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जैन मंगलोत्तमशरणपाठः

मंगलोत्तमशरणपाठः 


प्राचीन-पाठः


चत्तारि मंगलं, अरहंतमंगलं, सिद्धमंगलं, साहुमंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं, चत्तारि लोगुत्तमा, अरहंतलोगुत्तमा, सिद्धलोगुत्तमा, साहुलोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा, चत्तारि सरणं पव्वज्जामि, अरहंतसरणं पव्वज्जामि, सिद्धसरणं पव्वज्जामि, साहुसरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि॥(१२७-अक्षरीय) [आचार्य प्रभाचन्द्र-देवकृत-क्रिया-कलाप उपलब्ध-पाठः] 


चत्तारि मंगलं, अरहंतमंगलं, सिद्धमंगलं, साहुमंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं, चत्तारि लोगुत्तमा, अरहंतलोगुत्तमा, सिद्धलोगुत्तमा, साहुलोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा, चत्तारि सरणं पव्वज्जामि, अरहंतसरणं पव्वज्जामि, सिद्धसरणं पव्वज्जामि, साहुसरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि॥(१२७-अक्षरीय) [प्रभाचन्द्राचार्य-कृत-सामायिक-भाष्यस्य देव-वन्दनायाः संस्कृत-टीकायामुपलब्ध-पाठः] 


चत्तारि मंगलं, अरहंतमंगलं, सिद्धमंगलं, साहुमंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं, चत्तारि लोगुत्तमा, अरहंतलोगुत्तमा, सिद्धलोगुत्तमा, साहुलोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो, चत्तारि सरणं पव्वज्जामि, अरहंतसरणं पव्वज्जामि, सिद्धसरणं पव्वज्जामि, साहुसरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि॥(१२७-अक्षरीय) [-आचार्य-शुभचन्द्र-कृत-ज्ञानार्णवस्य पदस्थ-ध्यान-प्रकरणे-३५_श्लोक-५८ उपलब्ध-पाठः] 


चत्तारि मंगलं, अरहंतमंगलं, सिद्धमंगलं, साहुमंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं, चत्तारि लोगोत्तमा, अरहंतलोगोत्तमा, सिद्धलोगोत्तमा, साहुलोगोत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगोत्तमो, चत्तारि सरणं पव्वज्जामि, अरहंतसरणं पव्वज्जामि, सिद्धसरणं पव्वज्जामि, साहुसरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि॥(१२७-अक्षरीय) [भट्टारक-शुभचन्द्राचार्य-कृत-कार्तियानुप्रेक्षा-टीकायां, गाथा-४८२_पृष्ठ-३७३ उपलब्ध-पाठः] 


चत्तारि मंगलं, अरहंतमंगलं, सिद्धमंगलं, साहुमंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं, चत्तारि लोगुत्तमा, अरहंतलोगुत्तमा, सिद्धलोगुत्तमा, साहुलोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा, चत्तारि सरणं पव्वजामि, अरहंतसरणं पव्वजामि, सिद्धसरणं पव्वजामि, साहुसरणं पव्वजामि, केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वजामि॥(१२७-अक्षरीय) [श्रीसमन्तभद्र-स्वामिकृत-बृहत्छान्ति-मन्त्र-मध्य उपलब्ध-पाठः] 


चत्तारि मंगलं, अरिहंत-मंगलं, सिद्ध-मंगलं, साहु-मंगलं, केवलि-पण्णत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारि लोगोत्तमा, अरिहंत-लोगोत्तमा, सिद्ध-लोगोत्तमा, साहु-लोगोत्तमा, केवलि-पण्णत्तो धम्मो लोगोत्तमो।चत्तारि सरणं पव्वज्जामि, अरिहंत-सरणं पव्वज्जामि, सिद्ध-सरणं पव्वज्जामि, साहु-सरणं पव्वज्जामि, केवलि-पण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि॥ (१२७-अक्षरीय) [हस्तलिखित वसुनन्दि-प्रतिष्ठा-पाठ-संग्रह उपलब्ध-पाठः] 


चत्तारि मंगलं, अरहंत मंगलं, सिद्ध मंगलं, साहु मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं, चत्तारि लोगुत्तमा, अरहंत लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साहु लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा, चत्तारि सरणं पव्वज्जामि, अरहंत सरणं पव्वज्जामि, सिद्ध सरणं पव्वज्जामि, साहु सरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि॥(१२७-अक्षरीय) [श्रीनेमिचन्द्र-प्रतिष्ठा-तिलक-ग्रन्थ उपलब्ध-पाठः, पृष्ठ क्रमाङ्क ४०] 


चत्तारि मंगलं, अरहंतमंगलं, सिद्धमंगलं, साहुमंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं, चत्तारि लोगोत्तमा, अरिहंत-लोगोत्तमा, सिद्ध-लोगोत्तमा, साहु-लोगोत्तमा, केवलि-पण्णत्तो धम्मो लोगोत्तमो, चत्तारि सरणं पव्वज्जामि, अरहंतसरणं पव्वज्जामि, सिद्धसरणं पव्वज्जामि, साहुसरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि॥(१२७-अक्षरीय) [आशाधर-सूरि-कृत-प्रतिष्ठा-सार उक्त-पाठः] 


चत्तारि मंगलं, अरहंतमंगलं, सिद्धमंगलं, साहुमंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं, चत्तारि लोगुत्तमा, अरहंतलोगुत्तमा, सिद्धलोगुत्तमा, साहुलोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा, चत्तारि सरणं पव्वज्जामि, अरहंतसरणं पव्वज्जामि, सिद्धसरणं पव्वज्जामि, साहुसरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि॥(१२७-अक्षरीय) [श्रीजयसेन-प्रतिष्ठा-पाठ उपलब्ध-पाठः, पृष्ठ ८१] 


पं. पन्नालाल सोनी, ब्यावर, पं. सुमेरचंद्र दिवाकर, सिवनी, पं. पन्नालाल साहित्याचार्य, सागर, प्रो. मोतीलाल कोठारी, फलटण, पं जगन्मोहनलाल शास्त्री, कटनी आदि अनेक विद्वानों ने इस पर पर्याप्त विचार-विमर्श किया है । यह विद्वान् प्राचीन पाठ को अर्वाचीन से भिन्न मानते थे और इनमें से अधिकांश प्राचीन पाठ के समर्थक थे। जितने भी प्राचीन यन्त्र एवं प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थ हैं, उन सभी में बिना विभक्ति का पाठ ही मिलता है । 


अर्वाचीन-पाठः


चत्तारि मंगलं-अरहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवलि-पण्णत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारि लोगुत्तमा-अरहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलि-पण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो। चत्तारि सरणं पव्वज्जामि-अरहंते सरणं पव्वज्जामि, सिद्धे सरणं पव्वज्जामि, साहू सरणं पव्वज्जामि, केवलि-पण्णत्तं धम्मं सरणं पव्वज्जामि।


विभक्ति सहित अर्वाचीन पाठ श्वेताम्बर परम्परा से आया हुआ है, ऐसा पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने गणिनी आर्यिका ज्ञानमति माताजी को बताया था। ज्ञातव्य है कि पश्चाद्वर्ती जैन प्रकाशनों में ही यह परिवर्तित रूप देखने को मिलता है, पूर्ववर्ती दिगम्बर साहित्य में कहीं नहीं । 

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