आर्हत् अर्थात श्रमणधर्म के उपासक
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जैनधर्म विश्व के प्राचीन धर्मों में एक है।प्राचीन भारत में जैनधर्म एवं संस्कृति को आर्हत् धर्म अथवा श्रमण संस्कृति के नाम से जाना जाता रहा है।जैन का उदगम जिन शब्द से है।जिन शब्द का अर्थ है
विकारों को जीतना अर्थात जिन्होंने विकारों को जीत लिया वे जिन कहलाए।जैनधर्म के प्रवर्तकों ने मनुष्य को सम्यक् श्रद्धा,सम्यक् बोध और निर्दोष चारित्र के द्वारा परमात्मा बनने का मार्ग प्रशस्त कर आदर्श उपस्थित किया।इस अवसर्पिणी काल की भोग भूमि के अंत में कर्मभूमि के आदि में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से जैनधर्म का प्रारंभ और 24 वें अंतिम तीर्थंकर महावीर तक उनकी वाणी और विहार के माध्यम से जैनधर्म का प्रचार -प्रसार हुआ।तीर्थंकरों के उपदेश को गणधरों ने ग्रहण कर जीवन के सभी अंगों का विस्तार से प्रतिपादन करने वाले द्वादसांग श्रुत की रचना की।श्रुत की परम्परा निर्ग्रंथ आचार्यों द्वारा प्रायः दक्षिण में रहने के कारण अनवच्छिन्न रूपेण चलती रही किन्तु उत्तर भारत में भयंकर दुर्भिक्ष के कारण साधुवर्ग की चर्या में बाधा आने से उनकी बुद्धि और स्मृति में शनै-शनै हीनता परिलक्षित होने लगी और मुखाग्र द्वादसांग ज्ञान उत्तरोत्तर घटता चला गया।विक्रम की प्रथम शताब्दी के कुछ पूर्व तक निर्ग्रंथ साधुओं की स्मृति में जो ज्ञान था उसे संकलित कर ताडपत्रों पर अंकित किया गया।मूल प्रति से अनेक प्रतियों को तैयार कराना श्रमसाध्य कार्य था फिर भी इस कार्य को मुस्तैदी से करने का साहस किया गया।प्रकांतर से इस साहित्य में पर्याप्त मिलावट और कांट-छांट होगई जिसके फलस्वरूप शिथलाचार में बृद्धि हुई और दिगम्बर -श्वेतांबर रूप में सम्प्रदाय भेद हो गये।
दौनों ही सम्प्रदायों में अनेक संघ, गण,गच्छ आदि भेद प्रभेद होते चले गये।आचार्य भगवन्तों ने अपने शिष्यों को जो श्रुत ज्ञान दिया उसमें दोनों ही सम्प्रदाय के कुछ सम्मिलित और कुछ विभक्त शिष्य रहे।यह विक्रम संवत् 136 का काल माना जाता है।आचार्य गुणधर के शिष्य आर्यमंक्षु और नागहस्ति की प्रसिद्धि दोनों ही परम्पराओं में रही।
ईसापूर्व 150 के लगभग कलिंग चक्रवर्ती सम्राट खारवेल द्वारा उडीसा के कुमारी पर्वत पर साधु सम्मेलन का आयोजन किया गया।इस सम्मेलन में मथुरा संघ के प्रभावी होने से सरस्वती आन्दोलन व श्रुत संरक्षण को तरजीह दी गई।उत्तर भारत के दिगम्बर आचार्य गुणधर व दक्षिण भारत के आचार्य कुंदकुंद द्वारा ईसवी सन् प्रारंभ के पूर्व ही ग्रथों की रचना प्रारंभ कर दी गई।आगम संकलन की दृष्टि से यह काल महत्वपूर्ण माना जा सकता है।यही वह समय था जब आगम संकलन की आवाज बुलन्द हुई पर आगम ज्ञान की मौखिक परम्परा भी बदस्तूर चलती रही।जैन पट्टावली के अनुसार आचार्य भद्रवाहु से 183 वर्ष बाद हुए दशपूर्व धारियों का अंतिम समय 200 ईसवी पूर्व माना जाता है।इसी काल में स्थूलभद्र की अध्यक्षता में जैनसंघ एकत्र हुआ पर उनके स्वीकृत ज्ञान को अस्वीकार कर दिया गया।यहीं से जैनसंघ दिगम्बर और श्वेतांबर दो भागों में विभक्त हो गया।एक की कमान आचार्य कुंदकुंद के हाथ में रही जो मूल दिगम्बर परम्परा के सर्वमान्य आचार्य थे तो स्थूलभद्र ने श्वेतांबर परम्परा को प्रतिष्ठापित किया।
तीर्थंकर महावीर की मूल परम्परा में जो मुनिराज रहे उन मुनियों का संघ मूलसंघ कहलाया।गौतम गणधर के अष्टम पट्टधर भद्रवाहु प्रथम थे जो ई.पूर्व 366 में चंद्रगुप्त आदि 12 हजार मुनिराजों के साथ उज्जैनी से विहार करते हुए दक्षिण पहुंचे और श्रवणबेलगोल को मूलसंघ का प्रमुख केन्द्र बनाया।भद्रवाहु परम्परा के निर्ग्रंथ मुनि अपने संघ को मूलसंघ का कहते थे।(भारतीय इतिहास एक दृष्टि पृ.235)
श्रवणबेलगोल के शिलालेख सं. 105 से स्पष्ट भाषित होता है कि मूलसंघ में आ.कुन्दकुन्द से पहले और भी कई अन्य मुनि हुए हैं परन्तु आ.कुन्दकुन्द विशिष्ट रहे हैं।
भद्रवाहु द्वितीय इस परम्परा के 27 वें पट्टधर आचार्य हुए जो दक्षिणात्य मूलसंघ के अधिपति थे जो आ. कुन्दकुन्द के गुरु थे।समय के प्रभाव से मूलसंघ अनेक गण गच्छों में विभाजित हो गया।इसके अन्तर्गत सात गणों के नाम मिलते हैं-देवगण,सेनगण,देशीगण,सूरस्थगण,
बलात्कार गण,क्राणूरगण और निगमान्वय गण।
मूलसंघ के अतिरिक्त अनेक संघों का उल्लेख भी प्राप्त होता है जैसे-
यापनीय संघ,द्राविड संघ,कूर्चक संघ,काष्टा संघ,नन्दितट गच्छ,माथुर गच्छ और लाडवागड गच्छ। अब तक जितने भी आचार्य हुए वे सब इन्हीं संघों और गण गच्छों से संबंधित रहे।मूलसंघ प्राकृत-संस्कृत साहित्य पहली शताब्दी से ही उपलब्ध है।मूलसंघ आम्नाय की पट्टावलि से यह भी विदित होता है कि वि.सं.26 में गुप्तिगुप्त नामक आचार्य मूलसंघ के पट्ट पर थे जो परवार जाति के थे।
आ.गुप्तिगुप्त परमार वंशभूषण महाराजा विक्रमादित्य के पोते थे जो अपने काल में अनेक मुकटबद्ध राजाओं द्वारा प्रशंसित थे।आप प्रसिद्ध
निमित्त ज्ञानी और एक अंग के ज्ञाता आ. भद्रवाहु द्वितीय के शिष्य थे।विक्रमादित्य उज्जैन के शासक थे। मूलसंघ की सर्वप्रथम गादी उज्जैन में ही थी।(परवार बंधु,मार्च 1940)पत्रिका के अनुसार सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य भी परमार वंश के शिरोमणि थे।यही उल्लेख सिद्धांताचार्य पं.फूलचंद शास्त्री ने अपनी पुस्तक "परवार जाति का इतिहास "में भी किया है।परवार बंधु में प्रकाशित अनेक लेखों से सिद्ध होता है कि परमार क्षत्रिय ही परवार हैं
जो मूलसंघ आम्नाय के हैं।वटेश्वर की
पट्टावलि में भी इस बात का उल्लेख है
कि आ.गुप्तिगुप्त मूलसंघ के आदिपुरुष थे और उनकी जाति परवार थी।
आ.भद्रवाहु द्वितीय का समय विक्रम संबत 4 माना गया है।इस काल में मुनि संघ में तरह-तरह के भेद
परिलक्षित होने लगे थे।इन्द्रनन्दि संहिता में इस बात का उल्लेख है कि जाति संकरता के डर से आ.भद्रवाहु ने उत्तम कुल वालों को ग्रामादि के नाम पर जातियों में विभक्त कर दिया।
मूलसंघ में अधिग्रहित व्रत संयम की
बहुत सावधानी रखी जाती है।उसके बिना "यह मुनि सम्यक्त्वी है या नहीं " यह नहीं जाना जा सकता। बाह्य में सराग सम्यक्त्व ही उसकी पहचान है।शनै-शनै आचार्य व अनगार परम्परा
में शिथिलता का समावेश हो गया और
वह बढता ही चला गया।उत्तरकाल में आचार्य परम्परा का स्थान भट्टारक परम्परा ने ले लिया और दक्षिण भारत जो मूलसंघ का गढ था कालान्तर में
भट्टारकों की कृपा से काष्ठासंघी हो गया।मूलसंघ का साधारण नियम था-
ग्रहस्थ पूजा आदि धार्मिक कार्य खडे होकर करें,जिन मंदिर में रात्रि में दीपक न जलाऐं,पंखे आदि का प्रयोग न करें,जिन गुरुओं में सम्यक्त्व के बाह्य चिन्ह दिखलाई दें उनकी ही भक्ति करें,रत्नत्रय मार्ग को ही प्रशस्त बनाकर रखें।
मूलसंघ का नोण मंगल के दान पत्र में
सबसे पहली बार उल्लेख हुआ है जो
वि.सं.482(425ई.)के लगभग का है।यह दान पत्र विजयकीर्ति के लिए उर नूर के जैनमंदिरों को कोंगणि वर्मा ने
प्रदान किया था।मूलसंघ में अनेक दिग्गज जैनाचार्य हुए हैं जिन्होंने अपनी प्रतिभा से वीर शासन का ध्वज लहराया है।इन्द्रभूतिगौतम, आचार्य भद्रबाहु,आ.पुष्पदंत,आ.कुन्दकुन्द,
आ.उमास्वामी,समंतभद्र,देवनंदी,पात्रकेशरी,आ.अकलंकदेव,वीरसेन,
जिनसेनाचार्य, आ.विध्यानंद तथा आ.
नेमिचंद सिद्धांत चक्रवर्तीवर्ती जैसे
समर्थ आचार्यों ने मूलसंघ को पल्लवित व पुष्पित किया।
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