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जैन दर्शन के नय का स्वरूप

*प्रश्न1*
( *उत्तर-1) *प्रमाणयैधिगमः* !!6!!-श्रीतत्वार्थसूत्र जी के प्रथम अध्याय का छटवें नंं का सूत्र है!
(निश्चय सम्यक्दर्शन प्राप्त करने के उपाय प्रमाणज्ञान,नय हैं!)
 *प्रमाण*-सच्चे ज्ञान को प्रमाण ज्ञान कहते  हैं!
*मति,अवधि,मनःपर्यय और केवलज्ञान प्रमाण हैं!*
*नय*-श्रुतज्ञान मे ही अंश रूप नय होते हैं!
----------
 *नयज्ञान की विशेषता*-
*******************
*नय सम्यक् श्रुतज्ञान के अंश है*
*प्रश्न*-नय श्रुतज्ञान में ही क्यों होते है,अन्य ज्ञानों में क्यों नहीं ?
*उत्तर* - *अनंतधर्मात्मक वस्तु में से किसी एक धर्म को मुख्य करके जानने की प्रक्रिया श्रुतज्ञान में ही होती है ,जो ज्ञान वस्तु के एक धर्म को मुख्य करके जानता है,वह श्रुतज्ञानरूप ही होता है;अन्य मतिज्ञान आदिरूप नहीं,इसलिए नय श्रुतज्ञान में ही होते है*!

२- *नयों की प्रवृत्ति प्रमाण द्वारा जाने हुए पदार्थ के एक अंश में होती है*!

३- *प्रमाण से नयों की उत्पत्ति होती है*!

४- *एकान्तवाद का नाश करने हेतु नयों की प्रवृत्ति होती है*!

५- *नयों के कथन में विवक्षित धर्म मुख्य और अविवक्षित धर्म गौण रहते है*!
६- *नय ज्ञानात्मक और वचनात्मक होते है*!
७- *नय सापेक्ष ही होते है,निरपेक्ष नहीं।क्योंकि निरपेक्ष नय मिथ्या होते है और सापेक्ष नय सुनय और सच्चे होते है*!
८- *नयज्ञान वस्तु स्वभाव को समझने का साधन है,साध्य नहीं।*

*नयतीति नय:*- *अर्थात् जो वस्तु स्वरूप के निकट ले जाता है,पहुंचाता है अथवा प्राप्त कराता है,उसे नय कहते है*!

*‘सकलादेशः प्रमाणाधीनो विकलादेश: नयाधीन:'। सकलादेश प्रमाण का विषय है और विकलादेश नय का विषय है। ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं। अथवा श्रुतज्ञान के विकल्प को नय कहते हैं। अथवा अनन्त धर्मात्मक पदार्थ के किसी एक धर्म को मुख्य और अन्य धर्मों को गौण करने वाले विचार को नय कहते हैं।*
*नय के भेद -प्रभेद और अंतर -*

-जिनागम में नयों के भेद इस प्रकार है -

1- *निश्चयनय -व्यवहार नय*

2-   *द्रव्यार्थिकनय*
      *पर्यायार्थिकनय*
3-
*शब्दनय,अर्थनय और ज्ञाननय*!
4-
*नैगम,संग्रह,व्यवहार,ऋजुसूत्र,शब्द,समभिरूढ़ और एवंमभूत ये सातनय*
5-
*प्रवचनसार में वर्णित सैंतालीस नय*-
6-
*संख्यात,असंख्यात और अनंत भेद भी संभव है*!
   *सर्वनयों के मूल निश्चय और व्यवहार* - ये दो नय है तथा *द्रव्यार्थिक -पर्यायार्थिक ये दोनों नय ,निश्चय-व्यवहार के हेतु है! निश्चयनय द्रव्याश्रित है और व्यवहारनय पर्यायाश्रित है*!
(इन दोनों के अंतर जानिये) --
1-
*निश्चय -व्यवहार प्रयोजन परक नय हैं और द्रव्यार्थिक आदि वस्तुपरक नय हैं*!
2- *निश्चय -व्यवहार में प्रतिपाद्य-प्रतिपादक तथा निषेध्य -निषेधक संबंध कहा है पर द्रव्यार्थिक -पर्यायार्थिक में ऐसा कोई संबंध नहीं है*!
3-
*निश्चयनय को भूतार्थ,सत्यार्थ और उपादेय कहा जाता है,और व्यवहार नय को अभूतार्थ,असत्यार्थ कहा जाता है पर द्रव्यार्थिक नयादि की वस्तु मुख्यतया ज्ञेय होती है!*
4- *निश्चय और व्यवहार नय की विषय वस्तु अलग -अलग है,निश्चय दो वस्तु को भिन्न -भिन्न मानता है और एक वस्तु को अभेद/अखण्ड मानता है वहीं व्यवहार नय एक वस्तु में भेद -प्रभेद करता है और दो द्रव्यों को एक भी कहता है*!
    *व्यवहारनय बहिरंग, संयोग,निमित्त ,भेद और उपचार आदि से कथन करता है और निश्चय अंतरंग, असंयोगी स्वभाव,उपादान,अभेद और अनुपचार से कथन करता है*
*दोनों नय वस्तु स्वरूप के प्रतिपादक होने से सम्यक् ज्ञान के अंश है*!



*नय के 7 भेद हैं- नैगमनय, संग्रहनय, व्यवहारनय, ऋजुसूत्रनय, शब्दनय, समभिरूढ़नय तथा एवंभूतनय।*

*अनिष्पन्न अर्थ में संकल्प मात्र को ग्रहण करने वाला नय नैगमनय है। जैसे-रसोई घर में अग्नि जलाते समय कहना मैं भोजन बना रहा हूँ।*

*जो नय अपनी जाति का विरोध नहीं करके एकपने से समस्त पदार्थों को ग्रहण करता है, उसे संग्रहनय कहते हैं। जैसे-द्रव्य कहने से समस्त द्रव्य, जीव कहने से समस्त जीव, मुनि कहने से समस्त मुनि और व्यापारी कहने से समस्त व्यापारी।*

*संग्रहनय के द्वाराग्रहण किए हुए पदार्थों का विधिपूर्वक भेद करना व्यवहारनय है। जैसे-द्रव्य के छ: भेद करना। जीव के संसारी-मुक्त दो भेद करना।।*

*वर्तमानकाल को ग्रहण करने वाला ऋजुसूत्रनय है।*
*पर्यायवाची सभी शब्दों का एक ही अर्थ ग्रहण करता है, वह शब्दनय है।  जैसे निग्रन्थ, श्रमण, मुनि आदि।*

*एक शब्द के अनेक अर्थ होने पर किसी प्रसिद्ध एक रूढ़ अर्थ को शब्द द्वारा कहना समभिरूढ़नय है। जैसे-गो शब्द के पृथ्वी, वाणी, किरण आदि अनेक अर्थ हैं, फिर भी गो शब्द से गाय को ग्रहण करना।।*

*जिस शब्द का जो वाच्य है, वह तद्रूप (उसी रूप) क्रिया से परिणत समय में ही जब पाया जाता है, उसे जो विषय करता है, उसे एवंभूतनय कहते हैं। जैसे- पूजा करते हुए को पुजारी कहना। राज्य करते समय राजा कहना। दीक्षा, प्रायश्चित देते समय आचार्यकहना, पढ़ाते समय शिक्षक कहना आदि।*

*इन सातनयों में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनयमिला देने से नौनय हो जाते हैं।*

*अध्यात्म पद्धति से नयों के मूल में दो भेद हैं*

*निश्चयनय - गुण-गुणी में तथा पर्याय-पर्यायी आदि में भेद न करके अभेद रूप से वस्तु को ग्रहण करने वाला नय निश्चयनय कहलाता है।*


*व्यवहारनय - गुण-गुणी में, पर्याय-पर्यायी में भेद करके वस्तु को ग्रहण करने वाला नय व्यवहारनय कहलाता है।*


*प्रश्न*- नय ज्ञान की आवश्यकता क्यों?
*उत्तर*- *जिनागम मे अनेक प्रकार के विरोधी दिखने वाले कथन उपलब्ध हैं*,जैसे-
-- *कहीं आत्मा को सिद्ध समान शुद्ध कहा है,कहीं अज्ञानी ,मूढ और दुखी कहा गया  है*!--इसी तरह-
*कहींअभेद ,अखंड,त्रिकाली बताया गया है,और कहीं मनुष्य, तिर्यंच,रागी-द्वेषी*
*तथा गुणस्थान,मार्गणा  के भेदों से अनेकरूप* कहा गया है!!!
 *इन्ही कथनो के  मर्म कै समझने के लिये नय ज्ञान की आवश्यकता है*!!अर्थात् -
        *अनंत धर्मात्मक वस्तु स्वरूप को समझने के लिये और समयक्दर्शन की प्राप्ति के लिये नय ज्ञान अनिवार्य है*!
-आचार्य कहते हैं-
*जो नय ज्ञान से रहित हैं,उन्हे वस्तु स्वरूप की उपलब्धि नहीं हो सकती*!
और *जो वस्तु स्वभाव से रहित हैं-उन्हे सम्यकदर्शन कैसे हो सकता है*?
(अर्थात नहीं हो सकता!)

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