर्थंकर महावीर तक उनकी वाणी और विहार  के माध्यम से जैनधर्म का प्रचार -प्रसार हुआ।तीर्थंकरों के उपदेश को गणधरों ने ग्रहण कर जीवन के सभी अंगों का विस्तार से प्रतिपादन करने वाले द्वादसांग श्रुत की रचना की।श्रुत की परम्परा निर्ग्रंथ आचार्यों द्वारा प्रायः  दक्षिण में रहने के कारण अनवच्छिन्न रूपेण चलती रही किन्तु उत्तर भारत में भयंकर दुर्भिक्ष के कारण साधुवर्ग की चर्या में बाधा आने से उन...

जैन मंगलोत्तमशरणपाठः

मंगलोत्तमशरणपाठः  प्राचीन-पाठः चत्तारि मंगलं, अरहंतमंगलं, सिद्धमंगलं, साहुमंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं, चत्तारि लोगुत्तमा, अरहंतलोगुत्तमा, सिद्धलोगुत्तमा, साहुलोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा, चत्तारि सरणं पव्वज्जामि, अरहंतसरणं पव्वज्जामि, सिद्धसरणं पव्वज्जामि, साहुसरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि॥(१२७-अक्षरीय) [आचार्य प्रभाचन्द्र-देवकृत-क्रिया-कलाप उपलब्ध-पाठः]  चत्तारि मंगलं, अरहंतमंगलं, सिद्धमंगलं, साहुमंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं, चत्तारि लोगुत्तमा, अरहंतलोगुत्तमा, सिद्धलोगुत्तमा, साहुलोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा, चत्तारि सरणं पव्वज्जामि, अरहंतसरणं पव्वज्जामि, सिद्धसरणं पव्वज्जामि, साहुसरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि॥(१२७-अक्षरीय) [प्रभाचन्द्राचार्य-कृत-सामायिक -भाष्यस्य देव-वन्दनायाः संस्कृत-टीकायामुपलब्ध-पाठः]  चत्तारि मंगलं, अरहंतमंगलं, सिद्धमंगलं, साहुमंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं, चत्तारि लोगुत्तमा, अरहंतलोगुत्तमा, सिद्धलोगुत्तमा, साहुलोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो, च...