अतिप्राचीन भाषा प्राकृत -
एक ऐसा माध्यम जिससे हम अपने भावों की अभिव्यक्ति कर सकते हैं वो है भाषा । पूरा विश्व भाषाओं की विविधता से सुशोभित है । एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते ही भाषा एवं उसके लहजे में फर्क परिलक्षित होता है। भारत में भी अनेक भाषाएं और बोलियां हैं किन्तु उन सभी का केन्द्र बिन्दु उद्गम स्थल एक ही है और वो है स्वाभाविक बोलचाल से आई भाषा - प्राकृत । जी हाँ प्राकृत भाषा जो आरम्भ से ही मनुष्य के भावों की अभिव्यक्ति के लिए स्वाभाविक रूप से स्वयं प्रकट हुई ।
अतिप्राचीन काल से जनभाषा के रूप में प्रचलित प्राकृत भाषा के मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री,अपभ्रंश आदि रूपों से होती हुई वर्तमान भारत में जो भाषा और बोलियों की धारा बह रही है उसके मूल रूप में प्राकृत भाषा का वास है।
भाषा वैज्ञानिकों का अभिमत है कि ●महाराष्ट्री अपभ्रंश से
मराठी और कोंकणी,●मागधी अपभ्रंश की पूर्वी शाखा से बंगला,उड़िया तथा असमिया, ●मागधी अपभ्रंश से बिहारी, मैथिली, मगही और
भोजपुरी,●अर्द्धमागधी अपभ्रंश से पूर्वी हिन्दी-अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी,●शौरसेनी अपभ्रंश से बुन्देली, कन्नौजी, ब्रजभाषा,बांगरू,हिन्दी,●नागर अपभ्रंश से राजस्थानी, मालवी, मेवाड़ी, जयपुरी, मारवाड़ी तथा गुजराती, ●पालि से सिंहली और मालदीवन , टाक्की या ढाक्की से लहँडी या पश्चिमी पंजाबी, ●शौरसेनी प्रभावित टाक्की से पूर्वी पंजाबी,ब्राचड अपभ्रंश से सिन्धी भाषा (दरद); पैशाची अपभ्रंश से कश्मीरी
भाषा का विकास हुआ है।
भाषाओं के सम्बन्ध में यह भी एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि भाषा की स्थिति विभिन्न युगों में क्षेत्रीय प्रभाव से परिवर्तित होती रही है। भावों के संवहन के रूप में जनता का झुकाव जिस ओर रहा, भाषा का प्रवाह उसी रूप में ढलता गया।
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भाषा स्वभावत: गतिशील तत्व है। भाषा का यह क्रम ही है कि वह प्राचीन तत्वों को छोड़ती जाए एवं नवीन तत्वों को ग्रहण करती जाए। प्राकृत भाषा भारोपीय परिवार की एक प्रमुख एवं प्राचीन भाषा है| प्राचीन भारतीय आर्यभाषा काल में वैदिक भाषा का विकास तत्कालीन। लोकभाषा से हुआ। प्राकृत भाषा का स्वरूप तो जनभाषा का ही रहा। प्राकृत एवं वैदिक भाषा में विद्वान् कई समानताएँ स्वीकार करते हैं।
इससे प्रतीत होता है कि वैदिक भाषा और प्राकृत के विकसित होने से पूर्व जनसामान्य की कोई एक स्वाभाविक समान भाषा रही होगी जिसके कारण इसे 'प्राकृत' भाषा का नाम दिया गया।
मूलतः प्राकृत शब्द की व्युत्पत्ति 'प्रकृत्या स्वभावेन सिद्धं प्राकृतम्
अथवा "प्रकृतीनां साधारणजनानामिदं प्राकृतम्" है। १० वीं शती के
विद्वान् कवि राजशेखर ने प्राकृत को 'योनि' अर्थात् सुसंस्कृत साहित्यिक
भाषा की जन्मस्थली कहा है।
रुद्रटकृत काव्यालंकार में भाषाओं के भेदों के सम्बन्ध में कहा गया है - "प्राकृत-संस्कृत-मागधपिशाचभाषाश्च शौरसेनी च।
षाष्ठोऽत्र भूरिभेदो देशविशेषादपभ्रंश:।।२/१२ ॥
विद्वान् व्याख्याकार नमि साधु (११वीं शताब्दी) इसकी व्याख्या करते हुए 'प्राकृत' शब्द की व्युत्पत्ति करते हैं -
"प्राकृतेति सकलजगज्जन्तूनां व्याकरणादिभिरनाहितसंस्कारः सहजो वचन-व्यापारः प्रकृतिः, तत्र भवं सैव वा प्राकृतम्।"
प्रकृति शब्द का अर्थ है - व्याकरण आदि के संस्कार से विहीन स्वाभाविक वचन-व्यापार, उससे उत्पन्न; अथवा वही भाषा प्राकृत है।
रुद्रट आगे लिखते हैं - "पाणिन्यादिव्याकरणोदितशब्दलक्षणेन संस्करणात्
संस्कृतमुच्यते।"
अतएव मूल
ग्रन्थकार (रुद्रट) ने पहले प्राकृत का और तत्पश्चात् संस्कृत का निर्देश
किया है। पाणिनि आदि के व्याकरणों के अनुसार, 'संस्कार' प्राप्त करने
के कारण यह भाषा 'संस्कृत' कही जाती है।
वस्तुतः संस्कृत प्राचीन होते हुए भी सदा मौलिक रूप धारण करती है, इसके विपरीत प्राकृत चिर युवती है और जिसकी सन्तानें
निरन्तर विकसित होती जा रही हैं।
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महाकवि वाक्पतिराज (आठवीं शताब्दी) ने प्राकृत भाषा को जनभाषा माना है और इससे ही समस्त भाषाओं का विकास स्वीकार
किया है। गउडवहो में वाक्पतिराज ने कहा भी है -
सयलाओ इमं वाआ विसन्ति एक्तो य णेंति वायाओ।
एन्ति समुद्दं चिय णेंति सायराओ च्चिय जलाईं।।९३॥
अर्थात् 'सभी भाषाएं इसी प्राकृत से निकलती हैं और इसी को प्राप्त होती हैं। जैसे सभी नदियों का जल समुद्र में ही प्रवेश करता है और से ही (वाष्प रूप में) बाहर निकलकर नदियों के रूप में परिणत हो जाता है।'
हो जाता है। तात्पर्य यह है कि प्राकृत भाषा की उत्पत्ति अन्य किसी भाषा से नहीं हुई है, अपितु सभी भाषायें इसी प्राकृत से ही उत्पन्न हैं।
हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वान् डॉ. धीरेन्द्र वर्मा की मान्यता है कि
'प्राकृत' नाम से जो भाषा आज जानी जाती है, वह साहित्यिक भाषा है किन्तु एक मूल प्राकृत भाषा भी थी, जो संस्कृत से भी प्राचीन है। यह मूल प्राकृत जनभाषा थी और इसी ने साहित्यिक प्राकृत को जन्म दिया तथा यही भाषा बाद में अपभ्रंश कहलाई। इस प्रकार प्राकृत भाषा के सामान्य परिचय द्वारा हमें ज्ञात होता है कि विभिन्न भाषाओं का अध्ययन करने से पहले प्राकृत भाषा तथा उसमें रचे आगम ग्रंथों तथा साहित्य को समझना अत्यंत आवश्यक है। इस तरह प्राकृत भाषा ने देश की चिन्तनधारा, सदाचार, नैतिक मूल्य और काव्य जगत् को निरन्तर अनुप्राणित किया है अत: यह प्राकृत भारतीय
संस्कृति की संवाहक भाषा है। प्राकृत ने अपने को किसी घेरे में कैद नहीं किया। इसके पास जो था, उसे वह जन-जन तक बिखेरती रही और जन-
समुदाय में उसे जो अच्छा लगा, उसे वह ग्रहण करती रही। इस तरह प्राकृत भाषा सर्वग्राह्य और सार्वभौमिक तो है ही, साथ ही भारतीय संस्कृति की अनमोल विरासत भी है ।
इस प्रकार आधुनिक भारतीय भाषाओं में हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती,मराठी आदि अनेक भाषाओं के विकासक्रम को जानने के लिए प्राकृत,
अपभ्रंश का अध्ययन आवश्यक है क्योंकि ये सब इन्हीं की सगी बेटियाँ हैं। प्राकृत भाषा के शिक्षण, अध्ययन एवं विकास से देश की विभिन्न भाषाओं के प्रचार-प्रसार एवं भाषा को भाषावैज्ञानिक अध्ययन को बल मिलता है।
जिस प्रकार संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेज़ी,फ्रेंच,जर्मन आदि भाषाओं का विद्यालय में प्रारम्भिक अध्ययन करवाया जाता है उसी प्रकार "प्राकृत भाषा" का भी अध्ययन करवाया जाना चाहिए जिससे भारत वर्ष की अतिप्राचीन प्राकृत भाषा की मूल विरासत देश की भावी पीढ़ी के हाथों में सुरक्षित रह सके। प्राकृत भाषा के ज्ञानदर्पण में अनेक मोती हैं । प्राकृत भाषा के गहरे सागर में से एक-एक ज्ञानवर्धक मोती चुनकर,हम हर अंक में देंगे जिससे प्राकृत भाषा के अध्ययन में आपकी भी रुचि जागृत हो। हमें ये हमेशा याद रखना होगा कि भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ.राजेन्द्र प्रसाद जी ने कहा था कि "प्राकृत भाषा के अभ्यास के बिना भारत के इतिहास का ज्ञान अधूरा है।
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