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प्राकृत भाषा का महत्व

*प्राकृत भाषा एवं उसका महत्त्व*


प्राकृत भाषा भारत की भाषा है। यह जनभाषा के रूप में लोकप्रिय रही है। जनभाषा अथवा लोकभाषा ही प्राकृत भाषा है । इस लोक भाषा ‘प्राकृत’ का समृद्ध साहित्य रहा है, जिसके अध्ययन के बिना भारतीय समाज एवं संस्कृति का अध्ययन अपूर्ण रहता है। प्राकृत में विविध साहित्य है। यह जैन आगमों की भाषा मानी जाती है। भगवान महावीर ने भी इसी प्राकृतभाषा के अर्धमागधी रूप में अपना उपदेश दिया था । यह शिलालेखों की भी भाषा रही है। हाथीगुफा शिलालेख, नासिक शिलालेख, अशोक के शिलालेख प्राकृत भाषा में ही हैं । कथा साहित्य की दृष्टि से सर्वाधिक प्राचीन रचना बड्ढकहा (बृहत्कथा) भी प्राकृत भाषा में ही लिखी गयी थी। पादलिप्तसूरी की तरंगवई, संघदासगणि की वसुदेवहिण्डी, हरिभद्रसूरि विरचित समराइच्चकहा, उद्योतनसूरिकृत कुवलयमाला आदि कृतियाँ उत्कृष्ट कथा—साहित्य की निदर्शन है। विमलसूरि विरचित ‘पउमचरियं’ जैन रामायण का ग्रन्थ है जो प्राकृत में ही लिखा गया है। जंबूचरियं, सुरसुन्दरीचरियं, महावीरचरियं आदि अनेक प्राकृत चरितकाव्य हैं जिनके अध्ययन से तत्कालीन समाज एवं संस्कृति का बोध होता है। हालकवि की गाहासतसई (गाथा सप्तशती) बिहारी की सतसई का प्रेरणास्रोत आधारग्रन्थ रही है। गाहा सतसई शृंगाररस प्रधान काव्य है, जिस पर १८ टीकाएँ लिखी जा चुकी हैं। रुद्रट , मम्मट, विश्वनाथ आदि काव्य शास्त्रियों ने गाहासतसई की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है तथा संस्कृत के काव्यशास्त्रों में गाहासतसई कवि भट्ट मथुरानाथ शास्त्री ने इस पर ‘सर्वङ्कषा’ संस्कृत टीका लिखी है । जयवल्लभ द्वारा रचित ‘वज्जाग्ग’ भी प्राकृत की एक महत्वपूर्ण रचना है, जिसमें प्राकृत भाषा के सम्बन्ध में कहा है।

ललिए महुरक्खरए जुवईयणवल्लहे ससिगारे।
सन्ते पाइयकव्वे को सक्कइ सक्कयं पढिउं।।

अर्थात् ललित एवं मधुर अक्षरों से युक्त, युवतियों को प्रिय तथा शृंगाररसयुक्त प्राकृत काव्य के होते हुए संस्कृत को कौन पढ़ना चाहेगा। यह कथन प्राकृत की महत्ता को सुबोधता, सुग्राह्यता, सरसता आदि विशेषताओं से स्थापित करता है। वाक्पतिराज के गउडवाहो में कहा है—

सयलाओ इमं वाया विसंति, एत्तो य णेंति वायाओ।
एंति समुद्ध चियं णेंति सायराओ च्चिय जलाइं।।

समस्त भाषाएँ प्राकृत भाषा में ही प्रवेश करती हैं तथा सभी भाषाएँ प्राकृत भाषा से ही निकलती हैं। यह उसी प्रकार होता है जिस प्रकार कि समस्त जल समुद्र में ही जाकर गिरता है तथा समुद्र से ही निकलता है।

संस्कृत जहाँ संस्कारित अथवा परिष्कृत भाषा है, वहाँ प्राकृत लोकभाषा है। अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि प्राकृत भाषा का उद्भव कब हुआ ? कुछ विद्वान् इसे संस्कृत से उत्पन्न मानते हैं, किन्तु जनभाषा को संस्कृतभाषा से उत्पन्न नहीं माना जा सकता। प्राकृत में एवं वैदिक संस्कृत में अनेक भाषा है एवं संस्कृत अलग। संस्कृत जहाँ शिक्षितों की भाषा है वहाँ प्राकृत आमजन की भाषा है। प्राकृत एवं संस्कृत में ही भेद है जो हिन्दी एवं मारवाड़ी में है। हाँ, यह अवश्य है कि जिस प्रकार मारवाड़ी एवं हिन्दी में परस्पर संवाद सम्भव है इसी प्रकार प्राकृत एवं संस्कृत में भी संवाद सम्भव है। संस्कृत नाटकों में इसके उदाहरण भरे पड़े हैं। वहाँ शिक्षित ऋषि, राजा आदि संस्कृत भाषा का प्रयोग करते हैं तथा रानी, विदूषक, नटी, द्वारपाल, सभी स्त्री पात्र एवं सामान्यजन प्राकृत भाषा में अपने विचार सम्प्रेषित करते हैं।

महाकवि कालिदास ने कुमारसम्भव महाकाव्य में शिव एवं पार्वती परिणय पर सरस्वती द्वारा शिव को संस्कृत में तथा पार्वति को प्राकृत भाषा में आशीर्वचन प्रदान कराया है, यथा—

द्विधा प्रयुत्तेन च वाङ्मयेन, सरस्वती तं मिथुनं नुनाव।
संस्कारपूतेन वरं वरेण्यं, वधूं सुखग्राहिनिबन्धनेन


—कुमारसम्भव
संस्कृत को पुरुषबन्ध अर्थात् कठोरबन्ध वाली तथा प्राकृत को सुकुमारबन्ध वाली भाषा मानते हुए दोनों में उतना ही अन्तर माना गया है जितना स्त्री एवं पुरूष में—

परुसो सक्कयबंधो, पाउअबंधो वि होइ सुउमारो। 
पुरिसमहिलाणं जेत्तिअमिहंतरं तेत्तिअमिमाणं।।

प्राकृत लोकभाषा है, इसलिए उसके विविध रूप हैं। इन रूपों में महाराष्ट्री, शौरसेनी, अर्धमागधी, मागधी, पैशाची आदि प्राकृत भाषाएँ प्रयुक्त रहीं। जैन वाङ्मय में प्राकृत प्रमुख भाषा है, किन्तु प्राकृत के प्रकारों की दृष्टि से विचार करें तो श्वेताम्बर आगम जहाँ अर्धमागधी प्राकृत में हैं, वहाँ दिगम्बर आगम ग्रन्थ शौरसेनी प्राकृत में हैं। प्राकृत के ये नाम क्षेत्र विशेष में प्रयुक्त होने से पड़े हैं। संस्कृत नाटकों में जो प्राकृत प्रयुक्त हुई है उसमें शौरसेनी, मागधी एवं महाराष्ट्री का प्रयोग अधिक हुआ है। कालिदास, भवभूति, भास आदि के नाटक इसके साक्षी हैं।

प्राकृत भाषा में जो वैशिष्ट्य है उसका अनुमान कालिदास के नाटक अभिज्ञानशाकुन्तलम् में प्रयुक्त शब्दावली ‘सउंदलावण्णं पेक्ख’ से किया जा सकता है। प्राकृतभाषा में प्रयुक्त इस शब्दावली से दो अर्थ स्पष्ट होते हैं।

१.शकुन्त (सउंद) अर्थात् पक्षी का लावण्य (लावण्णं) देखो (पेक्ख)।

२. शकुन्तला से वर्ण (सउंदला—वण्णं) को अर्थात् शकुन्तला पुत्र भरत को देखों (पेक्ख)।

ये दो अर्थ संस्कृत पंक्ति ‘शकुन्तलावण्यं प्रेक्षस्व’ से नहीं निकलते हैं। उसका एक ही अर्थ ‘शकुन्त के लावण्य को देखो’ निकलता है। उपमा, श्लेष, रूपक आदि अलंकारों के साथ व्यंजना शक्ति के प्रयोग भी प्राकृत भाषा में भरपूर हुए हैं। एक उदाहरण देखिए जिसमें एक भील की तीन पत्नियों द्बारा पूछे गए तीन प्रश्नों का एक ही उत्तर देकर तीनों को सन्तुष्ट कर दिया गया है—

भल्लस्स तिण्णि भज्जा, इक्का भग्गइ पाणि देहि।
बीआ मग्गइ हरिणं, तईआ गरवाए गीअं।।

एक पत्नी कहती है— पानी दीजिए, दूसरी कहती है हरिण चाहिए, तीसरी पत्नी गीत सुनाने की याचना करती है। भील ने तीनों प्रश्नों का एक ही उत्तर दिया ‘सरो नत्थि’। प्राकृत भाषा में प्रयुक्त इस वाक्य के तीन अर्थ हैं—

१. सर नहीं है, तालाब नहीं है अत: पानी नहीं दिया जा सकता है।

२. शर अर्थात् बाण नहीं है इसलिए हरिण का शिकार नहीं हो सकता है,

३. स्वर नहीं है अत: गीत नहीं गाया जा सकता।

सर, शर एवं स्वर इन तीनों के लिए प्राकृत में ‘सर’ शब्द है।

प्राकृत भाषा से ही अपभ्रंश एवं फिर हिन्दी तथा अनेक ग्रामीण भाषाओं का विकास हुआ । प्राकृत के बहुत से शब्द हैं जो भारत की ग्रामीण भाषाओं में उपलब्ध हैं, किन्तु संस्कृत में वे शब्द नहीं है। प्राकृत के ऐसे शब्दों को प्राकृत वैयाकरणों ने देशज शब्द कहा है। ठंडा, नाहर, छोयर (छोरा), चिडय (चिडी), बइल्ल (वैल) आदि देशज शब्द हैं। ईसर, सीस, जणा, लोग आदि से अनेक शब्द हैं जो राजस्थानी एवं प्राकृत में ज्यों के त्यों हैं। प्राकृत भाषा की यह विशेषता है कि इसमें द्विवचन का प्रयोग नहीं है। वर्णमाला में ऋ, ऌ आदि कुछ वर्ण नहीं है। तीन प्रकार के श ष स में से मागधी को छोड़कर मात्र ‘स’ का ही प्रयोग मिलता है। इसमें मुखसौकर्य है। जो आसानी से बोले जा सके, ऐसे ही रूपों की प्रधानता है। इसमें ‘सहस्र’ ‘शीर्ष’, ‘प्रव्रज्या’, ‘कृतज्ञता’ जैसे संयुक्त व्यंजन वाले शब्द नहीं होते । इसमें संयुक्त व्यंजन वाले शब्द होते हैं, किन्तु उनमें प्राय: एक ही वर्ग के संयुक्त वर्ग पाये जाते हैं, यथा ‘सहस्स’, पवज्जा, धम्म आदि शब्दों में एक ही वर्ग में संयुक्त अक्षर हैं । संधियाँ प्राकृत में दो ही हैं— दीर्घ सन्धि एवं गुण सन्धि। अन्य संधियों का प्रयोग इसमें नहीं है। विसर्ग का प्रयोग भी प्राकृत में नहीं है। समास का प्रयोग भी कम है। इन विभिन्न विशेषताओं के आधार पर प्राकृत भाषा संस्कृत की अपेक्षा सरल है।

एक विचित्र बात यह है कि प्राकृत भाषा में साहित्य रचना होने के कारण वैयाकरणों ने प्राकृतभाषा का व्याकरण तो बनाया है, किन्तु व्याकरण—ग्रन्थों की रचना संस्कृत भाषा में की है। संस्कृत शब्दों को आधार मानकर उनके प्राकृत परिवर्तनों का निर्देश किया है । किन्तु यह प्राकृत को समझाने का आधार मात्र है। इससे यह नहीं कहा जा सकता कि प्राकृत का उद्भव संस्कृत से हुआ है। वररुचि, चण्ड, मार्कण्डेय आदि अनेक प्राकृत वैयाकरण हुए हैं, किन्तु उनमें हेमचन्द्रसूरि द्वारा रचित प्राकृत व्याकरण अधिक व्यवस्थित एवं विस्तृत है। उन्होंने अपभ्रंश का भी व्याकरण दिया है। हेमचन्द के ‘शब्दानुशासन’ के प्रथम सात अध्यायों में संस्कृत भाषा का भी व्याकरण है तथा अन्तिम आठवें अध्याय के चारों पाठों में प्राकृत का व्याकरण दिया है।

लोक संस्कृति को जानना हो तो प्राकृत साहित्य अधिक महत्वपूर्ण है । कुवलयमाला में खेतों में हल जोतने वाले कृषकों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि बैलों के नथुने बिंधे हुए हैं, उनके गले में रस्से बंधे हुए हैं और तेज नुकीले चाबुक से मारकर हांके जाने से उनके शरीर से रक्त बह रहा है।

विदेशियों ने भी प्राकृत भाषा एवं उसके साहित्य का अध्ययन किया है जिनमें याकोबी, वूल्नर एवं रिचर्ड पिशेल के नाम प्रमुख हैं। रिचर्ड पिशेल ने प्राकृत भाषाओं पर जर्मन में व्याकरण ग्रन्थ लिखा था, जिसका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित है।

आज भी भारत एवं विदेश के कुछ विश्वविद्यालयों में प्राकृतभाषा का अध्ययन— अध्यापन होता है, तथापि इसे अभी वह स्थान प्राप्त नहीं है , जिससे यह कहा जा सके कि आज का आम व्यक्ति प्राकृत भाषा के नाम से परिचित है। लाडनूँ, श्रवणबेलगोला, उदयपुर, जयपुर, जोधपुर, चेन्नई आदि ऐसे स्थान हैं जहाँ प्राकृत का अध्यापन होता है। वर्धमान महावीर खुला विश्वविधालय, कोटा ने प्राकृत एवं अपभ्रंश में सर्टिफिकेट पाठ्यक्रम प्रारम्भ किए हैं। देश के कुछ विश्वविद्यालयों में संस्कृत एवं प्राकृत में संयुक्त विभाग हैं।प्राकृत भाषा को सिखाने के प्रयत्न आज भी चल रहे हैं, किन्तु अनेक विश्वविद्यालयों में प्राकृत—गाथाओं को संस्कृत—छाया के माध्यम से पढ़ाया जा रहा है, जो प्राकृत का तिरस्कार है। इसे दूर कर सीधे प्राकृत का अध्ययन किया जाए तो उसके प्रति रुचि का विकास हो सकता है तथा भारतीय थाती की अक्षुण्णता को सुरक्षित रखा जा सकता है।
Dr धरमचंद जैन 

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