अनेकान्त का अर्थ :
"अनेकान्त" शब्द अनेक और अन्त दो शब्दो से बना है। अनेक का अर्थ नाना, एक से अधिक और अन्त का अर्थ विनाश, छोर आदि है पर यहा धर्म से अभिप्रेत है। जैन दर्शन अनुसार वस्तु परस्पर अनेक गुणधर्मो का पिण्ड है, उसका परिज्ञान हमे ऐकान्त दृष्टी की अपेक्षा अनेकान्त से ही हो सकता है। अनेकान्त जैन दर्शन का हृदय है। समस्त जैन वाङ्गमय अनेकान्त के आधार पर वर्णित है। इसके बिना लोक व्यवहार भी नही चलता।
प्रत्येक पदार्थ मे प्रत्येक समय "उत्पाद-व्यव-ध्रौव्यात्मक " परिणमन होता आ रहा है। प्रत्येक समय परिणमनशील होने के बाद भी उसकी चिरसंतति उच्छिन्न नहीं होती, इसलिए वह नित्य है, तथा उसकी पर्याय प्रतिसमय बदल रही है, इसलिए वह अनित्य भी है। इस दृष्टी से हम कहे कि वस्तु बहुमुखी, बहुआयामी है। इस प्रकार अनेकान्त अर्थ हुआ वस्तु का समग्र बोध करनेवाली "दृष्टी"
एक ही अणु मे आकर्षण और विकर्षण की शक्ति विद्यमान है। जहा उसमे सहांरकारी शक्ति विद्यमान है, वही उसमे निर्माणकारी शक्ति भी विद्यमान है। वस्तु के परस्पर गुणधर्मो का सही मूल्यांकन सापेक्ष/अनेकान्त दृष्टी अपनाने पर ही सम्भव है।
गोपी नवनीत (मक्खन) तभी निकाल पाती है जब वह मथानी की रस्सी के एक छोर को खीचती है और दूसरे छोर को ढीला छोड़ती है। इसी प्रकार जब एक दृष्टिकोण को गौण करके दूसरे दृष्टिकोण को प्रधान किया जाता है तभी सत्य का नवनीत हाथ लगता है। अतएव 'ऐकान्त' के गंदले पोखर से निकलकर 'अनेकान्त' के शीतल सरोवर मे अवगाहित होना श्रेयस्कर है। - पुरुषार्थसिद्धयुपाय 225अनेकान्त की उपयोगिता :
वस्तु के स्वरुप को नही समझ पाने के कारण विभिन्न मतवादो की उद्भूति हुई है तथा सब अपने-अपने मत को सत्य मानाने के साथ दूसरे के मत को असत्य करार दे रहे है। नित्यवादी पदार्थ के नित्य अंश को पकड़कर अनित्यवादी को भला-बुरा कह रहा है, तो अनित्यवादी नित्यवादी को उखाड़ फेकने की कोशिश में है। सभी वस्तु के एक पक्ष को ग्रहण कर सत्यांश को ही पूर्ण सत्य मानने का दुराभिमान कर बैठे है। वस्तु के विभिन्न पहलुओ को मिलाने का प्रयाश करने पर वस्तु अपने पूर्ण रूप में साकार हो उठेगी।
अनेकान्त समन्वय का श्रेष्ट साधन है। आज वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक या जीवन के किसी भी क्षेत्र मे हमारे ऐकान्तिक रुख के कारण विसंवाद हो रहे है। इस क्षेत्र में अनेकान्त दृष्टी अपनी ही बात नहीं रखती अपितु, सामनेवाले की बात को धैर्यपूर्वक सुनती है। ऐकान्त "ही" का प्रतीक है तो अनेकान्त "भी" का। जहा ही का आग्रह होता है वहा संधर्ष होता है, जहा भी की अनुगूंज होती है वहा समन्वय की सुरभि फैलती है। "ही" में आग्रह, कलह है, "भी" में समन्वय, अपेक्षा है।
स्याद्वाद
स्यात शब्द दो है। एक क्रियावाचक और दूसरा अनेकान्तमक। यहा अनेकान्त का वाचक लिया है। वाक्यो मे प्रयुक्त "स्यात" शब्द अनेकान्त का द्योतक है। यहा स्याद शब्द निपात रूप है। निपात रूप स्याद के अनेक अर्थ नही लिये है। निपात वाचक और द्योतक दोनो है उसके बिना अनेकान्त रूप अर्थ की प्रतिप्राप्ति नहीं हो सकती है। - स्वामी समन्तभद्र, आप्तमीमांसा 103, 104स्याद्वाद का अर्थ शायदवाद नही
स्याद्वाद के अर्थ को समझने मे भारतीय दार्शिनको ने भयानक भूल की है। शंकराचार्य का अनुशरण करते हुए डा, सर्वपल्ली राधाकृष्णन (भू.पु.राष्ट्रपति, भारत) जैसे विद्वान उसी भ्रांत परम्परा का अनुशरण करते चले आ रहे है। वे स्यातवाद मे स्यात पद का अर्थ फारसी के शब्द 'शायद" से जोड़कर स्याद्वाद को शयादवाद, सन्देहवाद, सम्भावनावद या कथाचित मानते है।
जैन ग्रंथो में साफ उल्लेख है कि स्यात शब्द अनेकान्त का वाची है। जो एक निश्चित दृटिकोण को प्रगट करता है। - आप्तमीमांसा 103
जैन धर्म के स्याद्वाद सिद्धान्त को जितना गलत समझा गया है उतना किसी अन्य सिद्धांत को नही। शंकराचार्य भी इससे दोष मुक्त नहीं है। ऐसा जान पड़ता है कि उन्होने इस धर्म के मूल दर्शनशास्त्रो को पढ़ने की परवाह नही की। - प्रो. कुलभूषण अधिकारी, विभागाध्यक्ष, दर्शनशात्र काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
शब्द का स्वाभाव है कि वह अवधारणात्मक होता है। इसलिए अन्य का प्रतिषेध करने पर निरंकुश हो जाता है। उस अन्य पर प्रतिषेध पर अंकुश लगाने का कार्य "स्यात" करता है। -प्रो. महेन्द्रकुमार न्यायतीर्थ"आस्ति-नास्ति" इसमे स्याद शब्द उस अस्तित्व की स्तिथि को कमजोर नहीं बनता, किन्तु उसकी वास्तविक आंशिक स्थिति की सूचना देकर 'नास्ति' धर्म के गौण सद्भाव का प्रतिनिधित्व करता है।
"नित्य-अनित्य" प्राचीन काल से ही नित्य है, अनित्य ही है आदि हड़पू प्रकति के अंश वाक्यो ने वस्तु पर पूर्णाधिकार जमाकर अनाधिकार चेष्टा की है और जगत मे अनेक प्रकार के वितण्डा और संधर्ष उत्पन्न किये है।
इसके फलस्वरूप पदार्थ के साथ अन्याय हुआ ही है पर इस वाद-विवाद ने अनेक कुमतवादियो की सृष्टि करके अहंकार, हिंसा, संधर्ष अनुदारता असहिष्णुता से संसार को अशान्त और संघर्षपूर्ण हिंसा की ज्वाला मे पटक दिया है। स्यात शब्द वाक्य के उस जहर को निकाल देता है जिससे अहंकार पक्षपात का सृजन होता है।
स्याद्वाद के बिना लोक व्यवहार नही चलता। इसी प्रकार पदार्थ के सापेक्षता की दृष्टि से अविरोधी तत्त्व प्राप्त होते है। विरोधी धर्म के समन्वय के अभाव मे सदा संधर्ष होते रहते है। विवाद का अंत स्याद्वाद से ही हो सकता है। इस प्रकार स्याद्वाद वस्तु स्वरुप के निरूपण की तर्कसंगत और वैज्ञानिक प्रणाली है।
- द्रव्य : गुण समुदाय को द्रव्य कहते है। द्रव्य अर्थात वस्तु।
- क्षेत्र : द्रव्य के प्रदेशो-अवययो को क्षेत्र कहते है।
- काल : द्रव्य के परिणमन को काल कहते है।
- भाव : द्रव्य के गुण शक्ति अथवा परिणमन को भाव कहते है।
आचार्य समन्तभद्र के प्रसिद्ध दार्शनिक ग्रन्थ "आप्तमीमांसा" मे लिखा है, प्रत्येक वस्तु या तथ्य द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा सत है, तथा पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा असत है। ये सत और असत धर्म वस्तु में एक साथ रहते है। वस्तु अस्तित्ववान है, तो नास्तिवान भी है। प्रत्येक वस्तु विरोधी धर्मो का पुंज है।स्याद्वाद शब्द जैनो का है, किन्तु तत्त्व निरूपण की दृस्टि से यह सबको मान्य हो सकता है। स्याद्वाद का मूल स्रोत तीर्थकरो की वाणी है। इसको दार्शनिक रूप उत्तरवर्ती आचार्यो ने दिया है। यह जितना दार्शनिक है उतना ही व्यवहारिक भी है।
"प्रसिद्ध वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टाइन ने जिस सापेक्षवाद Theory of relativity का कथन किया है यह वही सापेक्षता का सिद्धांत है, लेकिन वह केवल भौतिक पदार्थो तक सीमित है। जैन दर्शन मे इसे और भी व्यापक अर्थो मे कहा है कि लोक के सारे अस्तित्व साक्षेप है। उन्हे लेकर कहा गया कोई भी निरपेक्ष कथन सत्य नहीं है।"
डॉ निर्मल पाटनी
‘जेण विणा लोगस्स वि, ववहारो सव्वहा न निव्वहई
तस्स भुवणेक्क गुरुणो, णमो अणेगंतवाईस्स।’अर्थ- जिसके बिना लोक का व्यवहार बिलकुल नहीं चल सकता, विश्व के उस एकमेव गुरु अनेकांतवाद को प्रणाम करता हूँ।
विश्व की अनेक प्रधान समस्याओं में एक वैचारिक समस्या भी है। एक मनुष्य के विचार दूसरे से मेल नहीं खाते। विचारों के साथ जब मेरा और तेरा शब्द जुड़ जाता है तो मेरा और तेरा प्रधान हो जाता है और विचार गौण हो जाता है। इस कारण ये वैचारिक मतभेद मद-भेद में परिवर्तित होकर अनेक समस्याओं को उत्पन्न कर देते हैं। जब ये मतभेद धर्म या सम्प्रदाय के क्षेत्र में होता है तो इतिहास साक्षी है कि उससे समुदायों में घृणा और नफरत उत्पन्न होकर हिंसा का रूप ले लेती है और मनुष्य, मनुष्य के प्राणों का प्यासा हो जाता है।
विचारों में मतभेद का एक प्रमुख कारण यह है कि संपूर्ण सत्य एक समय में वाणी से नहीं कहा जा सकता है। हम अपेक्षित सत्य ही बोल सकते हैं। पूर्ण सत्य अनिर्वचनीय है। एक दृष्टिकोण से किसी भी वस्तु के लिए बोला गया सत्य उससे भिन्न दृष्टिकोण से बोले गए सत्य से विरुद्ध लगता है। जैसे एक व्यक्ति को अगर हम उसके पिता की दृष्टि से देखें या कहें तो वह पुत्र है और जब उसी व्यक्ति को उसके पुत्र की दृष्टि से देखें और कहें तो वह पिता है। इसी तरह दो इंच की लाइन एक इंच की लाइन से बड़ी कही जाती है और वही दो इंच की लाइन तीन इंच या इससे अधिक बड़ी लाइन की दृष्टि से छोटी दिखती है और कही जाती है। विष मृत्यु कारक होने से मारक कहा जाता है लेकिन जब वैद्य द्वारा उसका उपयोग दवा के रूप में होता है तो वह जीवनरक्षक कहा जाता है।
सांसारिक व्यवहार में तो हम कहने वाले की दृष्टि को समझ लेते हैं और कोई विरोध अथवा विवाद उत्पन्न नहीं होता है लेकिन धार्मिक क्षेत्र में स्थिति इसके विपरीत है जिसके कारण अनावश्यक विवाद व साम्प्रदायिक हिंसाएँ हुईं। वास्तव में द्रव्य अथवा वस्तु अनेकांतात्मक है। उसमें अनेक धर्म व गुण है। द्रव्य का स्वभाव व विभाव रूप परिणमन भी है और कई धर्म और गुण एक-दूसरे के विरोधात्मक भी हैं। एक ही द्रव्य किसी अपेक्षा से सत व किसी अपेक्षा से असत, किसी अपेक्षा से नित्य व किसी अपेक्षा से अनित्य, किसी अपेक्षा से एक, किसी अपेक्षा से अनेक, किसी अपेक्षा से वक्तव्य व किसी अपेक्षा से अवक्तव्य। ऐसे ही स्वचतुष्टय की अपेक्षा अस्ति रूप और पर द्रव्य की अपेक्षा नास्ति रूप है। धर्मशास्त्रों व दर्शनशास्त्रों में भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से वस्तुस्वरूप का कथन किया हुआ मिलता है। और उसी को लेकर विवाद होते हैं। वे यह नहीं समझते कि कथन वस्तु स्वरूप के विरोधी गुणों, अवस्थाओं, स्वरूप में से एक को मुख्य और दूसरे को गौण करके कथन किया जाता है। वह दूसरी स्थिति का निषेध नहीं करती। इस विषय में कई व्यक्ति तो नकारात्मक सोच से चलते हैं कि :
मजहबी बहस हम ने की ही नहीं।
फालतू अक्ल हममें थी ही नहीं॥भगवान महावीर और जैन दार्शनिकों ने सकरात्मक दृष्टि से समन्वय के लिए ‘स्याद्वाद-सिद्धांत’ का प्रतिपादन किया है। इसे ही नयवाद कहते हैं। स्याद्वाद में स्याद् तथा वाद ये दो शब्द हैं स्याद् शब्द का अर्थ कथञ्चित अथवा किसी एक दृष्टिकोण का द्योतक है उसका अर्थ शायद नहीं है जो कि कई अजैन विद्वानों ने समझ लिया है। वाद का अर्थ कथन करना है, स्याद्वाद का अर्थ वस्तुस्वरूप का किसी एक अपेक्षा से अथवा एक दृष्टि से वर्णन करना है। स्याद्वाद सिद्धांत अन्य पक्ष के दृष्टिकोण को समझने की ओर संकेत करता है। इसका तात्पर्य यह है कि जिस दृष्टिकोण से वस्तु के एक स्वरूप का कथन किया गया है, वह वस्तु उस दृष्टिकोण से वैसी ही है और अन्य दृष्टिकोण से किया गया कथन उस दृष्टिकोण से वैसा ही है। इस तरह स्याद्वाद संशयवाद नहीं है। बल्कि वाणी में अनिवर्चनीय सत्य का पूर्ण ज्ञान करने का मार्ग है।
खेद की बात तो यह भी है कि जैन विद्वान निश्चयनय से कहे गए कथन और उसके विपरीत अशुद्ध निश्चयनय एवं व्यवहारनय से किए गए कथनों में समन्वय नहीं करके सत्य को जानने के लिए वैसे ही विवाद करते हैं, जैसे ‘बालू पेल, निकाले तेल’ मेरे विचार में व्यवहारनय की मुख्यता से कथन करने वाले विद्वानों को श्री समयसार की गाथा नं. 4 ध्यान में रखनी चाहिए। इस गाथा में श्री कुंदकुंद आचार्य ने कहा है कि काम, भोग और बंध (पुण्य-पाप) की कथा तो संपूर्ण लोक में खूब सुनी है, परिचय में ली है एवं अनुभव में है, लेकिन निश्चयनय की विषय-वस्तु शुद्धात्मा की कथा न कभी सुनी, न कभी परिचय में आई और न अनुभव किया है। वह सुलभ नहीं है। इसके बिना वास्तविक धर्म और लक्ष्य का निर्धारण ही नहीं होता। इसी प्रकार निश्चयनय को मुख्य कर कथन करने वाले विद्वानों को श्री समयसार की गाथा नं. 12 ध्यान में रखनी चाहिए। जिस गाथा में कहा गया है कि जो पुरुष अंतिम पाक से उतरे हुए शुद्ध स्वर्ण के समान परमभाव अथवा शुद्धात्मा का अनुभव करते हैं, उनको व्यवहारनय ग्रहण योग्य नहीं है, लेकिन जिन्होंने इस शुद्धात्मा को प्राप्त नहीं किया है और साधक अवस्था में हैं, वे (मुख्यतया श्रावक) व्यवहारनय द्वारा उपदेश करने योग्य हैं। वास्तव में मेरी समझ में तो यह विवाद उपदेश अथवा कथन शैली का अंतर है जिसने समाज में अनावश्यक विवाद उत्पन्न कर रखा है।
‘जैन धर्म के सिद्धांत प्राचीन भारतीय तत्वज्ञान और धार्मिक पद्धति के अभ्यासियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इस स्याद्वाद से सर्व सत्य विचारों का द्वार खुल जाता है।’ – प्रो. हर्मन जेकोबी
‘जिस प्रकार मैं स्याद्वाद को जानता हूँ, उसी प्रकार मैं उसे मानता हूँ… मुझे ये अनेकान्तवाद महाप्रिय है।’ – महात्मा गाँधी
‘जब से मैंने शंकराचार्य द्वारा सिद्धांत का खंडन पढ़ा है, तब से मुझे विश्वास हुआ कि इस सिद्धांत में बहुत कुछ है, जिसे वेदांत के आचार्यों ने नहीं समझा।’ – महामहोपाध्याय डॉ. गंगानाथ झा, वाइस चांसलर प्रयास विश्वविद्यालय
‘स्याद्वाद व अनेकांत वस्तुस्वरूप को यथार्थ बतलाता है। बहुत से अजैन विद्वानों ने इस स्याद्वाद को ठीक न समझकर खंडन किया है।’ – प्रो. फणिभूषण अधिकारी, एम.ए.
‘इसे भङ्गो के कहने का मतलब यह नहीं है कि प्रश्न में निश्चयपना नहीं है या एकमात्र संभवरूप कल्पनाएँ करते हैं। जैसा कुछ विद्वानों ने समझा है। इन सबसे यह भाव है जो कुछ कहा जाता है, वह सब किसी द्रव्य, क्षेत्र, कालादि की अपेक्षा से सत्य है।’ – डॉ. भंडारकर एम.ए.
‘प्राचीन ढर्रे के हिन्दू धर्मावलंबी, बड़े-बड़े शास्त्री तक अब भी नहीं जानते कि जैनियों का ‘स्याद्वाद’ किस चिड़िया का नाम है। धन्यवाद है जर्मनी, फ्रांस और इंग्लैंड के कुछ विद्यानुरागी विशेषज्ञों को जिनकी कृपा से इस धर्म के अनुयायियों के कीर्ति-कलाप की खोज हुई और भारतवर्ष के इतरजनों का ध्यान आकृष्ट किया।’ – साहित्य महारथी, हिन्दी सम्राट श्री महावीरप्रसादजी द्विवेदी ‘प्राचीन जैन लेख संग्रह’ की समालोचना में अपने पत्र ‘सरस्वती’ में लिखते हैं।
सामाजिक समस्याओं का समाधान: अनेकांतवाद
दिलीप गांधीसामाजिक समस्याओं का समाधान: अनेकांतवाद आज हाईटेक युग में व्यक्ति लोभ, हिंसा, परिग्रह, तनाव, विषमता, भ्रष्टाचार, दहेज, कन्या भू्रण हत्या आदि शारीरिक पीड़ाओं और सामाजिक समस्याओं से ग्रसित है। इन तमाम समस्याओं के समाधान में अनेकान्त की महत्ती भूमिका है। अनेक $ अंत = अनेकांत जहां अंत = स्वरूप, स्वभाव या धर्म है, अनंता: धर्माः सामान्य विशेष पर्याय गुणा$ परमिति सिद्धो अनेकांतः जिसमें अनेक और अंत अर्थात् धर्म, विशेष, गुण और पर्याय पाये जाते हैं, उसे अनेकांत कहते हैं।जन साधारण को जीव हिंसा से बचाने के लिए महावीर ने अहिंसा का उपदेश दिया और वैचारिक मतभेदों, उलझानों, झगड़ों आदि से बचने के लिए, शांति की स्थापना के लिए अनेकान्तवाद का सिद्धान्त दिया। अनेकांत भारत की अहिंसा का चरम उत्कर्ष है। इसे संसार जितना अधिक उपनायेगा, विश्वशान्ति उतनी ही जल्दी संभव है। वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानने की सही दृष्टि ही अनेकान्त है। चिंतन की अहिंसामयी प्रक्रिया का नाम अनेकांत है और चिंतन की अभिव्यक्ति की शैली या कथन स्याद्वाद हैं। अनेकांत एक वस्तु में परस्पर विरोधी और अविरोधी धर्मों का विधाता है वह वस्तु का नाना धर्मात्मक बताकर चरितार्थ हो जाता है। अनेकान्तवाद हमारी बुद्धि को वस्तु के समस्त धर्मों की ओर समग्र रूप से खींचता है।अनेकांत दृष्टि का अर्थ है - प्रत्येक वस्तु में सामान्य रूप से, विशेष रूप से, प्रिय और अप्रिय की दृष्टि से नित्यत्व की अपेक्षा से, अनित्य की अपेक्षा से सद्रूप से और असद्रूप से अनंत धर्म होते हैं। समाज में विभिन्नता एवं साम्प्रदायिकता का विवाद भी अनेकांत से मिटाया जा सकता है। जब एकांगी दृष्टिकोण विवाद और आग्रह से मुक्त होंगे तभी भिन्नता में समन्वय के सूत्र परिलक्षित हो सकेगें।समाज में एक ही प्रकार की जीवन प्रणाली, एक ही प्रकार के आचार-विचार की साधना न तो व्यवहार्य है और न संभव ही। वैचारिक सहिष्णुता के लिए अनेकान्तवाद के अवलम्बन की आवश्यकता है। सच्चा अनेकांतवादी किसी भी समाज-व्यक्ति के द्वेष नहीं करता। मानव की यह विचित्र मनोवृति हैं कि वह समझता है कि जो वह कहता है वही सत्य है और जो वह जानता है वही ज्ञान है क्योंकि इसके भीतर अहंकार छिपा हुआ है। अनेकान्तवाद से यही संकेत किया जाता है कि आचार के लिए और विचार के लिए सद्विचार, सहिष्णुता एवं सत्प्रवृति का सहयोग आवश्यक है। पर-पक्ष को सुनो उसकी बातों में भी सत्य समाया हुआ है। अनेकान्तवाद सिर्फ विचार नहीं है आचार-व्यवहार भी है जो अहिंसा, अपरिग्रह के रूप में विकसित हुआ है।इस प्रकार अनेकान्तवाद जीवन की जटिल समस्याओं के समाधान का मूल मंत्र है। यह अहं तुष्टि सह अस्तित्वः वसुधैव कुटुम्बकम, जीओ और जीने दो की भावना का विकास करता है जिससे मानवीय गुणों की वृद्धि होती है जीवन का सम्पूर्ण विकास इसी से संभव है।
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